बदलाव और उम्मीद की फिल्म : द सॉल्ट ऑफ द अर्थ

प्रदीप पाण्डे

नोट बंदी ने  हमारी जिन्दगी में  कुछ समय के लिए ही सही, व्यापक बदलाव ला दिया। कई ऐसे अनुभव हुए जो अभूतपूर्व थे …. खैर यह लेख नोट बंदी पर नहीं, इसलिए इस पर ज्यादा बात नहीं। बात यह है कि परिस्थितियाँ बदलें तो हमारा व्यवहार बदलता है, सोच बदलती है। क्या एक फैक्ट्री में हुई हड़ताल भी उसके मजदूरों के परिवारों में स्त्री-पुरुष के संबंधों, पुरुषों और महिलाओं  दोनों की सोच को क्रांतिकारी ढंग से बदल सकती है? जी हाँ ऐसा हो सकता है, ऐसा हमें एक फिल्म बताती है जो एक सच्ची घटना पर बनी फिल्म है। फिल्म का नाम है साल्ट आफ द अर्थ इसके निर्देशक थे हर्बर्ट जे बाइबरमैन।

फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट युग की है जो 1954 में बनी। अमेरिका के न्यू मेक्सिको प्रान्त में  डेलावेयर  जिंक फैक्ट्री में हड़ताल हुई थी, उसी पर आधारित यह फिल्म है। इस फैक्ट्री में सुरक्षा के पुख्ता इंतजामात नहीं थे,आये दिन दुर्घटनाएँ होती रहती थीं। यहाँ मेक्सिकन मूल के मजदूरों और गोरे अमेरिकी मजदूरों के बीच काफी भेदभाव भी होता था। मेक्सिकन मजदूरों को गोरों से  कम वेतन मिलता, उनके क्वार्टरों में साफ सफाई पेयजल की सुविधा भी नहीं थी। … इन्हीं क्वार्टरों में मेक्सिकन मूल के एक मजदूर रेमोन का परिवार भी रहता है जिसमें उसकी पत्नी एस्पेरान्जा और दो बच्चे हैं। मजदूर खराब परिस्थितियों में काम करते हैं और उनकी पत्नियां घरेलू काम में खटती हैं। फैक्ट्री में एक  दुर्घटना होती है जिसमें एक मजदूर घायल हो जाता है और मजदूर हड़ताल पर जाने का मन बनाते हैं। रेमोन की पत्नी उस से कहती है इस हड़ताल से होना क्या है? हमारी मुसीबत ही बढेगी इसमें  हमारी तो कोई मांग रखी नहीं जाती। मसलन साफ सफाई और हमारे घरों में पानी की व्यवस्था आदि, रेमोन कहता है ये मुद्दे मजदूर यूनियन नहीं उठा सकती। ये अलग तरह के मुद्दे हैं। हड़ताल के निर्णय के लिए जब मीटिंग बुलाई जाती है तो उसमें चंद अन्य महिलाओं के साथ एस्पेरान्जा भी जाती है। जब ये महिलाएं मीटिंग में पहुँचती हैं, मीटिंग लगभग समाप्ति की ओर होती है तब एक महिला अपनी बात रखने की इजाजत मांगती है और कहती है कि हड़ताल में ये मांग भी रखी जाए कि मजदूरों के आवासों में पानी की व्यवस्था हो, साफ-सफाई के इंतजामात किये जायें। एस्पेरान्जा भी यही बात सामने रखती है। उसका पति रेमोन उसे नाराज निगाहों से देखता है। खैर मजदूरों को लगता है कि यूनियन का काम वेतन-भत्ते सुरक्षा वगैरह के मुद्दे उठाना है। पानी सफाई ये मुद्दे यूनियन के लिए मुनासिब नहीं होंगे। हड़ताल शुरू हो जाती है। मजदूर फैक्ट्री के रास्ते में धरना देने लगते हैं। उनकी पत्नियां उनके लिए चाय पानी  खाना लाने का काम करती हैं। हड़ताल खिंचने लगती है। मालिक लोग उनकी मांगों को नही मानते। मजदूरों की माली हालत बिगड़ने लगती है। रेमोन ने एक रेडियो किस्तों में लिया था। किस्त ना चुकने के कारण उसके घर से वह भी उठा लिया जाता है। मालिक लोग गुंडे और दलाल भेज कर हड़ताल तुडवाने की भी नाकाम कोशिश करते हैं। आर्थिक स्थिति बिगड़ने से कई मजदूर परिवार अन्यत्र चले जाते हैं। कुछ मजदूर दूसरी फैक्ट्रियों में काम करने लगते हैं और अपने वेतन से एक हिस्सा हड़ताल के समर्थन में देते हैं।

