संस्कृति : बाबुल खोलो परद वर देखिये

उमा भट्ट

लोकगीतों की रचना किसने की होगी और ये गीत कब लिखे गये होंगे, ये सवाल इतिहास में अनुत्तरित ही रह जाते हैं। इन गीतों का एक प्रकार संस्कार गीत भी हैं, जो विभिन्न संस्कार यानी नामकरण, विवाह, व्रतबन्ध आदि के अवसर पर केवल स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप में गाये जाते हैं। लोक साहित्य की तरह इनके भी रचनाकार अज्ञात हैं पर इन गीतों में जिस तरह स्त्रियों का संसार प्रकट होता है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्भवत: स्त्रियों ने ही इन्हें रचा हो। कुमाऊँ में प्रचलित ये संस्कार गीत कितने प्राचीन हैं, यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता, परन्तु इनकी हिन्दी मिश्रित कुमाउँनी भाषा, कुमाऊँ के ब्राह्मण समाज द्वारा इनका गाया जाना, ब्रज तथा अवध की लोक संस्कृति के इनमें मौजूद प्रतिबिम्ब आदि से अनुमान लगाया जा सकता है कि पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के आस-पास से इन गीतों का प्रचलन शुरू हुआ होगा जबकि मध्यदेश से आकर कई जातियां यहाँ रच-बस गई होंगी।

बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल तक भी इन गीतों को गानेवाली स्त्रियाँ घूंघट में रहती थीं, उनमें शिक्षा का अभाव था, बाल-विवाह होते थे, पति की मृत्यु के बाद नितान्त कष्टकर जीवन था, बहु-विवाह को बुरा नहीं समझा जाता था। स्त्रियों को घर से निकालना, मार-पीट करना ये भी सामान्य बातें थीं। ऐसे पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्रियों को अपना मन खोलने की इजाजत नहीं थी। पर ये गीत उसके मन की इच्छाओं-अभिलाषाओं को उन्हीं के कंठ-स्वरों में समवेत रूप से और सार्वजनिक तौर पर प्रकट कर देते हैं, इसमें संशय नहीं।

संस्कार गीतों के विस्तृत फलक में से यहाँ विवाह के अवसर पर कन्या के घर में गाये जाने वाले गीतों के आधार पर यह जानने का प्रयास किया गया कि लड़की के विवाह के प्रसंग में गाये जाने वाले ये गीत उसकी इच्छाओं को कैसे प्रकट करते हैं।

इन सभी गीतों में काम का विभाजन है। कुछ काम पुरुषों के जिम्मे हैं और कुछ का दायित्व स्त्रियों पर है। विविध सामग्री मोल लेने का काम पुरुष वर्ग का है और उसको कूट-काट कर या अन्य तरीकों से तैयार करना या साज-संभाल करना स्त्रियों का काम है। पुरुष आटा मोल लाते हैं, स्त्रियाँ उसे छानकर, भूनकर लड्डू बनाती हैं। पुरुष सोने का दिया मोल लाते हैं और स्त्रियाँ बत्ती बनाकर, तेल डालकर दिया जलाती हैं। अर्थात् पैसा पुरुष के हाथ में है, साज-संभाल स्त्री के। बाहरी दुनियां पुरुष की है, घर के भीतर की स्त्री की।

गीतों में वर ढूंढने की प्रक्रिया में बेटी को शामिल किया जाता है। पिता बेटी से कहता है-

पूरब ढूंढो बेटी पच्छिम ढूंढो नहिं पायो लाड़ि को कान्त ए।
उत्तर ढूंढो बेटी दक्खिन ढूंढो नहिं पायो लाड़ि को कान्त ए।

अन्त में उत्तर दिशा में मिले जिस वर के लिए बेटी अपनी स्वीकृति देती है, वह पिछले समय तक की ब्राह्मण परम्परा का आदर्श है-

हाथ छ धोती बेटी काख छ पोथी बैठि पुराण सुनाइए।
उस रे पंडित के दिये मेरे बाबुल कुल तुमारो उज्यालिए।

लड़की की बारात आते समय रिवाज के अनुसार उसे अपनी बारात नहीं देखनी होती। विवाह के समय उसे घूंघट में मां तथा अन्य स्त्रियां अपने आंचल से ढककर लाती हैं लेकिन गीत कुछ और बात कह रहा है। पालकी में लाल रंग का आसन बिछा हुआ है, उसे देखकर लड़की का मन मचल उठता है खेलने के लिए। लड़का कहता है मैं तो हाथी, घोड़े बाजार में छोड़ आया, मैं कैसे खेलूं। इसपर कन्या कहती है, हाथी घोड़ा मेरे बाबुल के घर में बहुत हैं, आओ तुम हम खेल लें –

लाल दुलैंच पालकि आओ दुलहा तुम हम खेलिए।
हस्ति बिसरि अयुं हाट में घोड़ा बिसरि अयुं हाट में।
हस्ति बाबुल घर भौत हि घोड़ा बाबुल घर भौत हि।
लाल दुलैंच पालकि आओ दुलहा तुम हम खेलिए।

बारात आती है और बड़ी संख्या में आती है। गांव-घर का मामला है। कन्या के पिता घबरा उठते हैं कि इस बारात को अब कैसे संभाला जाय। उन्हें आशंका होती है कि कहीं अब उनकी लड़की अविवाहित न रह जाय। पर बारात का वापस जाना बेटी को मंजूर नहीं। वह पिता को हिम्मत बंधाती है, आप घबराइये नहीं, आप अकेले नहीं हैं, मामा, चाचा, भाई सब मिलकर इस बारात को निभा लेंगे-

यो दल देखि डरै मेरे बाबुल रहो बेटि कन्या कुंवारि रे।
कन्या कुंवारि बबज्यु रहियो न जाइये ये दुख सहियो न जाइ रे।
उठो उठो बाबुल, उठो उठो वीरन कर हो रसोइ को कार रे।
पैलि रसोइ मेरे मामा देंगे देंगे यो दल थाइ रे।

यथार्थ में यह असंभव था कि बारात के आगमन के समय बेटी बाप को समझाये या चाचा, मामा को तैयार करे या विवाह के प्रति अपनी उत्सुकता प्रकट करे और अविवाहित रहने से इन्कार करे पर गीतों में स्त्रियां यह सब रचती हैं और गा-गा कर सुना भी देती हैं।
(Sanskriti)

जब ये गीत रचे गये होंगे या हाल-फिलहाल तक भी वर-कन्या का विवाह पूर्व एक-दूसरे को देखना तो दूर, कई बार विवाह की समझ भी न होती होगी। बारात आ गई है, विवाह की रस्म शुरू हो गई है, कन्या पक्ष और वर पक्ष के बीच एक परदा टांग दिया गया है। मन में  चाह उठती है कि कैसा है उसका वर। अव्यक्त इच्छा गीत के रूप में सयानी स्त्रियों के कंठ से गूंज उठती है- बाबुल खोलो परद वर देखिये। परदा उठने पर उसने देखा, वर तो सांवला है। मन में परिताप उठा, मैं गोरी हूँ और वर सांवला है। तब पिता ने समझाया, यह उसी के साथ नहीं हुआ है, सबके साथ ऐसा ही हुआ है-

बेटी मत कर मन को चिंतावना, बेटी मत कर मन को पछतावना।
बेटि मां गोरी बाबुल सांवरो, बेटि अजुध्या में रामीचन्द्र सांवरो
पिता सांवरेपन का कारण भी समझाते हैं-
बेटी बर आयो माघ तुष्यारि में, बेटी बर आयो जेठ कि धूप में
बेटि इस गुन तेरो बर सांवरो

उसके मन में इच्छाएं थीं पर विद्रोह नहीं था। वह जानती थी कि वह दान की वस्तु है। वस्तु समझे जाने की छटपटाहट उसमें नहीं जनमी थी। मन में भी नहीं, गीतों में भी नहीं। फुलवारी के फूल की तरह स्वयं को देखती हुई वह अबोध कन्या पिता से पूछती है, यह फुलवारी क्यों बोई है और कन्या का जन्म क्यों हुआ है। पिता उत्तर देते हैं, पूजा के लिए फूल बोये गये हैं और दान देने के लिए कन्या का जन्म हुआ है। न फूल का अस्तित्व अपने लिए है और न कन्या का।

काहे के कारन बबज्यु बोई फुलवारी काहे के कारन उपजी कन्या ए।
पूजा के कारन बेटी बोई फुलवारी दान के कारन उपजी कन्या ए।

यद्यपि ये गीत अतिशय भावुकता से ओतप्रोत हैं पर इनमें जो लड़की गढ़ी गई है, वह लड़की अपेक्षाकृत स्थिर दिखाई देती है। वह बार-बार सवाल करती है। कन्यादान के संकल्प से पूर्व गड़ुवे से जल की धार बेटी के हाथ पर डाली जाती है। पुत्री के पराये होने का अहसास बढ़ता जाता है। कांपती जल धार से पुत्री महसूस करने लगती है कि गड़ुवे की धार डालते हुए माँ-बाप के हाथ कांप रहे हैं। वह निश्चल यथार्थ वाणी में बोलती है, पिताजी हृदय को मत कंपाओ, मन को स्थिर रखो। पिता कहते हैं, मैं कहाँ कांप रहा हूं, वह तो गड़ुवे की धार कांप रही है, कुश की डाली कांप रही है। यह पिता-पुत्री के बीच का संवाद है जिसमें पुत्री पिता से धैर्यवान होने के लिए कह रही है-

