एवरेस्ट हेतु चुनाव शिविर-1983 (माणा चोटी)

चन्द्रप्रभा ऐतवाल

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान द्वारा चलाये गये इस शिविर में भारतवर्ष के सभी महिला व पुरुष पर्वतारोही सम्मिलित थे। हमेशा की ही तरह यहाँ भी महिलाओं की संख्या कम थी। इस शिविर में 1982 के दार्जिलिंग शिविर के सदस्य भी शामिल थे। अत: पर्वतारोहियों की संख्या अन्य शिविरों से ज्यादा थी। एक-दो दिन तक नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रशिक्षण क्षेत्र में चट्टान आरोहण का अभ्यास करने के बाद हम बस द्वारा जोशीमठ पहुँचे। जोशीमठ में सेना की कैन्टीन से सामान खरीदना था। अत: दो दिन तक जोशीमठ में रुके रहे और वहाँ से आवश्यक सामान खरीदा।

जोशीमठ से माणा गाँव के ऊपर शिविर लगाया। उस दिन माणा गाँव में जन्माष्टमी मनायी जा रही थी। हमारे सभी सदस्य मन्दिर गये। मन्दिर में स्थानीय लोगों के साथ नाच व चाँचरी (ढुस्का) देखा। बड़ा ही अच्छा लग रहा था। मैं मुटुम कौलोंग के साथ गाँव में सत्तू खरीदने गयी। वहाँ हमने नमकीन चाय पी और साथ ही सत्तू भी खाया। सत्तू से लड्डू सा बनाया जाता है। उसे हम अपनी स्थानीय भाषा में बारैं कहते हैं। इसमें घी, गुड़ या चीनी मिलाया जाता है, जो बहुत स्वादिष्ट होता है। कुछ लोग बारैं नहीं बनाकर घी, चीनी मिलाकर गौल भी पीते हैं। पहाड़ के लिये इस प्रकार का खाना बनाने में सरल भी होता है और जल्दी पच भी जाता है। इसे गर्म पानी या ठण्डे पानी में घोल बनाकर आराम से पी सकते हैं और पूरी भूख मिट जाती है। हमारे घरों में सत्तू का बहुत चलन है। ये गेहूँ, मटर, लाल भट्ट, मक्का तथा कहीं-कहीं मडुए का भी बनाया जाता है।

माणा से एडवान्स आधार शिविर (अइउ) तक सामान पहुँचाने गये। उस शाम को लड़कियाँ वापस शिविर ही नहीं आयीं जिससे सभी को चिन्ता हुई। दूसरे दिन नाश्ता करके उन्हें ढूँढने कुछ लोग गये और कुछ लोग सामान लेकर उन्हें पहुँचाने गये। पता चला कि दोनों लड़कियाँ रास्ता भूल गयी थीं और बकरी वालों के डेरे में पहुँच गयी थीं।

तीसरे दिन माणा से अग्रिम प्रशिक्षण वाले आधार शिविर पहुँचे। वहाँ तीन मैस टेन्ट लगाये। एक मैस टेन्ट पहले दिन ही लगा रखा था। उसमें पहुँचाया हुआ सभी सामान डाल रखा था। अग्रिम प्रशिक्षण वालों ने आधार शिविर में सामान पहुँचाने का कार्य किया।

आधार शिविर बहुत ही सुन्दर फैला हुआ मैदान था। आस-पास में बहुत-सी चट्टानें भी थी, जिसमें हम लोग चट्टान आरोहण का अभ्यास भी कर सकते थे। दो बड़े पत्थरों की आड़ में रसोई के लिये पत्थरों से दीवार बनाकर ऊपर से तारपोलिन डाला और बहुत सुन्दर रसोई घर बन गया। पास ही कचरे को डालने के लिये गड्डा खोदा और बर्तन धोने व सुखाने के लिये चौड़े-चौड़े पत्थर बिछाये।

एक मैस टेन्ट में कर्नल प्रेमचन्द, लाटु, रतन सिंह, बोधा, रीता, गम्बू, रेखा शर्मा, हर्षवन्ती बिष्ट, सरस्वती और मैं थे। इस प्रकार चार मैस टेन्ट में अलग-अलग लोग थे। कर्नल सन्धू (लीडर) अपने छोटे टेन्ट में थे। तीन दिन का समय ए.बी.सी. से सामान आधार शिविर तक पहुँचाने में लग गया। कुछ लड़कियाँ सामान पहुँचाने का कार्य करते समय यह कहकर चिल्लाती थीं कि जिस पत्थर पर तुम पैर रखते हो उसी पर मैं रखती हूँ तो क्यों लुढ़क जाता है आदि। सबका अपना वजन तथा पैर रखने का तरीका अलग-अलग होता है, यह नहीं समझते थे।

