सवाल समलैंगिकता और एल.जी.बी.टी. का

इस समय देश में समलैंगिकता और  समलैंगिकों के अधिकार कम से कम कुछ लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं। इसे ज्यादा व्यापक रूप में एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन, गे, बाईसेक्यूअल, और ट्रांसजेंडर) का मुद्दा भी कहा जाता है क्योंकि यह अपने में समलैंगिकों के अलावा उन लोगों को भी समेटता है जिन्हें आम भाषा में हिजड़ा कहा जाता है लेकिन जो वास्तव में ज्यादा व्यापक श्रेणी है जिसमें हिजड़ों के अलावा वे अन्य लोग भी आते हैं जो स्त्री या पुरुष की सामान्य श्रेणी में नहीं आते। सामान्य स्त्री-पुरुष और उनके बीच लैंगिक सम्बन्धों के अलावा होने के कारण ही एल.जी.बी.टी. को एक श्रेणी में मान लिया जाता है।

सामान्य स्त्री-पुरुष के बीच पुरुष लिंग और स्त्री योनि के लैंगिक सम्बन्धों के अलावा हर तरह के लैंगिक व्यवहार को अंग्रेजी शासन ने उन्नीसवीं सदी में अपराध घोषित कर दिया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत इसके लिए सजा तय कर दी थी। इस कानून के तहत समलैंगिकता अपराध है जिसके लिए दस साल तक की सजा हो सकती है।

कुछ लोगों ने इस कानून को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी और 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन करने के आधार पर इस कानून को गैर संवैधानिक घोषित कर दिया था। उसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया जहाँ उसने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए धारा 377 को संवैधानिक बताया। हालांकि साथ ही यह कहा कि सरकार चाहे तो इस कानून को बदल सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले पर पुर्निवचार के लिए कुछ लोगों ने अर्जी दी और अभी इस महीने सर्वोच्च न्यायालय ने सारे मसले पर विचार करने के लिए एक संवैधानिक पीठ का गठन किया। यह पीठ सारे पहलुओं पर गौर कर बतायेगी कि धारा 377 का क्या हो?

2009 में धारा 377 को निरस्त घोषित करने वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के समय से ही भाँति-भाँति के पोंगापंथी और प्रतिक्रियावादी इस पर शोर मचा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, साधु-संत मंडली तथा मुस्लिम और ईसाई धार्मिक संगठन सभी इस मुद्दे पर एक हैं। सभी समलैंगिकता को अप्राकृतिक बताते हैं और इसका विरोध करते हैं। कुछ इसे शारीरिक अथवा मानसिक बीमारी बताते हैं और समलैंगिकों के इलाज की बात करते हैं। सभी इसे सामाजिक विकृति मानते हैं और इसे स्वस्थ समाज के लिए घातक घोषित करते हैं। जब भी समलैंगिक और उनके समर्थक सक्रिय होते हैं, ये भी सक्रिय हो जाते हैं।

पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो भाकपा, माकपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी धारा 377 को निरस्त करने के पक्ष में हैं। वे दो वयस्क लोगों के बीच लैंगिक सम्बन्धों को निजी मामला घोषित करने के पक्ष में हैं, चाहे वे लैंगिक सम्बन्ध कोई भी क्यों न हो, किसी भी किस्म के क्यों न हों। बस उन्हें आपसी सहमति से बनना चाहिए।

समलैंगिकता या व्यापक अर्थों में एल.जी.बी.टी. के मामले में क्या रुख होना चाहिए? क्या यह अप्राकृतिक है? क्या यह शारीरिक या मानसिक बीमारी है? क्या यह कोई विकृति है? इसके प्रति समाज या कानून का क्या रुख होना चाहिए?

इस मसले पर थोड़ा व्यापक जीव वैज्ञानिक और सामाजिक ऐतिहासिक नजर डालने से इसे ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

जीवों के बीच लैंगिक सम्बन्ध प्रजनन का आधार है। बिलकुल शुरूआती जीवों में लैंगिक प्रजनन नहीं होता यानी नये जीवों के पैदा होने के लिए नर-मादा लिंगों और किसी तरह के लैंगिक सम्बन्धों की जरूरत नहीं होती। कुछ और विकसित जीवों में लैंगिक प्रजनन शुरू होता है जब प्रजातियाँ नर और मादा में विभाजित हो जाती हैं। यह वनस्पतियों और जन्तुओं दोनों में होता है। लेकिन वनस्पतियों में नर-मादा के बीच कोई लैंगिक सम्बन्ध नहीं बनते। इसके बदले नर फूलों के परागकण मादा फूलों तक पहुँच जाते हैं। अक्सर ही वनस्पतियाँ एक साथ नर और मादा दोनों होती हैं और एक ही फूल में नर और मादा दोनों संरचनाएँ होती हैं। परागकणों का परिवहन हवा, कीट-पतंगों या अन्य तरीकों से होता है।

