शिक्षा का अधिकार अधिनियम

ऋतंभरा सेमवाल

शिक्षा एक जीवन-पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है। जिसे व्यक्ति औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से प्राप्त करता है। हमारे ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत में इसका उदाहरण प्राप्त होता है कि अभिमन्यु ने माँ के गर्भ में रहते हुए चक्रव्यूह तोड़ना सीखा था। इसमें कितनी सत्यता है यह जानना मेरे लिए आवश्यक नहीं है, परन्तु आज भी मनोवैज्ञानिक चिकित्सक एक गर्भवती महिला को सलाह देते हैं कि वह प्रसन्न रहे, अच्छा साहित्य पढ़े और पौष्टिक आहार करे ताकि बच्चे पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं। किसी भी राष्ट्र को सबल, जागरूक एवं संवेदनशील नागरिकों की आवश्यकता होती है। सबल नागरिकों पर ही देश निर्भर करता है। यह तभी संभव हो पाता है जब देश का प्रत्येक नागरिक शिक्षित हो। अशिक्षा लोकतंत्र के लिए अभिशाप है। अशिक्षित व्यक्ति अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का सही उपयोग नहीं कर पाता है और समाज में शोषण का शिकार होता है।
अधिकार क्या है

प्रजातंत्र में नागरिकों के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए जो सुविधाएँ एवं स्वतंत्रताएँ प्रदान की जाती हैं वे अधिकार कहलाते हैं। संविधा की धारा 45 के अनुसार संविधान लागू होने के दस वर्ष के अन्तर्गत 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का प्रावधान था। किन्तु संविधान लागू होने के कई वर्ष बाद भी शिक्षा के इस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकी है।
आवश्यकता

भारतीय जनता अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण शोषण का शिकार होती चली गई। अंग्रेजों ने भारतीयों से अपना काम करवाने के लिए समय-समय पर शिक्षा नीतियाँ बनवाई जिनका उद्देश्य एक योग्य नागरिक का निर्माण करना नहीं था बल्कि अंग्रेजों के कार्यों में सहायता पहुँचाना था। उस समय शिक्षा कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ही दी जाती थी। किन्तु आजादी के बाद भी हमारे देश में उन्हीं शिक्षा नीतियों और रीतियों को आगे बढ़ाया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आजादी के 67 वर्ष बाद भी हमारे देश में सभी को समान शिक्षा नहीं दी जा सकी है। गुलामी की झलक हमारे समाज में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यही कारण है कि हम आज भी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि विकसित देशों की श्रेणी में कहीं नहीं है। जब संविधान लागू होने के कई वर्ष बाद भी संविधान के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हुई तब संविधान में 86 वां संशोधन करके ग्यारहवां मौलिक कर्तव्य सम्मिलित किया गया। जिसके अन्तर्गत भारत के प्रत्येक नागरिक/माता-पिता के लिए अपने बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा देना अनिवार्य किया गया।
वर्तमान में शिक्षा के अधिकार की स्थिति

आजादी के इतने वर्ष बाद भी हमारे देश में कागजी आँकड़ों के आधार पर लगभग 35-40 प्रतिशत व्यक्ति निरक्षर हैं? कौन माता-पिता ऐसे हैं जो अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते? मेरा विचार है कि केवल मजबूर माता-पिता/अभिभावक अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं।
(Right to Education Act)

1.  निर्धनता।
2.  माता-पिता का स्वयं अशिक्षित होना।
3.  शिक्षा के महत्व को न समझना तथा जागरूकता की कमी का होना।
4.  शिक्षा व्यवस्था में बहुत अधिक अन्तर होना।
5.  भविष्य की अनिश्चितता एवं बेरोजगारी का होना।

वर्तमान में यदि वास्तविक प्रेक्षण किया जाय तो आज भी बाल मजदूरी करते बच्चे, कूड़ा उठाते बच्चे, भीख मांगते बच्चे हमारे परिवेश में देखने को मिल जाते हैं। जबकि पिछले दस वर्षों से देश में सर्व शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है। जिसका आदर्श वाक्य है सब पढ़ें, सब बढ़ें, 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों का विद्यालयों में शत प्रतिशत नामांकन हो तथा विद्यालय में उनका ठहराव हो। इस अभियान के अन्तर्गत सरकार द्वारा करोड़ों की धनराशि व्यय की जा रही है। किन्तु इस अभियान से प्राथमिक विद्यालयों का भौतिक विकास ही हो पाया है शैक्षिक स्तर में कोई सुधार दिखाई नहीं देता। विद्यालयों की संख्या में वृद्धि हुई है जबकि सरकारी विद्यालयों में छात्र संख्या निरंतर घट रही है एवं शिक्षकों की संख्या में भी कमी हुई है।