एक दिन मजदूरों को पता चलता है कि फैक्ट्री मालिक अदालत से आदेश ले आये हैं कि फैक्ट्री के आगे मजदूरों का धरना गैरकानूनी है। मजदूर संघ आगे की रणनीति के लिए मीटिंग बुलाते हैं। मामला बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए बहुत सी महिलाएं भी इन बैठकों में शिरकत करने जाती हैं। मीटिंग में संचालक कहता है- अगर हम अदालत का आदेश मानते हैं तो हड़ताल खत्म हो जायेगी और अगर आदेश नहीं मानते तो हडताली मजदूर गिरफ्तार कर लिए जायेंगे और हड़ताल छूट जायेगी। वाद-विवाद होता है। तभी एक महिला खड़ी हो कर कहती है, आप अदालत के आदेश को ठीक से पढ़िए, ये सिर्फ मजदूरों को धरना देने से रोकता है हम औरतें मजदूर नहीं हैं हम हड़ताल जारी रखेंगी। काफी चर्चा व वाद-विवाद के बाद आखिरकार प्रस्ताव पास हो जाता है और मजदूर धरने से हट जाते हैं और महिलाएं मोर्चा संभालती हैं।

महिलाएं धरने पर जाती हैं तो पुरुषों पर घरेलू कामकाज की जिम्मेदारी आ जाती है। कपडे धोना, बर्तन मलना, लकड़ी काटकर लाना बच्चों की देखभाल आदि आदि। एस्पेरान्जा भी धरने पर जाती है। दूसरे दिन उसे वापस होने में थोड़ी देर हो जाती है, रेमोन घरेलू काम काज से उकता चुका है और वह एस्पेरान्जा से कहता है, देखो, ये अब और नहीं चलेगा आज दिन भर बच्चों को संभाला। एस्पेरान्जा धीरे मगर प्रभावशाली ढंग से कहती है, जब से पैदा हुए हैं तब से संभाल रही हूँ।
(salt of the earth)

 घरों का काम सँभालते हुए पुरुषों को धीरे-धीरे ये महसूस होता है कि महिलाओं की ये मांग कि मजदूरों के क्वार्टर्स में पानी और सफाई की व्यवस्था हो, कितनी जायज है क्योंकि घर की जरूरतों के लिए पानी उन्हें दूर से लाना पड़ता है मगर अब भी एस्पेरान्जा का पति उसके धरना देने से नाराज ही रहता है वह बच्चे को गोद में लेकर धरना देती है मगर वह दूर खडा देखता रहता है