एक दिन आस-पास के ही पत्थरों पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे थे। मगन विसा ने कहा, मैं नाश्ता खिलाऊंगा। बेचारा पराठे बनाते-बनाते थक गया। जो भी पराठा बन जाता, बस कोई भी आकर खा जाता था और खाने वाले रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अन्त में उसे ही खुद कहना पड़ा कि अब बस भी करो। इस प्रकार मस्ती भी करते थे।

शाम को सभी की एक बैठक बुलाई गयी और माणा चोटी पर चढ़ाई करने की योजना तैयार की गयी। कल सभी सदस्यों को प्रथम शिविर सामान पहुँचाने हेतु जाना होगा। इस बात का बैठक में फैसला लिया गया। नाश्ता करने के बाद सभी 10 किलो के लगभग बोझ लेकर प्रथम शिविर की ओर चल पड़े। प्रथम शिविर में पहुँचकर एक मैस टेन्ट लगाया और अन्य टेन्टों के लिये जगह बनायी। आस-पास से पत्थर लाकर रसोई के लिये जगह बनाई। प्रथम शिविर बर्फ के ऊपर लगाया गया। लगभग 2 घण्टे तक प्रथम शिविर में रुके रहे। मैस टेन्ट के अन्दर सारा पहुँचाया हुआ सामान डाला। इसके बाद सभी आधार शिविर की ओर वापस आये। दूसरे दिन भी सामान पहुँचाने का ही कार्य किया। अब एक और मैस टेन्ट तथा दो छोटे टेन्ट लगाये। तीसरे दिन कुछ चुने हुये सदस्यों को प्रथम शिविर रहने हेतु भेजा। उन सदस्यों में मेरा नाम भी था।

अब हमारे कुछ सदस्य आगे के लिये सामान पहुँचाने तथा रास्ते खोलने का कार्य कर रहे थे। प्रथम शिविर और द्वितीय शिविर के बीच में सारे रास्ते में रस्सियाँ लगानी पड़ रही थीं। एक जगह तो रिज से नीचे होना था तब जाकर बर्फ के मैदान में जाना पड़ता था। वहाँ से सीधी चढ़ाई चढ़ने के लिए रस्सियाँ लगाकर रखी थीं। बाकी पीछे के सदस्य जुमार की सहायता से चट्टान आरोहण कर रहे थे। प्रथम शिविर से द्वितीय शिविर तक रास्ता खोलने में दो दिन का समय लग गया। इस प्रकार छंटे हुए सदस्य ही आगे द्वितीय शिविर पहुँच पाये। द्वितीय शिविर में चार छोटे टेन्ट लगाये। यहाँ ढाल को काट-काटकर टेन्ट के लिये जगह बनायी, क्योंकि द्वितीय शिविर में ढाल काफी तेज थी।
(Selection Camp for Everest – 1983)

द्वितीय शिविर से अन्तिम शिविर के बीच का रास्ता काफी खतरनाक था। बीच में आइस फाल पड़ता था। उसमें रूकसेक के साथ जुमार से चढ़ाई करनी थी, पर आधे रास्ते तक जाकर मैने अपना रूकसेक फेंकदिया। क्योंकि जुमार से चढ़ने में मुझे रूकसेक भारी लग रहा था और मुझे ऊपर चढ़ने में तकलीफ हो रही थी। किसी तरह आइस फाल चढ़कर खत्म करने के बाद रूकसेक को रस्सी से बाँधकर ऊपर खींचा।

अन्तिम शिविर बर्फ पर ही कुछ समतल जगह पर बनाया गया। यहाँ भी दो दिन तक रास्ते खोलकर शिविर को आगे ले गये। यहाँ चार-पाँच छोटे टेन्ट लगे थे। जैसे-जैसे सदस्य आते गये टेन्ट में घुसते चले गये। कर्नल प्रेमचन्द व महावीर को टेन्ट ही नहीं मिला। अत: स्टोर के सामान को दाँये-बाँये खिसकाकर उन दोनों के लिये रात काटने हेतु जगह बनायी। उनके सबसे करीब के दोस्तों ने भी उनके लिये जगह नहीं रखी। इसीलिए अच्छे व सही दोस्त की पहचान ऊँचाई पर होती है, ऐसा मैं सोचती हूँ।

