सेल्सगर्ल

Sales Girl Story by Gajendra Rawat
-गजेन्द्र रावत

वे दरवाजे पर हुई खट-खट की दस्तक सुन बड़बड़ाए- ‘आता हूँ भई!’ और कमर के पीछे एक हाथ रखते हुए सीधे खड़े हो गए। फिर छोटे-छोटे कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए फुसफुसाए-‘कौन होगा?’ देहली पर आकर उन्होंने जाली के दरवाजे को हाथ बढ़ाकर पूरा खोल दिया। थोड़ी देर तक सामने खड़ी लड़की के चेहरे पर टकटकी लगाए देखते रहे, फिर भीतर की ओर मुड़ते हुए बहुत ही धीमे से बोले- ‘रूपाली!’ स्वर इतना धीमा था कि ऐसा लगा मानो मुंह से हवा भर निकली हो, वे भीतर की तरफ छोटे-छोटे दो-तीन कदम बढ़ाकर गले को साफ करते हुए बोले-‘आओ आओ…. भीतर आओ।’ उन्होंने पहले की तरह एक हाथ कमर पर रख लिया जैसे सहारा दे रहे हों और उसी तरह धीरे-धीरे रसोईघर में आ गए। (Sales Girl Story by Gajendra Rawat)

उसने सहमकर भीतर तक कदम रखा और दुपट्टे के एक छोर से चेहरे पर छलक रही पसीने की बूंदों को पोंछा। उसका चेहरा सुर्ख गुलाबी और तपा हुआ था। उसने जल्दी-जल्दी दो-तीन लंबी सांसें खींची और कमर के पीछे लटके बैग को दीवार से सटाकर रख दिया। हाथ वाला पर्स अब उसके हाथों में था। ‘चाय तो पिएगी न?… इसी टेबिल पर बैठ जा।’

वह थोड़ा हिचकी फिर कुर्सी खींचकर बैठ गई। बिना कुछ कहे मगर हैरतअंगेज आँखों से बूढ़े को देखती रही। वे पीठ किए गैस के चूल्हे पर झुके हुए थे।

सामान वाला बैग जो दीवार से सटा हुआ था, कुर्सी के पीछे लगभग छिप-सा गया था। साथ के छोटे-से लेडीज रुमाल से उसने फिर माथे का पसीना पोंछा और सकुचाते हुए कहा-‘ एक गिलास पानी़…। ’

‘हाँ, क्या हो गया है मुझे! साधारण शिष्टाचार भी भूलने लगा हूँ… शायद बुढ़ापे की़..’ वे रसोई से पलटकर ठंडे पानी का गिलास उसके सामने रखकर चले गए।

डायनिंग टेबिल की आधी से ज्यादा जगह नमकीन के जारों, सौस की बोतलों, स्पून स्टैंड और छोटी-सी फलों की टोकरी से घिरी हुई थी। वह डायनिंग टेबिल के खाली हिस्से के साथ लगी कुर्सी पर बैठी थी और एकदम शांत होकर सामने खुली रसोई में चूल्हे पर काम करते बूढ़े को देख रही थी- ‘ऐसे तो कोई नहीं बिठाता-चाय भी पूछ रहे हैं। कोई गलतफहमी हुई होगी?

हो सकता है, घर-परिवार की किसी लड़की से शक्ल मेल खा रही हो?’ वह बूढ़े के चलते हाथों को देखते हुए सोच रही थी। ….चलो, बाहर की गर्मी, लू से तो बेहतर है-सिर पर पंखा है, ठंडा पानी है। उसने लंबी सांस छोड़ी और फिर सुकून से आंखे मूँद ली।

‘चाय की तलब हुई तो अखबार पढ़ते-पढ़ते बीच में ही उठ गया।’ वहीं रसोई में वे चाय छानते हुए बोल रहे थे, ‘मैं तो हमेशा ही काली चाय पीता हूँ। आज तुम भी पीकर देखो। दूध की चाय में पत्ती का स्वाद नहीं रहता।’

