संस्कृति: सब कुछ!
सरोजिनी नौटियाल
दामिनी!
तुम चली गई, पर,
महसूस होती हो
भोर की सुगंध में
सूरज की किरन में
जल की तरंग में
सुमन के मकरंद में
और, पवन की सरगम में
आत्मसाक्षात्कार में भी
तुम दिखाई देती हो
फिर, बस इक चुभन
और, कह जाती हो तुम
सब कुछ-
मेरे भी सपने थे
मेरे भी अपने थे
ऊबड़-खाबड़ कई राहों से
गुजर चुकी थी मैं
बड़ी मशक्कत से
कुछ सीढ़ियाँ मैंने भी
तय कर ली थीं
मान लिया था मैंने
खुद को कप्तान
उस जहाज का
जिसके मुसाफिर तकते थे मुझे
हर भँवर के आने पर
और जिसका स्वामी
सौंप चुका था मुझे
अपना सब कुछ!
मैं जीना चाहती थी
अपने लिए, उनके लिए
जो थे मेरे बहुत अपने
सपनों पर तो पाबंदी नहीं है न!
यही तो वह जगह है
जहाँ आजाद है मन-पंछी
खुला पूरा आकाश विचरने को
और जीने को था सब कुछ!
अपहरण, बलात्, हत्या
शब्दों की अपनी हदें हैं
दरअसल वो शब्द अभी गढ़ा नहीं
बना नहीं, जो मुखर कर दे
उस मौन को……
दृश्य जिससे, राज की कालिमा
भी थर्रा गई- को हू-ब-हू
बयाँ कर दे
इसलिए, एक अव्यक्त संवाद में
गुम हो जाता है-
सब कुछ!
बालिग……नाबालिग….. हूँ ऽ ऽ
एक विद्रूप सन्नाटा
पसर जाए जड़-चेतन में
झकझोर दे समाज के बोध को
इंसानियत के चिंतन को
क्या-क्या कहूँ…..
नहीं डिगने दिया था मैंने
अपना आत्मबल
मैं नहीं तोड़ना चाहती थी
अपनों का भरोसा
कि हर खौफ, हर घटना से
बड़ा होता है जीवन
मैंने अपने हर उपक्रम में
भरी थी यह कोशिश-
मेरे अपने न छूटें
मेरे बंधन न टूटें
मेरा हौसला….. मेरा जज्बा
पर नहीं बचा कुछ
छूट गया सब कुछ
समय कहीं ठहरता नहीं
पर यह है जरूर
कि विकल कुछ पल
थम जाते हैं
समय खिसकता है
पर वे वहीं रुक से जाते हैं
देखे तुमने कुल तेईस बसन्त
नव कोंपल सा कोमल तन-मन
नई सोच, नया ही चिन्तन
नहीं….. न मैं कोई तारा नभ में
न धरती पर फूल नया
न किसी पत्र पर अटकी
टपकी हुई इक बूँद
न कोई राग मधुर
न स्फुरित रागिनी
बस, भीषण गर्जन, रोर प्रचण्ड
व्याकुल अन्तस भार लिए
नभ गाए जब बादल राग
खड्ग धरे तब हाथ में
अब वहीं दिखेगी दामिनी!
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