वनस्पतियों के बरक्स जन्तुओं में लैंगिक प्रजनन नर और मादा के बीच लैंगिक सम्बन्ध बनने के जरिये होता है। कैंचुआ जैसे उभर्यंलगी जन्तुओं को छोड़कर ज्यादातर जन्तुओं में नर और मादा अलग-अलग होते हैं। इनमें बहुत भाँति-भाँति से लैंगिक सम्बन्ध बनते हैं। उच्चतर जन्तुओं जैसे स्तनधारियों में यह मादा योनि में मादा लिंगों के प्रवेश से बनते हैं जिससे नर शुक्राणु का मादा अंडाणु से मिलना संभव हो जाता है जिसके फलस्वरूप भ्रूण का और फिर अन्तत: नये जीव का जन्म होता है। स्तनधारियों में यह समूची प्रक्रिया मादा के गर्भाशय में सम्पन्न होती है जिससे एक समय बाद पूर्ण विकसित शिशु का जन्म होता है जिसे मादा कम या ज्यादा समय तक स्तनपान कराती है।

जन्तुओं के बीच लैंगिक सम्बन्ध अक्सर ही उनके भीतर शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित होते हैं। ये परिवर्तन समय के हिसाब से चक्रीय होते हैं और कई बार मौसम में परिवर्तन से सम्बद्ध होते हैं। इन जन्तुओं में नर और मादा के बीच लैंगिक सम्बन्ध इस हद तक शारीरिक परिवर्तन से सम्बद्ध होते हैं (अक्सर मादा के अंदरूनी शारीरिक परिवर्तन से) कि इनके बिना दोनों के बीच लैंगिक सम्बन्ध नहीं बन सकते। अंदरूनी शारीरिक परिवर्तन प्रजनन के लिए शरीर को तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा होता है।

मानव भी अपने जैविक रूप में एक स्तनधारी जीव है और इसकी प्रजनन की प्रक्रिसा भी मूलभूत में अन्य स्तनधारियों की तरह ही है। तब भी इसमें कुछ फर्क हैं। इंसानी मादा यानी स्त्री का शरीर भी प्रजनन के लिए चक्रीय तौर पर तैयार होता है (जो औसतन चार सप्ताह का चक्र होता है) पर स्त्री-पुरुष के बीच लैंगिक सम्बन्ध के लिए यानी इसकी इच्छा या प्रेरणा के लिए अंदरूनी शारीरिक परिवर्तन की जरूरत नहीं होती। इस तरह इंसानों में लैंगिक सम्बन्ध प्रजनन से किसी हद तक विच्छिन्न यानी स्वतंत्र हो जाता है और अपने आप में लक्ष्य बन जाता है, इससे मिलने वाले शारीरिक और मानसिक सुख-आनन्द के कारण। अभी हाल की वैज्ञानिक प्रगति (टेस्ट ट्यूब बेबी) के पहले तक मानव प्रजनन के लिए स्त्री-पुरुष के बीच लैंगिक सम्बन्ध जरूरी था पर अक्सर ही यह सम्बन्ध प्रजनन से अलग कारणों यानी अपने आप में आनन्द के लिए बनाया जाता है। मानव के लैंगिक जीवन का यही एक तथ्य धार्मिक पोंगापंथियों की इस सम्बन्ध में बहुत सारी बातों को निरस्त कर देता है जो संतानोत्पत्ति के लिए स्त्री-पुरुष के बीच बनने वाले लैंगिक सम्बन्ध को ही प्राकृतिक मानते हैं। इस हिसाब से तो इसांन हमेशा से ही अप्राकृतिक आचरण करता रहा है। अभी हाल के इतिहास में महात्मा गाँधी भी यही मानते थे कि स्त्री-पुरुष के बीच लैंगिक सम्बन्ध केवल संतानोत्पत्ति की खातिर बनना चाहिए। यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी का अपना खुद का जीवन (जैसा कि उनकी आत्मकथा अथवा सत्य के प्रयोग से जाहिर होता है) उनके अपने आदर्श के अनुरूप बिलकुल भी नहीं था।