विद्यालयों में एक या दो अध्यापक/अध्यापिकाएं होते हैं जिन्हें, अंग्रेजी, संस्कृत, विज्ञान, गणित, सामाजिक विषय, कला, व्यायाम, खेल और पर्यावरण जैसे विषय पढ़ाने होते हैं। दोनों शिक्षकों में से एक शिक्षक प्रशिक्षण में, मासिक बैठकों में या दाल मशाले की व्यवस्था में तथा दूसरी सरकारी आँकड़े भेजने हेतु कागजी कार्यवाही तथा मध्याह्न भोजन की व्यवस्था एवं कार्यालयी कार्यवाही पूरी करने में व्यस्त रहते हैं। जिससे सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर न्यून होता जा रहा है और सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएँ केवल आँकड़ों तक सीमित रह जाती हैं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम की सफलता हेतु सुझाव

केवल शिक्षा अधिनियम बनाने से शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो जाती अपितु शिक्षा व्यवस्था में समुचित सुधार लाने के लिए तथा अधिनियम को लागू करने के लिए सरकार को ठोस रणनीति बनाने तथा ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हो सकते हैं-

1. देश के प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह जब भी अपने परिवेश में ऐसे बच्चों को देखें जो विद्यालय नहीं जा रहे हैं तो ऐसे बच्चों को निकटस्थ विद्यालय में प्रवेश दिलाने का प्रयास करें।
2. सरकार को जनता की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि का र्आिथक उत्तरदायित्व लेना चाहिए।
3. शिक्षा में सामाजिक समानता की स्थापना होनी चाहिए अर्थात् जाति, लिंग, धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
4. शिक्षा का सार्वभौमीकरण होना चाहिए तथा सरकारी एवं गैर सरकारी विद्यालय नहीं होने चाहिए।
5. अधिनियम भारत के प्रत्येक नागरिक पर लागू होना चाहिए अन्यथा की स्थिति में दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।
6. विद्यालयों में मानवीय संसाधनों की पूर्ति अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
7. शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य नहीं लिए जाने चाहिए। गैर शैक्षणिक कार्यों के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं से या अन्य विभागों से सहयोग लिया जाना चाहिए।
8. शिक्षकों की नियुक्ति में गुणवत्ता का विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि नागरिकों के व्यक्तित्व निर्माण में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
(Right to Education Act)
प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विद्यालय पर प्रभाव

वर्तमान में शैक्षिक उन्नयन हेतु चलाए जा रहे प्रशिक्षण कार्यक्रम में होते हैं उतने दिन विद्यालय का पठन-पाठन बाधित होता है। साथ ही अध्यापकों के प्रशिक्षण का क्रियान्वयन भी विद्यालयों में देखने को नहीं मिलता। इसका परिणाम यह होता है छात्रों को जो कुछ पढ़ाया जाना था वह भी नहीं पढ़ाया जाता। छात्र बिना पढ़े ही कक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं क्योंकि उसे अनुत्तीण नहीं किया जाना है। निष्कर्षत: शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो पाती।
प्रशिक्षण कार्यक्रमों की सफलता हेतु सुझाव

यदि सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में प्रशिक्षण कार्यक्रमों को सफल बनाना है तो निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक होगा।
1.    प्रशिक्षण, सेवा पूर्व हों। यदि सेवारत प्रशिक्षण आवश्यक हो तो कम से कम एक माह के पुनर्बोध प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए जो कि अवकाश अवधि में ही होनी चाहिए इस हेतु प्रशिक्षणार्थी को विशेष लाभ देय हों।
2.    प्रशिक्षण के पश्चात शिक्षकों द्वारा विद्यालयों में प्रशिक्षण का क्रियान्वयन किया जा रहा है या नहीं इसका व्यावहारिक मूल्यांकन हो। प्राय: देखा जाता है कि किसी भी योजना या कार्यक्रम का अभिलेखीकरण हो जाता है और क्रियान्वयन रह जाता है।
3.    जो शिक्षक/शिक्षिकाएँ अपने प्रशिक्षण का उपयोग अपनी कक्षा/विद्यालय में करें तो उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
4.    शिक्षकों को कार्यालयी कार्यों से पूर्ण रूप से मुक्त रखा जाय। कार्यालयी कार्यों के लिए अन्य व्यवस्थाएँ की जानी चाहिए। तभी एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को समुचित शिक्षा देने में सक्षम हो सकता है और शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि शिक्षा व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता एवं मौलिक अधिकार है। और एक जागरूक व्यक्ति ही अपने अधिकारों का सही प्रयोग कर सकता है। अत: शिक्षित व्यक्तियों का, सरकार का एवं स्वयंसेवी संस्थाओं का नैतिक एवं सामाजिक दायित्व है कि वे अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर देश के लिए या समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से कार्य करें ताकि देश का हर नागरिक गर्व से कह सके कि मैं भारतीय हूँ।
(Right to Education Act)
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