शारीरिक प्रक्रिया जो अछूत बना देती है

गायत्री दरम्वाल

स्कूल की घंटी बजते ही सभी बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में दौड़ जाते हैं। सातवीं कक्षा की स्वाति (काल्पनिक नाम) भी अपनी सहेलियों के साथ हिन्दी की कक्षा में पढ़ना शुरू करती है, परन्तु वह कक्षा में स्वयं को असहज महसूस करती है उसका मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है, वह बार-बार किताब खोलती व बंद कर देती है तो कभी अपने कपड़े ठीक करने लग जाती है। उसकी यह हरकत देखकर शिक्षिका उसे डांटती है। घण्टी बजती है, सब बच्चे अपनी गणित की कक्षा के लिए जाने लगते हैं परन्तु स्वाति न जाने क्यों जड़ हो जाती है। वह उठना चाहती है परन्तु उठ नहीं पाती है, स्वाति की दोस्त उसे खींचकर उठाती है तो उसके कपड़ों पर लाल रंग के दाग देखती है। वह स्वाति की तरफ देखती है, उसकी आंखों से आँसू निकलकर उसके गालों को गीला कर रहे होते हैं। स्वाति की दोस्त उसे लेकर प्रधानाध्यापिका के पास जाती है, जो उसे देखते ही बिना किसी सवाल-जवाब के स्वाति को उसके घर भेज देती हैं। इधर स्वाति के मन में सैकड़ों सवाल पैदा होने लगते हैं, कि यह लाल रंग क्या है? ऐसा क्यों हुआ? क्या कोई मुझे बुरी बीमारी हो गयी है? माँ को क्या बताऊँगी? टीचर ने कुछ कहे बिना घर क्यों भेज दिया? ऐसी अवस्था से देश की लाखों स्वाति जैसी लड़कियों को रोज गुजरना पड़ता है, न उनको सवाल का जवाब मिलता है और न हीं सम्मान।

अब सवाल उठता है कि यह परिस्थिति आंखिर उत्पन्न क्यों होती हैं। यह लाल रंग किशोरियों व महिलाओं में हर माह क्यों आता है। इस स्थिति में उनके साथ समाज, घर, शिक्षण संस्थान, धार्मिक संस्थान, दोस्त किस प्रकार का व्यवहार करते हैं। साथ ही सेनेटरी पैड बनाने वाली बड़ी बड़ी कम्पनियां भी विज्ञापनों के माध्यम से खून को लाल रंग के बजाय नीला दिखाते हैं। 
(Report by Gayatri Daramwal)

यह समझने व जानने की बात है कि लड़कियों में एक निश्चित आयु के बाद योनि से माह में कुछ दिन में रक्तस्राव होता है। यह एक जरूरी शारीरिक प्रक्रिया है जोकि पुरुषों में युवावस्था में दाढ़ी-मूँछ आने जैसी एक सामान्य घटना है। माहवारी भी महिला व किशोरियों में आने वाली जरूरी शारीरिक प्रक्रिया है परन्तु जिसके बारे में समाज में अनेक प्रकार की भ्रांतियां एवं कुप्रथाएं फैली हैं।

यह कुप्रथा या भ्रांति अशिक्षित समाज के साथ-साथ ही शिक्षित समाज में भी फैली है। इसे शर्म का विषय मानकर सभी ने इस मुद्दे पर चुप्पी बनायी हुई है। इस विषय में खुलकर चर्चा नहीं होती है। यदि आप इस विषय पर बात करना भी चाहते हैं तो उसे गन्दी बात समझा जाता है। इस विषय की अज्ञानता घर से शुरू होकर समाज तक और समाज से आरम्भ होकर भगवान के द्वार तक एक नियम की तरह पहुँच जाती है।
(Report by Gayatri Daramwal)

माहवारी के दौरान किशोरियोंं और महिलाओं को अनेक प्रकार की सामाजिक प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ता है। इस दौरान किशोरी व महिला को घर की सामान्य प्रक्रिया में नियमित किये जाने वाले कार्यों को बंद करना पड़ता है। उनकी साफ-सफाई की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। महिलाओं का रसोई घर में प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। पूरे घर में घूमने, पूजा पाठ आदि में प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इस दौरान मंदिर में महिला का प्रवेश पूर्ण तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। महिलाएँ गाय या भैंस का दूध तो निकाल सकती हैं लेकिन उस दूध के सेवन पर प्रतिबंध रहता है। कुप्रथा तो यहां तक है कि माहवारी के समय महिलाआें को घर से दूर पशुओं के साथ गौशाला में रहने को मजबूर किया जाता है। जिस समय में महिला को स्वच्छता , साफ सफाई व पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है, इन सामाजिक कुप्रथाओं के कारण उनको अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होना पड़ता है। ऐसी अवस्था में वह किस प्रकार के शारीरिक व मानसिक अवसाद से गुजरती हैं, यह कह पाना आसान नहीं है। कहने को माहवारी महिलाओं में होने वाली एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है लेकिन अज्ञानवश या कहें कि जागरूकता के अभाव में यह प्रक्रिया अत्यन्त ही जटिल व गम्भीर समस्या में परिवर्तित हो गयी है। इन्हीं जटिलताओं व गम्भीरताओं को समझते हुए विमर्श संस्था ने किशोरियों के प्रजनन स्वास्थ्य व अधिकार को लेकर काम करना शुरू किया गया।

