संस्कृति : बेटियों की कुशल जानने का बहाना : कण्डु

पुष्पा चौहान, रेखा चमोली

कलेऊ, कल्यो, कण्डा या कण्डु देना गढ़वाल के लगभग सभी क्षेत्रों में विवाहित बेटियों/बहनों को याद करने, उनकी कुशल क्षेम जानने का एक जरिया है, जो आज भी अपने विभिन्न स्वरूपों में बचा हुआ है। इसमें  माघ या चैत्र के महीने बहन/बेटी को मायके बुलाकर कुछ दिन मायके में रखकर उसकी खातिरदारी की जाती है और जाने के वक्त उसके लिये कल्यो/कण्डा तैयार किया जाता है, जिसमें मुख्य पकवान अरसे व रोटाना होते हैं। अरसे को बनाने के लिए भिगोये गये चावल को ओखली में बारीक कूटकर, बार-बार छानकर बारीक आटा तैयार करते हैं। फिर इस आटे को गुड़ के पके राब में मिलाकर मिश्रण तैयार किया जाता है। थोड़ा ठंडा हो जाने पर मिश्रण से छोटे-छोटे गोल या चपटे लड्डू बनाकर गर्म तेल में तले जाते हैं।

अरसे बनाने के बाद उसे जरूरत के अनुसार टिन के कनस्तर में पैक किया जाता है तथा बेटियों के घर पहुंचाया जाता है। इस कल्यो को बेटी द्वारा पूरे गाँव में बाँटा जाता है। बेटी/बहन की शादी के समय भी यह आवश्यक रूप से विदाई पर दिया जाता है।

इस प्रथा के पीछे  एक किंवदंती यह भी है कि जब हिमालय राज ने अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से किया था तो उन्हें विदाई के समय बर्फ का उपहार दिया था, जो माघ के महीने में गिरती है। अरसे हेतु कूटे जाने वाला चावल भी बर्फ की तरह साफ-सफेद दिखाई देता है।
(Sanskriti Kandu in Garhwal)

इस प्रथा के बारे में पूछने पर कुछ वृद्ध महिलाएँ बताती हैं कि शुरू में जब वे मायके से ससुराल आती थीं तो अपने साथ गुड़ की भेली लाती थीं, जिसे छोटे-छोटे टुकड़े करके गाँव में बाँटा जाता था। कुछ और सम्पन्नता और सुविधा आने पर गुड़ की भेली का स्थान आटे व बाद में सूजी के हलवे ने ले लिया। हलवे को रिंगाल से बनी कंडी में मालू या तिमलू के पत्तों पर रखकर और ढककर लाया जाता था। सम्भवत: कंडी में लाये जाने से इसका नाम कंडु पड़ा। सम्पन्न परिवार के लोग कंडु में हलवे के साथ पूरी भी देते थे। धीरे-धीरे अरसे व रोटाने प्रचलन में आये क्योंकि इनका स्वाद बेहतर था और ये कई दिनों तक खराब नहीं होते थे तथा इन्हें बाँटना भी आसान था।

कुछ समय पहले तक जब हमारा रहन-सहन इतना जटिल नहीं था, बहन/बेटियाँ एक-डेढ़ महीने तक अपने बाल-बच्चों सहित मायके में रहती थीं। इस दौरान उनका खाना गाँव के कई घरों में होता था। इसके पीछे यह भावना थी कि बेटी तो पूरे गाँव की होती है। जो परिवार बेटी को अपने घर भोजन के लिए बुलाता था, वह अपनी सामथ्र्य के अनुसार अच्छे से अच्छा भोजन बनाकर उसे खिलाता था, जिसमें घी-दूध से बनी चीजें प्रमुख होती थीं। इस तरह के व्यवहार के पीछे यह तर्क भी था कि ससुराल में बेटी को खूब काम करना पड़ता है। ठीक से खाना व आराम नहीं मिल पाता। कई घरों में उसके साथ अच्छा व्यवहार भी नहीं होता। तो बेटी व उसके बच्चे कुछ दिन मायके में रहकर आराम से खा लें, आराम करें, अपनी सहेलियों के साथ मिल-बैठकर अपनी अच्छा-बुरी बातें साझा करें। बच्चों के नाना-नानी, मामा-मामी-मौसी सब बच्चों का खूब ख्याल रखते थे। इन दिनों बच्चों की भी खूब मौज होती। पूरे गाँव के मेहमान जो ठहरे। ससुराल वापसी पर बेटी व बच्चों के लिए नये कपड़े-जूते व अन्य जरूरी सामान खरीदकर, कल्यो बनाकर उन्हें पिता, भाई या भतीजों द्वारा उनके घर पहुँचाया जाता।
(Sanskriti Kandu in Garhwal)