थोड़ी देर में वे मुड़े और टेबिल के नजदीक आकर एक काली चाय भरा गिलास उसके सामने रख दिया और दूसरा स्वयं लेकर सामने की कुर्सी पर बैठ गए।
(Sales Girl Story by Gajendra Rawat)

‘चुनाव आ गए हैं, तुम क्या सोचती हो, बदलेगी दशा?’ वे चम्मच गिलास में घुमाते हुए बोले।

वह आश्चर्य से उनके चेहरे पर देखने लगी। कैसा सवाल है? उसने मन ही मन सोचा।

वे अभी भी चम्मच को गिलास में हिला रहे थे। बार-बार चम्मच के गिलास से टकराने की आवाज और सवाल की अप्रासंगिकता का अदभुत मिश्रण दोनों के बीच की हवा में ठहर गया।

उनकी पलकें जल्दी-जल्दी झपक रही थीं। वे छोटी-छोटी आँखों को बस पतली फाँक-भर खोलते। उनके चेहरे पर, नाक के फैले हिस्से से नीचे ठोड़ी तक उतरती दो मोटी रेखाएँ ढेरों बारीक रेखाओं के जाल के बीच अलग ही चमक रही थीं।

‘चम्मच ले लो तुम भी! ’ उन्होंने स्टैंड की ओर इशारा करते हुए कहा। वह भी चम्मच से चीनी घोलने लगी। बीच-बीच में कनखियों से उन्हें देख लेती। थोड़ी ही देर में वह असहज हो गई, बेचैनी उसे सिर से कुरेदने लगी। नतीजतन उसके मुंह से एक शब्द फूट पड़ा- ‘चुनाव? ’

‘हाँ, हाँ चुनाव! क्या इस विषय पर बात नहीं की जा सकती?’ उन्होंने चम्मच नीचे रख दिया और गरदन उठाकर उसकी धुंधली-सी छाया में मानवाकृति-सी गढ़ने लगे।

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है, मेरा मतलब… ।’

‘मतलब क्या? फिर कौन करेगा इन बातों को? ’ वे जोर से बोल बैठे। फिर सँभल गए और स्वयं को नियंत्रित कर धीमे से बोले- ‘अगर तुम जैसे पढे-लिखे जवान लोग नहीं बोलेंगे इन विषयों पर तो कौऩ…।’

‘जिन हालात में हम यहाँ बैठे हैं, क्या ये बहस यहाँ ठीक रहेगी? ये तो सभा-सम्मेलनों के सवाल हैं। ’

‘क्यों क्या हो गया हमारे हालात को?’ वे बड़े आश्चर्य से बोले।

‘फिर दिलचस्पी भी़…। ’

‘क्या? दिलचस्पी नहीं है? तुम तो एम. ए. हो राजनीति शास्त्र में। और पिछली दफा जब तुम आई थी तो़… कितनी बहस की थी तुमने, शायद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर।’

‘ यही तो मैं कहना चाह रही हूँ, मैं वह नहीं हूँ। ’

‘आहाँ!’ उनका मुंह अचम्भे से खुला रह गया। ‘मैं तो सेल्स गर्ल हूँ।’ 

‘तुम रूपाली नहीं हो?’ यह कहते हुए वे भीतर चले गए और मोटे शीशे का चश्मा नाक पर रखे हुए लौटे। कुर्सी पर बैठकर गौर से उसके चेहरे को देखते हुए बोले- ‘अरे हाँ… डॉक्टर ठीक ही कहता है़… आँखें बनवा लो़….अब तो बनवानी ही पड़ेंगी।’ वे फिर स्वयं पर ही धीमे से मुस्कुराए और बोले- ‘खैर ! क्या बेच रही हो तुम?’