फैक्ट्री स्वामी महिलाओं को डराने के लिए गुंडे भेजते हैं जो उनपर गंदी गंदी टिप्पणियां करते हैं। एक दिन वे महिलाओं को धकेलते हुए फैक्ट्री तक जाने की कोशिश करते हैं, आंसू गैस छोड़ कर उन्हें हटाने की कोशिश करते हैं मगर हर कोशिश में नाकाम रहते हैं। हार कर वे प्रमुख महिला आन्दोलनकारियों को चुन चुन कर गिरफ्तार करवा देते हैं। इन पंद्रह बीस महिलाओं में एस्पेरान्जा भी होती है जिसकी गोद में उसका एक शिशु होता है। इन महिलाओं को थाने में एक कोठरी में रखा जाता है। उनके लिए खाने पानी और बिस्तर तक की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। ये खाना, पानी और कम्बल की मांग करते हुए पूरा थाना गुंजा देती हैं, इस बीच एस्पेरान्जा का शिशु रोने लगता है और महिलाएं बच्चों के लिए दूध की भी मांग कर नारे लगा-लगा कर पुलिस को इतना परेशान कर देती हैं कि मजबूरी में जल्द ही  इन महिलाओं को छोड़ दिया जाता है।

रेमोन हड़ताल के कारण बदल रहे  महिला पुरुष समीकरणों को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। वह एस्पेरान्जा की बढ़ती सक्रियता से कतई खुश नहीं। इस बीच जब उसे  घरेलू काम की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, वह अपने मित्रों के साथ शिकार पर जाने का प्रोग्राम बना लेता है। एस्पेरान्जा कहती है, इस तरह इस वक्त जाना गलत है पर वह नहीं मानता क्योंकि उसका पुरुषवादी अहं उफान पर है  तब ये संवाद होता है

एस्पेरान्जा- क्या मुश्किल है कि मैं तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिला कर चलूँ। मेरी इज्जत कम होने से ही तुम्हारी इज्जत बढ़ेगी, क्या यही है तुम्हारी ‘सम्मान’ की परिभाषा?

रेमोन- सम्मान की बात करती हो, जो कुछ हुआ उसके बाद भी।

एस्पेरान्जा- हाँ, में सम्मान की बात करती हूँ। जब तुमसे एंग्लो मालिक लोग कहते हैं तुम अपनी औकात में रहो गंदे मेक्सिकी, तब तुम्हें अच्छा लगता है ?क्या उन्ही की तरह किसी को नीचा दिखाना  वाजिब है।

रेमोन- चुप रहो।

एस्पेरान्जा- मुझे अपने से नीचा कुछ भी नहीं चाहिए, मैं किसी के कन्धों पर पैर रख कर आगे बढूँ, मुझे इससे क्या मिलेगा …. .मुझे बराबरी चाहिए बराबरी। और तुम ये बात नहीं समझ सकते तो तुम बेवकूफ हो।

रेमोन- चुप रहो ….बहुत हो चुका।

एस्पेरान्जा- क्या तुमने हड़ताल से कुछ नहीं सीखा? ये हड़ताल तुम हमारे बिना नहीं जीत सकते। हमारे बिना तुम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।

रेमोन क्रोधित होकर एस्पेरान्जा को मारने के लिए हाथ उठाता है पर एस्पेरान्जा उसको घूर कर कहती है, अब ये नहीं चलेगा, दुबारा ऐसी कोशिश भी मत करना ….
(salt of the earth)

फैक्ट्री मालिक अब एक नयी तरकीब चलते हैं। एक दिन जब कुछ मजदूर शिकार के लिए जंगल गए होते हैं जिनमें रेमोन भी होता है, तभी पुलिस आकर उसके घर का सामान बाहर कर उसे बेदखल करना चाहती है। घर में चूँकि एस्पेरान्जा और बच्चे ही हैं, इसलिए वे किनारे खड़े होकर चुप चाप देखते रहते हैं। धीरे-धीरे अन्य महिलाएँ आने लगती हैं और सब मिल कर इसका विरोध करती हैं पर पुलिस नहीं मानती। महिलाएं एक कारगर तरीका अपनाती हैं। पुलिस घर के मुख्य द्वार से सामान बाहर निकालती है और ये महिलाएं उसे उठा कर पिछले दरवाजे से अन्दर करने लगती हैं। ऐसा वे धैर्यपूर्ण ढंग से और निडर होकर करती हैं। धीरे-धीरे पुलिस को लगता है कि स्थिति उनके हाथ से बाहर निकल गयी है और वे लौट जाते हैं। इस पूरी घटना को फैक्ट्री मालिक देख रहे होते हैं वे आपस में बात करते हैं अब तो मजदूरों से समझौता करना ही पड़ेगा।