सर्वप्रथम नैनीताल जिले के 40 गांवों में किशोरियों के संगठन बनाकर माहवारी स्वच्छता व प्रबन्धन को लेकर जागरूकता का कार्य किया। किशोरियों के साथ कार्य करते हुए समझ में आया कि माहवारी को लेकर सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं के डर के चलते लोग इस विषय पर बात नहीं करना चाहते हैं। किशोरियों व महिलाओं में भी अपने शरीर को लेकर शर्म व गलत धारणाएं बनी हुई हैं। विमर्श द्वारा इन धारणाओं को लेकर किशोरी व महिला संगठनों के साथ चर्चा प्रारम्भ की गई। लोगों को जागरूक किया और स्कूल स्तर पर भी माहवारी, स्वच्छता व प्रबन्धन की सुविधाओं को लेकर बैठक, रैली, गोष्ठी, शिक्षकों के साथ गोष्ठी, घरेलू पैड बनाना आदि गतिविधियां की गयी। तब जाकर कुछ परिवर्तन होना शुरू हुआ। परन्तु विमर्श का यह सफर इतना आसान नहीं था जो समाज अनेक प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों में उलझा हो, उस समाज में माहवारी शब्द का इस्तेमाल करना ही अपने आप में एक चुनौती था।
(Report by Gayatri Daramwal)

संस्था ने जब किशोरियों व महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर बात करनी शुरू की गयी तो कई समस्याएं भी निकलकर आने लगीं जो इस प्रकार थी-

  • माहवारी के दौरान अधिकतर किशोरियाँ स्कूल नहीं जाती थीं, यहाँ तक कि जब उनकी माँ को माहवारी आती थी तो भी उन्हें घर के कामों के लिए घर पर रहना होता था।
  • स्कूलों में शौचालय नाम मात्र के थे। जो थे भी तो वे इतनी गन्दी अवस्था में थे कि उनका उपयोग ही नहीं किया जा सकता था या उनमें ताले लगे रहते थे।
  • शौचालय के अन्दर पानी नहीं था और कूड़ेदान की व्यवस्था नहीं थी, जहाँ पर वह माहवारी का कपड़ा या सेनेटरी पैड फेंक सके।
  • स्कूलों में सफाई कर्मचारी नहीं थे और जिन स्कूलों में थे उन्होंने किशोरियों के द्वारा फेंके गये पैड या कपड़े का निस्तारण करने से मना कर दिया गया था।
  • माहवारी मुद्दे पर स्कूल स्तर पर भी कोई बात नहीं होती थी। पाठयक्रम में यह एक विषय होने के बावजूद भी बच्चों को इसे घर से पढ़कर आने को कहा जाता था।
  • जो लड़कियां माहवारी के दौरान स्कूल जाती भी थीं वे सुबह से शाम तक एक ही पैड या कपड़े का प्रयोग करती थीं, जिसके कारण उनको अनेक शारीरिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता था।
  • अगर किसी किशोरी को स्कूल में माहवारी आ गयी तो स्कूल में सेनेटरी पैड की व्यवस्था नहीं होने के कारण उन्हें घर भेज दिया जाता था।   
    (Report by Gayatri Daramwal)

यह सब महसूस करने के बाद विमर्श समुदाय, प्रशासन, जनप्रतिनिधियों के साथ समन्वय स्थापित कर यह समझाने में सफल हुआ कि माहवारी के दिनों में स्वच्छता, सहयोग पौष्टिक आहार सम्मान की आवश्यकता रहती है। किशोरियों व महिला संगठनों के माध्यम से स्वास्थ्य के विभिन्न आयामों को लेकर चर्चा कर उन्हें माहवारी के विषय में जागरूक किया गया। साथ ही माहवारी स्वछता व प्रबन्धन की सुविधाओं की मांग व निगरानी हेतु संगठनों को तैयार किया गया। किशोरी संगठनों को घरेलू कॉटन के पैड बनाने का प्रशिक्षण दिया गया, जिन स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था नहीं थी वहां पर विभाग के सहयोग से शौचालय की व्यवस्था करायी गयी साथ ही स्कूलों में जरूरत पड़ने पर सेनेटरी पैड की उपलब्धता हेतु प्रयास किये गये।

जब तक लोग यह नहीं समझेंगे कि माहवारी का खून जो जीवन देने वाला खून है और धरती में कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जोकि बिना माहवारी के खून के योगदान के पैदा हुआ है माहवारी के नाम पर महिलाओं व किशोरियों के साथ होने वाले भेदभाव व उनके अधिकारों के हनन को समाप्त करने के लिए बहुत कुछ करना बांकी है। सम्भावनाएं बहुत हैं, आवश्यकता है तो सहयोग और संघर्ष को जारी रखने की़।
(Report by Gayatri Daramwal)

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