मानव लैंगिक जीवन के अन्य जन्तुओं से इस जैविक भिन्नता के अलावा एक सामाजिक पहलू भी है और वह ज्यादा महत्वपूर्ण है, खासकर हम जिस समस्या पर चर्चा कर रहे हैं उसके संदर्भ में। मानव जीवन के बिलकुल शुरूआती दौर को छोड़ दें, जिसके बारे में ज्यादा ज्ञात नहीं है, तो बाद के काल में मानव लैंगिक जीवन हमेशा ही समाज द्वारा निर्धारित होता रहा है और ठीक इसी कारण लैंगिक नैतिकता भी समाज के द्वारा निर्धारित होती रही है कि स्त्री-पुरुष के बीच में लैंगिक सम्बन्ध बनेगा, कब बनेगा और कैसे बनेगा यह समाज विकास के साथ बदलता रहा है। इस सम्बन्ध में क्या उचित है और क्या अनुचित, क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह हमेशा समाज के विकास से तय होता रहा है। इसे और नहीं तो केवल आज ही दुनियाभर में मौजूद समाजों में विद्यमान लैंगिक सम्बन्धों की बहु-विविधता से समझा जा सकता है। अकेले भारत में ही आज इसकी भरमार है। भारत में आज ‘लिव इन’से लेकर प्रेम विवाह और अरेंज मैरेज सब मौजूद हैं। यहाँ हिन्दुओं, ईसाईयों और मुसलमानों में र्विजत रक्त सम्बन्धों की पर्याप्त विविधता है। स्वयं हिन्दुओं में भी इस मामले में बहुत विविधता है। दक्षिण भारत के हिन्दुओं में ममेरे, फुफेरे भाई-बहनों और मामा-भांजी के बीच सम्बन्ध जायज हैं जबकि उत्तर भारतीय हिन्दू ऐसा सोच भी नहीं सकते।
(Questions Homosexuality and LGBT NS)

मसला स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में र्विजत रक्त सम्बन्धों का ही नहीं है। मसला इससे बहुत आगे जाता है। मानव समाजों में निजी सम्पत्ति पैदा होने के साथ ही इस सम्पत्ति के अगली पीढ़ी में हस्तांतरण हेतु परिवार नाम की संस्था अस्तित्व में आई और इसी के साथ स्त्री की पराधीनता भी। पुरुष अपनी निजी सम्पत्ति को अपने पुत्र को ही हस्तान्तरित करे इसके लिए जरूरी हो गया है कि यह सुनिश्चित किया जाये कि पुरुष का वैधानिक पुत्र वास्तव में इसका जैविक पुत्र भी हो। इसके लिए स्त्री की यौनिकता पर कठोर नियंत्रण जरूरी हो गया। अपनी पत्नी के लैंगिक सम्बन्धों को कठोरता से नियंत्रित कर (यानी पत्नी अपने पति के अलावा किसी और से लैंगिक सम्बन्ध न बना सके) ही पुरुष अपने जैविक पुत्र के बारे में र्निंश्चत हो सकता है।

निजी सम्पत्ति और उस पर आधारित परिवार की जरूरत के चलते स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम व्यवहार और लैंगिक सम्बन्धों ने वह रूप ले लिया जो उसे उसके जैविक यानी प्राकृतिक स्वरूप से बहुत दूर ले जाता था। एक रूप में कहा जाये तो लैंगिक सम्बन्धों का इस तरह नियमन पूर्णतया अप्राकृतिक था। लेकिन खुद मानव लैंगिक जीवन में यह गुंजाइश थी कि यह अप्राकृतिक नियमन संभव हो सके। अन्यथा तो मानव प्रजाति कब की लुप्त हो गयी होती।

निजी सम्पत्ति और परिवार की इन जरूरतों के अनुरूप मानव लैंगिक जीवन का जो नियमन किया गया (जिसके मूल में स्त्री की परतंत्रता थी) उससे न केवल पहले से भिन्न लैंगिक नैतिकता अस्तित्व में आई बल्कि अन्य तरह के लैंगिक व्यवहार भी अस्तित्व में आये। मसलन वेश्यावृत्ति अस्तित्व में आई और साथ ही यौन व्यभिचार भी। हमेशा से ही वेश्यावृत्ति और यौन व्यभिचार परिवार नाम की संस्था के पूरक रहे हैं तथा परिवार का रूप बदलने के साथ इनके भी रूप बदलते रहे हैं।