‘डिटर्जेंट पाउडर।’ वह बड़े बैग को खिसकाकर अपने उल्टे हाथ के नीचे तक ले आई और इस बोध से उठ खड़ी हुई कि यहाँ बैठना उसका अधिकार नहीं है। तार-तार हुई गलतफहमी उसे झूठा, धोखेबाज और गुनहगार साबित कर रही थी। ग्लानि के दबाव से उसके चेहरे का रंग फक्क पड़ गया था। लेकिन इस अटपटी परिस्थिति से थोड़ा-सा उबरते ही शिथिल पड़ा उसके भीतर का पेशेवर दोबारा से मुस्तैद हो गया। उसने बड़ा बैग नीचे से उठाकर डायनिंग टेबिल पर रख दिया और एक पैकिट निकालकर बोली- ‘एक किलो का पैकिट अस्सी रुपये का और एक साथ में फ्री!’
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उन्होंने पैकिट हाथ में लिया और उलटते-पलटते हुए बोले- ‘लग तो ठीक ही रहा है।’

‘कंपनी अपने प्रचार के लिए फ्री की स्कीम…’ वह उनकी तरफ देखते हुए बोली।

‘चलो दे दो। कंपनी के लिए नहीं, बल्कि मैं तो तुम्हें देखकर ले रहा हूँ। कितनी मेहनत कर रही हो तुम।’ ये कहते-कहते वे उठकर भीतर चले गए। बाहर आकर मुट्ठी में बंद अस्सी रुपये उसे थमा दिये। ‘अरे, तुम खड़ी क्यों हो गई, बैठो !’ बाहर आग बरस रही है। अरे चाय तो पियो।’

वे दोनों चाय पीने लगे।

खामोशी पंखे की गर्म हवा में तैरने लगी। वह उनके गले में उतरती चाय का घूंट देख रही थी। अचानक उसकी आँखें आश्चर्य से उनके कान के नीचे स्थित तीन तिलों पर अटक गई। ‘तीन-तिल।’ छूटे हुए अक्षर उसके होठों पर ठहर गए। थोड़ी ही देर में….़ । उसकी आँखें विस्मय से फैल गई। वह कुर्सी से खड़े होकर उत्तेजित होकर बोली- ‘आप शर्मा सर हैं? श्री अनिरुद्घ शर्मा।’

‘ तुम कौन हो?’ अचम्भे से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। ‘मुझे कैसे जानती हो?’

‘मैं सारंगा हूँ सर आपकी स्टूडेंट! आपने पहचाना नहीं? ’ वह अभी भी खड़ी थी उत्साह और हैरानी उसके चेहरे पर जमी हुई थी। ‘तुमने मुझे कैसे पहचाना? ’ वे उसके चेहरे को देखते जा रहे थे।

‘सर, मैंने जब आपको पहली नजर देखा तो बहुत ही जाना-पहचाना चेहरा लगा। लेकिन मैंने सोचा कि इतने लोगों से मिलना-जुलना होता है, किसी से मिलती-जुलती सूरत हो सकती है। आप शायद थोड़े-से  मोटे हो गए हैं। हाँ, बाल एकदम ग्रे हो गए है। चश्मे का शीशा और भी अधिक मोटा हो गया है, लेकिन एक निशानी जो आपको सबसे जुदा करती है, वह आपके बाँये कान के नीचे इकट्ठे तीन तिल! वे वैसे के वैसे ही हैं…. बिल्कुल नहीं बदले ! मैंने खट, पहचान लिया। ’

‘पहले मैं रूपाली समझता रहा। वह आती है कभी-कभी। मेरी भतीजी है। फिर तुम सेल्सगर्ल हो गई और थोड़ी देर में मेरी स्टूडेंट।’

‘सर, आप ओल्ड राजेन्द्र नगर… । ’

‘ हाँ भई, मैं तो वहीं से रिटायर हुआ हूँ….। तुम्हारा मिलना बहुत दिलचस्प हो गया है।’ उन्होंने चाय का गिलास खत्म करते हुए कहा-

‘सर आप अकेले रहते हो?’

‘एक बेटा साथ रहता है। वह परिवार समेत पहाड़ों पर छुट्टियाँ बिताने गया हुआ है। मैं बूढ़ा फिलहाल अकेला हूँ।…. खैर, ऐसे मौके पर अपने अकेलेपन को नहीं रोना चाहता, तुम अपनी सुनाओ, कौन से सन् में थी तुम?’

‘मैं चौरासी से नवीं में आई थी।’ वह कुछ रुककर, सोचकर बोली।

‘आर्ट्स थी तुम्हारे पास?’

‘जी…! सर, आपको याद होगा हमारी दो क्लासें तीन मूर्ति पिकनिक पर गई थीं। आपने हमें नेहरू जी का सोने का कमरा, पढ़ने का कमरा, ड्राइंग रूम, हजारों पुस्तकों से भरी लाइब्रेरी….और न जाने क्या-क्या दिखाया था। दोपहर के वक्त वहीं लॉन में सभी को बिठाकर आपने एक छोटा-सा भाषण दिया था। सच, सर! वह मुझे अक्षर-अक्षर याद है… ।’ वह अपलक उन्हें देख रही थी। ‘आपने बताया था, इतनी बड़ी बिल्डिंग सिर्फ एक व्यक्ति के लिए! छह-छह जनों के परिवार को एक ही कमरे में उम्र बितानी पड़ती है- वहीं नहाना-धोना, सोना, ओढ़ना और खाना-पीना। उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे, हमें कपड़े धोने का पानी मुहैया नहीं होता। उनके चारों ओर ऐशो-आराम, नौकर-चाकर थे और हम भूख और गरीबी से घिरे रहते हैं। नेहरू जी का जीवन कहीं से भी मेल नहीं खाता हमारे जीवन से!’ वह चुप हो गई, फिर थोड़ी देर में बोली- ‘सर, पता है, आपकी बातों से दूसरे टीचरों का मुंह उतर गया था। लेकिन यहीं से मेरा आपके प्रति नजरिया एकदम बदल गया। आप मेरे फेवरेट हो गए। मैंने उसी समय आपकी तरह टीचिंग को अपना कैरियर बनाने की ठान ली। एम.ए. किया, बी.एड. किया पर जॉब नहीं मिली।’ उसकी आवाज में टीस-सी खिंच गई। लेकिन वह उसी पल मूड बदलते हुए बोली- ‘जॉब नहीं मिली, आज आप मिल गए! ये क्या कम है।’
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‘हाँ, पिकनिक की कुछ धुंधली-धुंधली याद है… और अचानक तुम भी मुझे देखी-भाली, अच्छी परिचित-सी लगने लगी हो।’

‘सर, आपकी गुप्ता सर से कितनी लड़ाई होती थी… सभी स्टूडेंट आपके पक्ष में हो जाते थे। दरअसल मारते बहुत थे गुप्ता सर!’ उसका मन कर रहा था कि सभी जमा यादों को उनके सामने फैला दे। क्षण भर रुककर फिर मुसकुराते हुए बोली- ‘सर, आपको सभी पसंद करते थे खासकर पेपरों में। आप तो सामने वाले की तस्वीर बनाने में इतने तल्लीन हो जाते, सभी छात्र आराम से नकल में जुट जाते। सभी यही कामना करते कि हमारे रूम में शर्मा सर आएँ।’ वह खोई-खोई एक धुन में कहती जा रही थी। उसकी आँखें सामने की दीवार पर लटकी पेंटिंग पर टिकी हुई थी।

दूसरी तरफ उनके चश्मे की काँच से भीतर आँखों के कोनों में अटकी पानी की बूंदें दिखाई दे रही थीं। वे पीछे की ओर गरदन घुमाते हुए बोले- ‘ये तस्वीर भी किसी छात्र की है, जो शायद ऐसे ही किसी मौके पर बनाई थी- देखो! इसके चेहरे पर परीक्षा का तनाव है।’ वे कुर्सी से उठकर तस्वीर के सामने सिर उठाकर खड़े हो गए। सारंगा भी घूमकर उनके साथ खड़ी हो गई। आँखों के कोनों में अटकी पानी की बूंदें लुढ़क कर तेजी से फर्श पर गिर गईं।

‘सर, वाकई़… कितनी चिंता है चेहरे पर!’ वह तस्वीर को देखती रही। भीतर ही भीतर यह भी सोच रही थी कि सर के आँसू क्यों निकल आए।

‘आओ एक चाय और पीते हैं?’

‘चलो, अबकी बार मैं चाय बनाती हूँ ’- वह रसोई की ओर देखते हुए बोली।

‘लेकिन एक बात है… मैं नहाकर आता हूँ, कहीं पानी न चला जाए? तुम थोड़ी देर बाद बनाना। इतने बैठो। बस दस मिनट।’ वे तेजी से गुसलखाने में चले गए।

वह वहीं अपनी जगह पर बैठकर बैग से पैड निकालकर लिखने बैठ गई।

वे बालों में कंघी करते हुए आए और बोले- ‘वह सामने चाय और चीनी के डिब्बे… ठीक है न… अब की दूध की पीते हैं।…. फ्रिज में दूध़… ।’

वह हैंड बैग बंद कर रसोई की तरफ चली गई। ड्राइंग रूम और रसोई के बीच कोई दीवार-दरवाजा नहीं था। ऊपर के खानों में प्लास्टिक के डिब्बे करीने से कतार में रखे हुए थे। चूल्हे के आस-पास एकदम चमचमाती स्लैब! कोई कह नहीं सकता कि यह काम आदमी ने किया होगा।
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‘और क्या करती हो तुम? शौकिया।’

‘सर, वैसे तो समय नहीं मिलता पर शाम को दो ट्यूशन पढ़ाती हूँ। और जब इस सारे रूटीन से दिमाग थक जाता है तो कविता लिख लेती हूँ… बस अपने ही तरीके का एक समाधान समझो।’ उसके हाथ चल रहे थे और ड्राइंग रूम की तरफ उसकी पीठ थी। शर्मा सर भी रसोई की तरफ पीठ किए हुए थे। बस सारंगा की आवाज उनके कानों तक पहुँच रही थी।

वह चाय लेकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई। उन्होंने वहीं से बिस्कुट का जार उठाकर खोल लिया और उसके आगे रखते हुए बोले- ‘घर में कौन-कौन हैं?’

‘बस बूढ़े माँ-बाप हैं… बड़ा भाई शादी के बाद अलग हो गया।’ उसकी आँखों में एक धुंधली परत छा गई। चेहरे की रंगत छू हो गई।

‘तुम भी तो हो गई हो शादी के लायक…।’

‘हाँ वो तो है… पर कोई मौका नहीं है… । मैं अभी सोचती भी नहीं….’ वह अब सामान्य हो चुकी थी। उसके हाथ में चाय का कप था।

बहुत देर तक एक उदास चुप्पी पंखे की हवा में दोनों के बीच तैरती रही। बस चाय पीने की ध्वनि बड़े ही बेमेल ढंग से उस चुप्पी में खलल डाल रही थी।

वह कप को टेबिल पर रखते हुए बोली- ‘चलती हूँ, सर !’