अन्तिम शिविर से जिसको जो मिला उसी के साथ रस्सियों से बँधकर चलते बने। चोटी फतह से पहले सीधी चढ़ाई चढ़नी थी। फिर रिज में पहुँचकर टे्रबास करनी थी। उसके बाद चढ़ाई चढ़कर फिर चोटी में पहुँचना था, किन्तु लगाई हुई रस्सियाँ कम पड़ने के कारण आगे के लिये रास्ते नहीं खोल पाये। अत: सभी वहीं रुक गये। बाद में यह निर्णय लिया गया कि अब वापस चला जाय। इस प्रकार दिन भर की मेहनत बेकार चली गयी। अब सभी सावधानी से वापस आ रहे थे। कुछ सदस्य हमें वापस होते देखकर आधे रास्ते से ही वापस हो गये थे। वापसी में हमें और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है, क्योंकि थके भी होते हैं और कुछ लापरवाह भी। इस कारण सभी आराम से सुरक्षित अन्तिम शिविर पहुँचे। कुछ सदस्य वहीं रुक गये, पर मैंने द्वितीय शिविर जाने का विचार किया। इस तरह कुछ सदस्य द्वितीय शिविर में आये। वहाँ भी काफी सदस्य पहले से ही थे। इसलिये भीड़-भाड़ काफी थी, परन्तु रात आराम से कट गयी।

अब सभी को वापस जाने की चिन्ता लग रही थी। अत: आवश्यक सामान लेकर धीरे-धीरे वापस आये। द्वितीय शिविर और प्रथम शिविर के बीच में जो चढ़ाई थी, उसमें रस्सियाँ लगा रखी थीं। वहाँ पर काफी देर लग गयी, क्योंकि सभी को एक-एक करके चढ़ना था। उस दिन लगभग सभी सदस्य प्रथम शिविर में रुके थे और कुछ आधार शिविर की ओर चल पड़े।

दूसरे दिन सभी सदस्य आधार शिविर आये, लेकिन कुछ सदस्य रात भर चिल्ला रहे थे। सुबह पता चला कि मनाली के इन्स्ट्रक्टर श्री महावीर चौहान के पैर में फ्रॉस्टबाइट के लक्षण दिख रहे थे, उंगलियों में सूजन थी और वह नीली पड़ गयी थीं। कैप्टन चौहान की तबीयत खराब हो गयी थी। पैर में भी कुछ सूजन आ गयी थी। इस कारण लीडर ने हैलीकॉप्टर मँगाया जो दूसरे दिन आधार शिविर में आ गया था। हम लोगों ने पुराने बोरे, घास आदि जलाकर हैलीकाप्टर को सिग्नल दिया। काफी चक्कर लगाने के बाद वह सही स्थान पर उतर गया। फिर नाश्ता कराने के बाद तीनों बीमार लोगों को बरेली के सेना अस्पताल भेज दिया गया।

अब हम लोगों का काम सभी शिविरों के सामान को इकट्ठा करना, सुखाना और बाँधकर वापसी के लिये बोझ बनाना था। जब सारा सामान आधार शिविर पहुँच गया और नीचे आने की तैयारी पूरी हो गयी, तब सारे कचरे को जलाकर शिविर साफ करके छोड़ा। वापसी में ए.बी.सी. में एक रात रुके, फिर वहाँ से सीधा माणा गाँव के पास शिविर किया। रात काफी लोग सेना वालों के यहाँ खाना खाने गये और कुछ ने अपने ही शिविर में खाया। दूसरे दिन श्री बद्रीनाथ जी का दर्शन करने के बाद जोशीमठ आये। अब हमारी यात्रा सेना के थ्रीटन में हो रही थी। जिसमें हम रायवाला तक आये। वहाँ से व्यक्तिगत गाड़ी द्वारा दिल्ली भारतीय पर्वतारोहण संस्थान पहुँचे।
(Selection Camp for Everest – 1983)