जैसे-जैसे समाज बदला है वैसे-वैसे परिवार का रूप भी बदलता रहा है। हालांकि उसकी निजी सम्पत्ति की उसकी मूल अंतर्वस्तु बनी रही है। आधुनिक विकसित पूँजीवाद में नाभिकीय परिवार से गुजरकर अब परिवार नाम की संस्था विघटन की ओर है तो इसी कारण कि अब स्त्री भी सम्पत्ति की स्वामी होने लगी है या कम से कम अपनी जीविका स्वयं कमाने लगी है। विकसित पूँजीवाद की पूँजी को परिवार नाम की संस्था की ऐसी कोई जरूरत भी नहीं है।

परिवार के इस बदलते स्वरूप के अनुरूप मानव लैंगिक सम्बन्ध और लैंगिक नैतिकताएँ भी बदलती रही हैं। आज यूरोपीय समाजों में परिवार के विघटन के साथ लैंगिक सम्बन्धों में स्वच्छन्दता का भी बोलबाला है और वह कुछ पोंगापंथियों को छोड़कर बाकी लोगों के लिए विशेष कोई मुद्दा नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर महाभियोग का मुकदमा इस बात के लिए नहीं चलता है कि उन्होंने किसी परस्त्री के साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाये बल्कि इस बात के लिए चलता है कि उन्होंने इस सम्बन्ध में पूछे जाने पर शपथ लेकर झूठ बोला।

कुल मिलाकर यह कि मानव लैंगिक सम्बन्ध मानव इतिहास में तत्कालीन समाज द्वारा निर्धारित होते रहे हैं। और इसी कारण इस सम्बन्ध में नैतिकताएँ भी समाज द्वारा निर्धारित होती रही हैं। इस मामले में मूलभूत जैविक या प्राकृतिक चीज पर इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि आज यह नहीं कहा जा सकता कि क्या प्राकृतिक है और क्या अप्राकृतिक। इसलिए इस सम्बन्ध में प्राकृतिक और अप्राकृतिक की सारी धारणाएँ बेहद मनोगत और अपनी संकीर्णता से निर्धारित होने वाली बन जाती हैं। स्थिति यह है कि आज के हिन्दू पोंगापंथी वात्स्यायन के कामसूत्र या खजुराहो की मूर्तियों का सामना होने पर बौरा जायेंगे।

समलैंगिकता की बात पर लौटें तो  ठीक उपरोक्त सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से प्राकृतिक या अप्राकृतिक की बात एकदम बेमानी हो जाती है। वह अपने संकीर्ण पूर्वाग्रह का मामला बन जाता है। जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों का सवाल है, आबादी के एक छोटे हिस्से में समलैंगिकता की उपस्थिति लगभग सभी समाजों में मिलती रही है। कुछ कबीलाई समाजों में भी यह अनुष्ठान के तौर पर पाई गयी है। इस सम्बन्ध में अन्य जन्तुओं का हवाला भी बहुत कारगर नहीं है क्योंकि कुछ जन्तुओं में समलैंगिकता के स्पष्ट चिन्ह पाये जाते हैं। यानी जैविक, अप्राकृतिक या ऐतिहासिक तौर पर पोंगापंथियों के पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

जहाँ तक आधुनिक विज्ञान का सवाल है, उसकी भी इस सम्बन्ध में धारणा बदलती रही है। जहाँ पहले मनोविज्ञान में इसे एक मानसिक बीमारी माना जाता था, वहीं अब इसे केवल सामान्य व्यवहार का मामला माना जाता है। यानी समलैंगिकता अब कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी नहीं मानी जाती। जहाँ तक इसके कारणों या जैविक जड़ों की बात है, जहाँ कुछ इसे एक जीन सम्बन्धित चीज मानते हैं वहीं ज्यादातर इसे जीन और परिवेश दोनों का सम्मिलित परिणाम मानते हैं। आज जो हर चीज की जड़ जीन में खोजने की आदत है उसे यदि दरकिनार कर दिया जाये तो यही कहा जा सकता है कि स्त्री-पुरुष में लैंगिक आकर्षण और इच्छा जैविक बुनियादी है लेकिन इसकी अभिव्यक्तियाँ या अंतिम चुनाव समाज द्वारा निर्धारित होता है। लेकिन यह कहने का यह मतलब नहीं कि समलैंगिकों को ठीक किया जा सकता है जैसे कि पोंगापंथी सोचते हैं। एक बार लैंगिक व्यक्तित्व बन जाने पर उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन शायद ही मुमकिन हो।

ठीक इसी कारण कि लैंगिक व्यक्तित्व जैविक आधार पर समाज द्वारा निर्धारित होते हैं, यह स्पष्ट है कि जो समाज लैंगिक सम्बन्धों के मामले में बेहद संकटग्रस्त हो और जिसमें भीषण उठापटक चल रही हो उसके ‘प्राकृतिक’ या ‘सामान्य’ स्त्री-पुरुष लैंगिक सम्बन्ध अपने आप में ही सवालों के दायरे में आ जाते हैं। इसमें स्त्री पराधीनता से स्त्रियों की मुक्ति की चाहत और उसके लिए संघर्ष और आयाम जोड़ देती हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि सामान्य स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के अलावा अन्य तरह के लैंगिक सम्बन्ध पर्याप्त मुखरता हासिल कर लें तथा समाज में चर्चा का, समर्थन और विरोध का विषय बन जायें। समाज में जनवादी चेतना के विस्तार के साथ मिलकर यह भिन्न आयाम ग्रहण कर लेता है।

हालांकि ऐतिहासिक तौर पर समलैंगिकता के प्रति समाजों का रुख अलग-अलग रहा है, मध्यकालीन और आधुनिक पूँजीवादी समाजों में इसे नकारात्मक तौर पर देखा गया है और इसकी भर्त्सना की गयी है। कुछ समाज और आगे गये तथा उन्होंने इसे दंड देने लायक अपराध माना। ज्यादातर समाजों में बीसवीं सदी तक यह स्थिति बनी रही। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 भी इसी परंपरा में है जो 1860 में बनकर आज भी भारतीय कानूनों में मौजूद है।
(Questions Homosexuality and LGBT NS)

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में समलैंगिकता के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा। जैसा कि पहले कहा गया है बाद में मनोविज्ञान ने और मानसिक चिकित्सा विज्ञान ने इसे मानसिक बीमारी से बाहर कर दिया। इसी के साथ इस सम्बन्ध में दंडात्मक कानूनों को निरस्त करने की बात उठने लगी। कहा गया कि लैंगिक सम्बन्धों के मामले में पसंद व्यक्ति का निजी मामला है और इसे अपराध के दायरे में ले आना निजी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का हनन है। वक्त के साथ यह धारणा मान्यता ग्रहण करने लगी और एक देश के बाद दूसरे देश ने समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाले कानूनों को निरस्त कर दिया।

समय के साथ बात और आगे बढ़ी। समलैंगिकों ने माँग की कि समाज उनके सम्बन्ध को मान्यता प्रदान करे और इसके लिए उनको विवाह की इजाजत दे। सामान्य स्त्री-पुरुष विवाहों के साथ उनके विवाहों को भी कानून विवाह की मान्यता दे। धीरे-धीरे कुछ देशों ने इस सम्बन्ध में कानून भी बनाये जो समलैंगिकों के विवाह को विवाह की मान्यता देते हैं।

आज नैतिक धारणाओं से अलग समलैंगिकता का मामला मूलत: मौलिक अधिकारों और निजता का मामला बना हुआ है। केवल इसी रूप में यह सभी जनवादी लोगों द्वारा समर्थन किये जाने का मुद्दा बनता है। यह सामान्य जनवादी बात है कि दो वयस्क व्यक्ति निजी तौर पर किन लैंगिक सम्बन्धों में जीते हैं, यह समाज या राज्य का मामला नहीं है। धर्म का मामला तो यह एकदम ही नहीं है। इसी कारण समलैंगिकों की समाज या राज्य द्वारा प्रताड़ना का विरोध किया जाना चाहिए। इसीलिए इस सम्बन्ध में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के प्रावधानों को निरस्त किया जाना चाहिए।

लेकिन जैसे ही बात इससे आगे जाती है, मसले के कुछ और आयाम सामने आ जाते हैं। दो  वयस्कों के बीच लैंगिक सम्बन्ध उनका निजी मामला है पर परिवार निजी मामला नहीं है। परिवार एक सामाजिक मामला है। इसीलिए जब समलैंगिक विवाह और परिवार की बात करते हैं तो ऐसे क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं जो निजी नहीं रह जाता। वे कौन सा परिवार चाहते हैं? अभी तक परिवार निजी सम्पत्ति पर आधारित रहा है और स्त्री की पराधीनता इसके मूल में रही है। परिवार के विघटन के इस दौर में समलैंगिकों के परिवार का क्या चरित्र होगा? वह शोषण-उत्पीड़न की किन पद्धतियों पर चलेगा? यदि वे समलैंगिक परिवार बच्चे पालते हैं तो इनमें बच्चों की पराधीनता का क्या मामला बनेगा? परिवार हमेशा से ही सत्ता संरचना का सूक्ष्म रूप रहा है।। समलैंगिक परिवारों का क्या होगा?

पूँजीवादी समाज के खात्मे तथा नये समाज के निर्माण में लगे हुए लोगों के लिए यह हमेशा से मानी हुई बात रही है कि परिवार नाम की संस्था के खात्मे के बिना न तो स्त्री की मुक्ति हो सकती है और न ही नये समाज का निर्माण हो सकता है। इसी के साथ मुक्त स्त्री-पुरुषों के बीच सही मायने में आपसी-प्रेम और सहमति पर आधारित लैंगिक सम्बन्धों का चलन होगा। तब निजी सम्पत्ति और राज्य इसमें दखल नहीं दे रहे होंगे। और न ही परिवार नाम की संस्था की जकड़न। बच्चे एक बार फिर पूरे समाज के होंगे इसलिए वे भी इस मामले में वह भूमिका नहीं निभायेंगे जो आज निभाते हैं।

जब मानव पूर्णतया मुक्त होगा और मुक्त मानवों के बीच लैंगिक सम्बन्ध बनेंगे, तभी यह जानना संभव होगा कि सामान्य स्त्री-पुरुष लैंगिक सम्बन्धों के अलावा अन्य किस्म के लैंगिक सम्बन्धों की क्या स्थिति है? वे कितने कम या ज्यादा चलन में होंगे? तब मानव की मूलभूत जैविक प्रकृति के बारे में भी ज्यादा वस्तुगत और ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से जान पाना संभव हो पायेगा। प्राकृतिक-अप्राकृतिक के बारे में बात तब ज्यादा सार्थक ढंग से हो सकेगी।

सामंती और पूँजीवादी तथा धार्मिक और अन्य किस्म के पूर्वाग्रहों के बोलबाले वाले इस समय में समलैंगिकता के मामले में केवल यही बात की जा सकती है कि लैंगिक पसंद के कारण किसी व्यक्ति के साथ न तो भेदभाव किया जाना चाहिए और न ही उसे प्रताड़ित किया जाना चाहिए। लेकिन इससे आगे न तो यह सेलिब्रेट करने की चीज है और न ही आज के लैंगिक सम्बन्धों के संकटों का कोई समाधान।

समलैंगिकता के इस मसले के साथ ट्रांसजेंडर का मसला थोड़ा और व्यापक हो जाता है। इसमें भी खासकर हिजड़ों के साथ, खासकर भारतीय समाज में, जो व्यवहार होता है वह अक्सर ही अमानवीय होता है। उन्हें समाज की समान धारा का हिस्सा नहीं बनने दिया जाता। इस सम्बन्ध में सामाजिक पूर्वाग्रहों और रीति-रिवाजों के खिलाफ और ज्यादा संघर्ष की जरूरत बनती है।

अंत में यह कि एल.जी.बी.टी. के मसले को आज के पूँजीवादी समाज की समस्याओं के संदर्भ में सही से अवस्थित करने की जरूरत है। यह एक जनवादी माँग है। बस! लेकिन पूँजीवादी और उच्च मध्यम वर्गीय हलकों में इसे जिस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, वह उनके अपने वर्गीय हितों और सोच के तहत होता है। मजदूर वर्ग के लिए यह जीवन-मरण का मसला नहीं है और न ही वह इस मसले को निजी सम्पत्ति और परिवार के इतिहास से काट कर देखता है। वह इस मसले को भी आज के संकटग्रस्त और मरणासन्न पूँजीवाद की सामान्य गति से जोड़कर देखता है।
(Questions Homosexuality and LGBT NS)

साभार: नागरिक 16-19 फरवरी, 2016
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