हम कहां कंपै लाड़ु लड़ैती वो तो कंपै है गड़ुवै कि धार ए।
वो तो कंपै है कूशैकि डालि ए।
हिय झन कंप बबज्यू मन झन कंप वो तो कंपै है गड़ुवैकि धार ए।  

एक ओर विवाह के लिए तत्परता है, दूसरी ओर वर द्वारा अंगूठा पकड़ने पर उसे परदेशी ठहराते हुए वह उससे अंगूठा छोड़ने को कहती है-

छोड़ो छोड़ो दूलह हमरि अंगुठिया तुम परदेशन लोक ए।

लेकिन दूल्हे को कोई दुविधा नहीं है क्योंकि लड़की के पिता, चाचा, ताऊ, मामा, मौसा सबने उसको दान दे दिया है-

अब कैसे छोड़ूं तुमरि अंगुठिया तुमरे बाबुल को बोल ए।

जन्मदाता पिता को ही नहीं, सभी सम्बन्धियों को उसको दान करने का अधिकार प्राप्त है। दान ही नहीं, यह जुआ भी है, जिसमें पूरा कन्यापक्ष हार गया है और वर पक्ष जीत गया है –

को एउ जुहरा हारिये को एउ जुहरा जीतिये।
जनक जुहरा हारिये रामीवन्द्र जुहरा जीतिये।

इसलिए दूल्हे ने साधिकार उसका अंगूठा पकड़ा है। दान दी गई वस्तु का मालिकाना हस्तान्तरित हो गया है।
(Sanskriti)

पति के संग पराये देश को जाते हुए उसके मन में भय मिश्रित आशंका है कि वहां भोजन मिलेगा कि नहीं, उचित व्यवहार होगा कि नहीं, जरूरी सामान मिलेगा कि नहीं। वह साफ-साफ पिता से कह देती है कि मेरे साथ दासी भेज दो, वस्त्र-भोजन रख दो, पलंग-बिस्तर दे दो-

परदेसि परभूमि बबज्यू अति डर लागै, हमन सुं दासी मोलाइए।
परदेसि परभूमि बबज्यू अति भूक लागै, हमन सुं भोज मोलाइए।
परदेसि परभूमि बबज्यू अति नींन लागै, हमन सुं पलंग मोलाइए।

जो बात अपने मुख से नहीं कही जाती, उसे गीतों के माध्यम से कहा जा रहा है और जो बात गीतों के माध्यम से कही गई है, वही लोक व्यवहार की बात है।

पितृगृह से जाने पर यह भी मन में प्रतीति है कि मेरे जाने से घर में कुछ तो रिक्तता पैदा होगी, खालीपन उभरेगा। पिता से कहती है, जिस बगीचे में बैठकर मैं गुड़िया खिलाती थी, वहां कुसुम्भी बो देना। जिस झरोखे में बैठकर मैं अपने छोटे भाई को खिलाती थी, वहां बैठकर तुम अपने पोते को खिलाना-

जै बाड़ि मैं ले बबज्यू गुड़िया खेलैछी, वी बाड़ि कुसुम्भी बोइ देला।
जै छाजों मैं ले बबज्यू भद्या खेलाछी, तै छाजों नतिया खेलाला।

इन गीतों में से अधिकतर गीत पिता-पुत्री संवाद के रूप में हैं। पिता बेटी को संबोधित करता है और पुत्री भी सीधे पिता की ओर उन्मुख है। इसमें मां अनुपस्थित है। क्या पुत्री समझती है कि पिता ही कर्ता है, वही मालिक है। अपनी रजा आज उसी से कहनी होगी। मां से कहकर तो कुछ हासिल होगा नहीं। इसलिए जो कहना है आज, पिता को ही सुनाओ।

विदाई के समय जब मां, पिता तथा परिवार के अन्य जन बेटी को आलिंगन में भर लेते हैं, रोने लगते हैं, तब वह उन्हें समझाती है कि अन्तत: मुझे जाना है। मेरा हरियाला बन्ना दरवाजे पर खड़ा है, अब मुझे दान कर दिया गया है, अब मुझे जाने ही दिया जाय-

हरियालो खड़ो मेरे द्वार इजा मेरी पैलागी।

छोड़ो छोड़ो इजा मेरी आंचली छोड़ो छोड़ो काखी मेरी आंचली
मेरा बबज्यू ले दियो कन्यादान मेरा ककज्यू ले दियो सत्य बोल
इजा मेरी पैलागी।

यद्यपि पुराने समय से प्रचलित ये गीत अब पीछे छूटते जा रहे हैं और इस शोर-शराबे के जमाने में रस्म-अदायगी भर रह गये हैं, पर इस बात को बखूबी बताते हैं कि उन स्त्रियों ने स्वयं को किस रूप में देखा था और चाहा था।
(Sanskriti)
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