दिल्ली में एक रात हमारे साथ के सदस्य युसूफ जहीर ने सभी सदस्यों को अपने घर पर खाना खिलाया। उसके बाद सभी सामान  वापस करने के बाद अपने-अपने घर की ओर रवाना हुये। मैं उत्तरकाशी न आकर अपने दोस्तों को देखने बरेली सेना अस्पताल गयी। कैप्टन चौहान ठीक होकर चले गये थे। लैफ्टिनेन्ट बग्गा काफी ठीक हो गये थे। लेकिन बेचारे महावीर ठाकुर की दो उंगलियों में काफी तकलीफ थी। इस वजह से वह अस्पताल में ही थे।

महावीर कहने लगा कि मैं यहाँ का खाना खाते-खाते तंग आ गया हूँ। अत: कहीं बाहर जाकर खाना खाते हैं। बग्गा ने रिक्शा मंगाया और हम तीनों बाहर खाने के लिये अस्पताल से डरते-डरते चल पड़े। खाना खाने के बाद महावीर ने अपना मनपसन्द चौकलेट, केक, पेस्ट्री आदि खरीदा, फिर रिक्शा से वापस अस्पताल गये, पर किसी प्रकार की गड़बड़ी नहीं हुई। मुझे अलग कमरा मिल गया था और रात चैन से कट गयी। जैसे ही सुबह महावीर को मिलने गयी तो उसका मुँह छोटा हो गया था और वह कहने लगा चन्द्रा, तुमने आलमारी को ठीक से बन्द नहीं किया और सारा खाना बिल्ली खा गयी। मुझे भी बहुत बुरा लगा पर मैं क्या करती? मुझे बहुत पछतावा हो रहा था।

इस प्रकार उसको छोड़कर बाजार जा नहीं सकती थी। अत: उसके पास ही बैठी रही। इतने में एक विद्यार्थी उनसे मिलने तथा हाल-चाल पूछने आया। बस, मैंने सोचा इसी समय बाजार जाया जाय। मैं महावीर को बताये बिना ही बाजार गयी और जो-जो सामान कल लाया था, उससे अधिक सामान लेकर आयी। उसे बड़ा ही अच्छा लगा। मुझे भी उसकी खुशी में खुश होने का मौका मिल गया। दूसरे दिन वापस दिल्ली आयी क्योंकि मैंने अपना सारा सामान दिल्ली में ही छोड़ रखा था।

इस तरह इस एवरेस्ट चुनाव अभियान में चोटी फतह तो नहीं कर पाये, पर बहुत से नये-नये अनुभव हुये। माणा गाँव में जहाँ पर हमने शिविर लगाया था, उस जगह का अब कहीं अता-पता ही नहीं है। वहाँ बहुत से मकान बन गये हंै, क्योंकि मई 2005 में श्री बद्रीनाथ जी के दर्शन करने के बाद माणा गाँव गयी थी। अब वह गाँव जैसा है ही नहीं। अब तो वह एक कस्बा बन गया है और सारे रास्ते में दुकान, होटल आदि दिख रहे थे। हाँ, एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी कि हस्तकला की वस्तुएँ काफी दिख रही थी। पर्यटक ऊनी टोपी, ऊनी मोजा, पंखी, कम्बल, दन आदि खरीद रहे थे ।

सरस्वती नदी का तट सुनसान था, पर वहाँ तक दुकानें बन गयीं और मकान भी। गाड़ी गाँव तक पहुँच गयी थी। लोगों का आना-जाना भी बहुत बढ़ गया था। मई में रास्ते पर चलने में धक्के लग रहे थे।  मैं अपने पुराने समय के माणा को ढूँढ रही थी, लेकिन कही भी देख नहीं पायी। उसका पूरा स्वरूप ही बदल गया है। लोगों की सोच में भी परिवर्तन आ गया है। जो पहले खेती पर ही निर्भर थे, अब दुकानें, होटल खोलकर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने में लगे थे। साथ ही कुछ लोग अच्छे पथ प्रदर्शक का कार्य कर रहे थे और पर्यटकों को सरस्वती नदी, भीम गाँजा आदि के बारे में विस्तार से समझा रहे थे। पाँच पाण्डवों की कथा सुनाकर स्वर्गारोहिणी पर्वत यही है, ऐसा भी कह रहे थे। इसके अलावा आस-पास के तीर्थ स्थलों के बारे में भी पर्यटकों को विस्तार से समझा रहे थे। सुनकर हमें भी अच्छा लगा और खुशी हुई कि इन लोगों ने पैसा कमाने का रास्ता ढूँढ लिया है।

क्रमश:
(Selection Camp for Everest – 1983)
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें