सहेलियां : संस्कृति

हरिश्चन्द्र पाण्डे

आज बेटी सुबह से व्यस्त है
सहेलियाँ घर पर आयेंगी
खाना होगा
गपशप होगी खूब
चीजें तरतीब पा रही हैं
ओने-कोने साफ हो रहे हैं
खुद की भी सँवार हो रही है
पिता तक पहुँचती आवाज में माँ से कह रही है
-यही पहनकर न आ जाना बाहर
नोयडा से रुचि आई है
बंग्लूरू से आयशा
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु
सरोजिनी से दिव्या
शिल्पी बीमार है वह कसमसाएगी बिस्तर पर
ग्यारह बजे आना था उन्हें बारह बज गए हैं
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए
वे शायद आ रही हैं
मोड़ के उस ओर जहाँ आँखें नहीं पहुँच रहीं
आवाजों का एक बवंडर आ रहा है
वे आ गई हैं
कॉल बैल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका
गेट का दरवाजा पीटे जा रही हैं थप-थप-थप्प
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है
अधैर्य का एक पुलिंदा मेरे गेट पर खड़ा है
वे गेट के भीतर क्या आई हैं
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक ऑर्केस्ट्रा बज रहा है
कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा जंगल के पेड़ बचाए जा रहे हैं कटने से
वे अब कमरे के भीतर आ गई हैं
धम्म-धम्म-धम्म सोफों पर ऐसे गिर रही हैं
जैसे पहाड़ खोदकर आई हैं
थोड़ा ठंडा-वंडा
थोड़ा चाय-बिस्कुट
थोड़े गिले-शिकवे
और अब सब अतीत में चली गई हैं
(Saheliyan Sanskriti)

एक ग्रुप फोटो के साथ…..
वे कॉलेज के अंतिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से
साड़ी कुछ माँ ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी
ऊपर कंधे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर
एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले
कई बार गिरते-गिरते बची है
तीसरी खुद को कम
देखने वालों को अधिक देख रही है
मरी-मरी जा रही है
भरी-भरी जा रही है
कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुंभ लगा है
परीलोक से परियों का झुंड उतर आया है
रंगों ने अपनी-अपनी रंगत न्योछावर कर दी है
कलियों ने अपनी गात दे दी है
फूल झर रहे हैं कहीं           पता नहीं कहाँ
अनास छा रहा है               पता नहीं कहाँ
उनके भीतर ही भंवर है       भीतर ही चप्पू
भीतर ही मझधार है          भीतर ही किनारा
वे उचक-उचक कर चहक रही हैं
चहक-चहक कर मंद्र हो रही हैं
(Saheliyan Sanskriti)

… अब उनकी बातों की जद में सहपाठिनें हैं
ये चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जी
और ये दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं कितना अच्छा पढ़ाती थीं
अभी यह कमरा कमरा नहीं
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है
….धीरे-धीरे कम हो रहा है कमरे का सामुदायिक राग
अब एक बार में एक स्वर मुखर है
अपने-अपने अनुभव हैं       अपनी-अपनी बातें
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लंबी सुरंग में प्रवेश कर गई है
………चुप्प……..
और फिर जैसे अचानक
सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं
पखेरू चहकने लगे हैं
किसी ने मोती की लड़ियाँ तोड़ कर बिखेर दी हैं…..
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे
संसार के सारे कलुष धुल गए हों
भीतर हम दोनों देश-काल से परे हो गए हैं
ये सब सजो लेंगी इन पलों को
हम समो लेंगे
ये जहाँ चहकें
हम यहाँ महकेंगे
….. समय बीत गया है
पर इनकी बातें नहीं
***
अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं
इस छोर पर एक माँ कई बेटियों को विदा कर रही है
उस छोर पर कई माएँ आँखें बिछाए खड़ी हैं
यहीं कहीं एक लड़का केमिस्ट की दुकान पर खड़ा
एसिड की बोतल खरीद रहा है
(Saheliyan Sanskriti)
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