इन दिनों लगभग सभी बेटियाँ अपने मायके में होतीं। क्योंकि माघ के महीने में खेतों में कुछ खास काम नहीं होता है। पशुओं के लिए पहले ही चारा काटकर जमा कर दिया जाता है। यह महीना आराम करने व कहीं आने-जाने के लिए उपयुक्त माना जाता था। ससुराल को दिये जाने वाले कल्यो के अलावा बेटी को अलग से कुछ कल्यो दिया जाता, जिसे वह स्वयं खाती और अपनी सास से छुपाकर अपनी सहेलियों के लिए ले जाती। जंगल जाते समय रास्ते में प्यूण्या (औजार को धार लगाने वाला पत्थर) पर अपनी-अपनी दरांती की धार तेज करते समय या जंगल पहुँचकर थोड़ा आराम करते समय सहेलियाँ अपना कलेऊ आपस में बाँटती और इसकी मिठास से अपने मायके की याद साझा करतीं। एक-दूसरे के सुख-दुख सुनती। एक का सुख-दुख सभी का साझा सुख-दुख बन जाता। इस दौरान किसका कलेऊ कैसा बना है, कितने पाथे चावल का बनाया, किसने पहुँचाया आदि बातचीत भी होती। इस कलेऊ को अपने ससुराल की सहेलियों के लिए पुंगाया (बचाकर रखना) जाता। ताकि कोई नाराज न हो। कलेऊ देने के पीछे एक तर्क यह भी था कि तुम्हारे बाप-भाई सही सलामत व स्वस्थ हैं और तुम्हें याद करते हैं।

समय बीतने के साथ परिवार के ढाँचों में परिवर्तन हुआ। संयुक्त व बड़े परिवारों की जगह एकल व छोटे परिवारों ने ले ली। ससुराल में बेटियों  की स्थिति में भी सुधार हुआ। बच्चों के नियमित स्कूल जाने की परम्परा बनीं। धीरे-धीरे बेटियों का मायके में रहना कम से कम दिन होने लगा। गाँव में परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरने से बेटियों का ससुराल में रहना सुविधाजनक होता गया। बाजार ने भी गाँव तक पहुँच बनायी और कई तरह की मिठाइयाँ घरों तक पहुँचने लगीं। अरसे व रोटाने बनाने का काम कौशल की माँग करता है। हर कोई इसको बनाने में कुशल नहीं होता। साथ ही यह ज्यादा मानवीय श्रम चाहता है। अरसे का पीठा कूटना व मिश्रण तैयार करना एक श्रमसाध्य व होशियारी का काम है। इसमें पीठे व गुड़ के राब का अनुपात, चूल्हे की आँच, बर्तन में रखने का ढंग सही न हो तो सारी मेहनत बेकार हो जाती है। अरसे अच्छे नहीं बनते। धीरे-धीरे गाँव में इसकी जानकार महिलाएँ कम हो रही हैं। पीठा कूटने से बचने के लिए कुछ लोगों ने चावल का आटा चक्की में भी पिसवाया, गुड़ की जगह चीनी का प्रयोग किया। पर इससे वह स्वाद नहीं आ पाता जो पारम्परिक तरीके से बनाने में आता है। संयुक्त परिवारों के न रहने से आपस में मिल-जुलकर काम करने में भी बाधा आई है। इसके अलावा परिवार में लोगों के सोच में बदलाव आया है। आज कोई भी शारिरिक श्रम नहीं करना चाहता।
(Sanskriti Kandu in Garhwal)

उपरोक्त कारणों से धीरे-धीरे अरसे का बनना व कलेऊ का बँटना बहुत कम हो गया है। इसकी एक बड़ी वजह लोगों का गाँव छोड़कर छोटे-छोटे कस्बों व शहरों में आकर रहना भी है। इन कस्बों या शहरों में सीमित जान-पहचान होती है। लोग आपस में ज्यादा मेल-मिलाप नहीं रखते। बाजार में बनी-बनायी मिठाई लड्डू, मठरी मिलती है। इस तरह अरसे की जगह अब लड्डू-मठरी ने ले ली है। पहले जब खाने के लिए कम चीजें थीं, तब कलेऊ का स्वाद अच्छा लगता था। आज खाने के लिए बहुत सारी चीजों से बाजार भरा पड़ा है। अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार लोग खरीदकर खा रहे हैं। कलेऊ आने पर उसे बाँटने के लिए भी कोई तैयार नहीं होता। बच्चे तो शहर में अपने रिश्तेदारों के घर पहचानते ही नहीं हैं, न ही कलेऊ लेकर वहाँ जाना पसंद करते हैं।