‘अभी बैठो, खाना बनाएँगे दोनों मिलकर…।’

‘सर, आज नहीं…. फिर कभी… दिल तो नहीं कर रहा लेकिन मजबूरी है। इस चिलचिलाती धूप में घर-घर घूमना।’ वह उदास-सी उठ खड़ी हुई और बोली- ‘सर, मैं किस तरह आपका शुक्रिया करूँ… मैं तो किसी लायक भी नहीं हूँ।’

‘क्या बात कर रही हो… खाली, नाकारे बूढ़े के साथ कौन इतनी देर तक बैठता है… कौन करता है सुख-दुख की बातें…। मेरे चार बच्चे हैं। जब तक छोटे थे साथ थे, पंख लगे, उड़ गए। कोई नहीं रहता मेरे साथ… तुम्हारे माता-पिता भाग्यशाली हैं, जो तुम जैसी संतान है उनकी।’ वे धीरे-धीरे काँपती जुबान से कह रहे थे- ‘बड़ा ही अच्छा लगा, मैं भी कुछ हद तक सफल रहा- तुम्हें देखकर कह सकते हैं। ….मेरे अपने बच्चे क्या बने, एकदम कैरियरिस्टिक! स्वार्थी! पैसे के पीर!’

वह धीरे-धीरे दरवाजे के बाहर तक निकल आई। उसके पाँव नहीं उठ रहे थे लेकिन वह बलात् पाँव घसीटते हुए सीढ़ियाँ उतरने लगी।

भीतर कमरे में उनकी आँखें सामने की दीवार पर टिकी थीं, मस्तिष्क का वह भाग जो दृष्टि के लिए उत्तरदायी है, न जाने कहाँ शून्य में भटक रहा था। वे जड़ से बैठे थे। तंद्रा टूटने पर उन्होंने टेबिल के उस भाग को देखा जहां सारंगा बैठी थी। वहाँ एक सफेद कागज का टुकड़ा टेबिल-घड़ी के नीचे दबा था। उन्होंने जल्दी से टेबिल पर पड़ा चश्मा आँखों पर चढ़ा लिया। घड़ी उठाकर वहीं रख दी और काँपते हाथों से कागज उठा लिया।
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‘रुपये !’ वे आश्चर्य से बोले- ‘ये तो मैंने ही दिये थे। कहीं भूल तो नहीं गई?’ वे विस्मय से रुपये गिनने लगे और फुसफुसाये, ‘अस्सी… वही हैं।’

उन्होंने दूसरे हाथ में दबे कागज को उल्टा-पल्टा। कागज पर एक ओर कुछ लिखा था। वे चश्मे को ऊपर करते हुए धीरे-धीरे पढ़ने लगे- ‘सर, मुझे माफ करना। मैं आपके ये रुपये नहीं रख सकती क्योंकि मैं पहले ही डिटरजेंट पाउडर को बेच चुकी थी, आपने भी बिना किसी संदेह के खरीद लिया था। बाद में जब हमारा पुराना-संबंध सामने आया तो मुझे बड़ा पछतावा हुआ कि मैंने यह आपको क्यों बेच दिया। ये डिटरजेंट पाउडर निहायत ही घटिया किस्म का है, बस मिट्टी समझो मिट्टी। कंपनी को सिर्फ लाभ से मतलब है… ये सरेआम बेईमानी है और थोड़े से कमीशन में हम जैसे बेरोजगार को इस घृणित काम में लगा रखा है। मैं एक बार फिर क्षमा याचना करती हूँ। इस काम को अभी से छोड़ने के निश्चय के साथ आपके घर से उठकर आई हूँ। यदि आपने माफ कर दिया तो दोबारा आने का साहस कर सकूँगी। आपकी- सारंगा।’

वे उस कागज को उलटते-पलटते रहे, फिर हाथों को रोककर लिखे हुए अक्षरों को दोबारा देखने लगे। ऐसा लगा, मानो अक्षरों पर कुछ बूंदें उभर आई हों। उन्होंने उँगलियों से अपने गालों को छुआ तो आँखों के नीचे उतरते आंसुओं के सैलाब पर चकित रह गए।
(Sales Girl Story by Gajendra Rawat)

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