रेमोन जब शिकार छोड़ कर घर पहुंचता है तो पूरा दृश्य देख हैरान हो जाता है। उसके हावभाव बताते हैं कि वह अपनी पत्नी के संघर्ष का महत्व समझ चुका है। पृष्ठभूमि से हमें एस्पेरान्जा का स्वर सुनाई देता है। हमने एक ऐसी जीत हासिल की है जो हम कभी नहीं खोएंगे। जाहिर है, उसका मतलब सिर्फ फैक्ट्री मजदूरों की सुरक्षा सम्बन्धी मांगों को माने जाने से नहीं होता है। यहीं पर फिल्म समाप्त होती है। फिल्म इस तथ्य को भी उभारती है कि जब परिस्थितियाँ बदल रही होती हैं और हम पुरानी मान्यताओं और तौर-तरीकों को ही श्रेष्ठ मानकर छोड़ने को तैयार नहीं होते तो नतीजा टकराव होता है। उदाहरण के लिए महिलाओं को घर तक सीमित रहना चाहिए, परंपरागत वस्त्र पहनने चाहिए, पत्नी को घर का सारा काम करना चाहिए। यह भी मान लिया जाता है कि महिलाओं की सोच वहीं तक सीमित होती है। लेकिन यह फिल्म महिलाओं की सोच और तौर-तरीकों को बड़े बदलाव से जोड़कर महिलावादी सोच को पोषित करती है।

यह फिल्म कुछ महत्वपूर्ण बातों के लिए भी याद की जाती है जैसा कि पहले जिक्र किया गया कि यह फिल्म मजदूरों की  जिस हड़ताल के चारों तरफ बुनी गयी है, वह एक सच्ची घटना थी और विशेष रूप से उल्लेखनीय बात ये है कि इस फिल्म में जिन-जिन व्यक्तियों ने एक्टिंग की, उनमें से दो चार ही ऐसे थे, जो पेशेवर एक्टर थे बाकी वे मजदूर थे जो  वास्तव में इस हड़ताल के भागीदार थे जिन्होंने वास्तव में संघर्ष किया था।

यह फिल्म अमेरिका में उस दौर में बनायी गयी जब वहाँ कम्युनिस्ट होना व्यवस्था के लिए कतई स्वीकार्य नहीं था, साम्यवाद से सहानुभूति रखने वालों का जीवन आसान नहीं था। पूरी व्यववस्था उनके खिलाफ थी। इस फिल्म को एक कम्युनिस्ट फिल्म माना गया अत: इस फिल्म को बनने से ही रोकने की कोशिश की गयी जहां इसकी शूटिंग होती, वहाँ हवाई जहाज नीची उड़ान भरते ताकि उनके शोर से काम करना मुश्किल हो जाए। जैसे-तैसे शूटिंग पूरी हुई तो इस फिल्म को प्रोसेस किये जाने, डबिंग किये जाने से रोकने की कोशिशें हुई, इन दिक्कतों से जूझते हुए फिल्म जब आगे बढ़ी और बनकर तैयार हो गई तो अमेरिका के सारे थियेटरों को आदेश दिया गया कि इस फिल्म को कोई थियेटर प्रदर्शित न करे़….. और यह फिल्म कभी रिलीज ही नहीं हो पायी मगर अनौपचारिक तौर से दुनिया भर के मजदूर संगठनों, प्रगतिशील व्यक्तियों द्वारा देखी गयी। कई भाषाओं में इसकी डबिंग की गयी, इसे इन्टरनेट से  डाउनलोड कर  प्राप्त किया जा सकता है …

बदलाव और बेहतर भविष्य में उम्मीद करने वालों द्वारा  जरूर  देखी जानी चाहिए यह फिल्म।
(salt of the earth)

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