दूसरी ओर इसका आर्थिक पक्ष भी है। गढ़वाल के कई इलाकों में कुछ समय पहले तक बेटी की मृत्यु होने के बाद भी ससुराल में कलेऊ पहुँचाया जाता था। यदि घर में पिता या भाई की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और बुआ-बहनों-बेटियों की संख्या ज्यादा है तो कलेऊ पहुँचाना आर्थिक परेशानी का कारण हो जाता है। एक कलेऊ तैयार करने में आज 1500-2000 रुपये न्यूनतम खर्च होते हैं। वहीं दूसरी तरफ बेटियाँ भी यह चाहने लगी हैं कि कलेऊ देने की बजाय उन्हें नकद रुपये दिए जांय जिससे वे सुविधानुसार लड्डू-मठरी खरीदकर बाँट दें या नहीं बाँटने की स्थिति में अपनी आवश्यकतानुसार पैसा खर्च कर लें। आज के बदलते परिवेश में यह बदलाव भी आया है कि दूर नौकरी करने वाले पिता या भाई कलेऊ देने-भिजवाने की जगह बेटियों के खाते में कुछ रुपये जमा करने लगे हैं।
(Sanskriti Kandu in Garhwal)

इस तरह धीरे-धीरे कलेऊ या कण्डु का चलन कम हुआ है और इसी बहाने बेटी-बहन की कुशल क्षेम जानने का क्रम भी कम हुआ है। फिर भी गाँवों में यह प्रथा आज भी बची हुई है। आज भी गाँवों में माघ के महीने कलेऊ बाँटा जाता है, जिसमें अरसे कम व लड्डू ज्यादा होते हैं। बाकी कुशल तो मोबाइल से भी मिल जाती है। कलेऊ देने की प्रथा में ऐसा नहीं है कि सब कुछ सुखद है। इसकी शुरूआत को देखें तो यह बेटी की कुशल जानने, उन्हें यह भरोसा दिलाने के पक्ष में दिखता है कि तुम्हारे पिता व भाई-भतीजों को तुम्हारी फिक्र है, वे तुम्हारे सुख-दुख में तुम्हारे साथ हैं। पर इसका एक दूसरा पक्ष भी है। पिता की सम्पत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है और बेटी के हिस्से सालभर में एक बार थोड़ा सा कलेऊ या उपहार आता है। ससुराल पक्ष द्वारा यदा-कदा बहुओं के कल्यो की मात्रा व सामग्री को लेकर असंतोष व तुलना देखी जाती है। क्या दिया तुम्हारे पिता ने? ताने या मीन-मेख निकालते लोग भी देखे गये हैं। बेटी भी चाहती है कि मायके वाले उसे खूब चीजें दें, जिसे ससुराल में दिखाकर वह अपना रौब जमा सके। दूसरी तरफ मायके वालों के ऊपर भी हर साल कुछ न कुछ देने का दबाव बना रहता है। यदि मायका आर्थिक रूप से कमजोर हुआ तो उनके लिए मुश्किलें होती हैं। पितृसत्तात्मक समाज में रीति-रिवाजों को बनाना व चलाना पुरुषों के हाथ में होता है पर कई बार ये रीति रिवाज पितृसत्ता की एजेंट महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए मुश्किलें भी खड़ी करते हैं। कई घरों में इन बातों पर सास-बहुओं के बीच झगड़े होते भी देखे-सुने गये हैं। कई जगहों पर पढ़ी-लिखी महिलाएँ बाजार में रहने के कारण व आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण कल्यो लेने या रुपये लेने से मना भी कर रही हैं तो कई लड़कियाँ अपने ही रुपयों से लड्डू-मठरी खरीदकर बाँटती भी दिखती हैं। लेन-देन का यह रिवाज खुशी बाँटने व परस्पर कुशलता जानने का एक तरीका है तो इसमें लेन-देन में होने वाले तमाम झोल भी शामिल हैं।
(Sanskriti Kandu in Garhwal)
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