कविताएँ: पूरन जोशी

Puran Joshi Poems
एक

एक औरत
चल रही है अपने खो गए
अस्तित्व की खोज में
रात का घना अँधेरा है
अँधेरे से ज्यादा दुनिया का डर है
वो सोचती हैये रात यूँ ही रहे
सुबह कभी न हो
सुबह हुई तो
मढ़ दिए जायेंगे
कई आरोप-प्रत्यारोप
उसके दामन पर
लेकिन सुबह को तो आना ही है
और अभी पैदा होनी बाकी
हैं कई सीताएँ और कई सारी अहल्यायें
(Puran Joshi Poems)

दो

एक औरत
जेठ की दहकती दोपहरी में
सड़क पर डामर डाल रही है
या इस नपुंसक समाज के मुंह
पर कालिख पोत रही है
या लिख रही है
इबारत सम्पूर्ण स्त्री जाति की
जीवटता और जिजीविषा की
(Puran Joshi Poems)

तीन

एक औरत
सड़क के किनारे
सूखे स्तनों को निचोड़कर
अपने बच्चे को
दूध पिला रही है
मानो पूरी दुनिया का
पालन-पोषण कर रही है
क्योंकि अब उसने छोड़ दिया है
अपनी आंखें निचोड़ना
(Puran Joshi Poems)

चार

एक औरत
लम्बे-लम्बे डग भरकर
जा रही है स्कूल में पढ़ाने
अस्पताल में काम करने
बैंक में सेवाएँ देने
कि जैसे
औरत एक ही है
रूप बदल रही है
मानो नाप लेगी
इन डगों से सारी दुनिया को
ऐ औरत
तुम गिनती जाओ डगों को
अभी तो कुछ ही डग चली हो
नापे जाने के लिए
अभी पूरी दुनिया बाकी है।
(Puran Joshi Poems)

पाँच
अकेली औरत

बुद्घ सच में आये थे क्या उस दिन
जब यशोधरा बच्चे को सम्भाले हुए
उनसे पूछती है किस अधिकार से
आप बिना बताये निकल गये थे घर से
घर की सब जिम्मेदारी छोड़ कर
मैं अन्मयस्क थी कई दिन तक
सत्य और ज्ञान को खोजने
निकले थे न आप
और सत्य की खोज ऐसे ही होती है
ऐसा लोगों को कहते सुना मैंने
सत्य की खोज और नींव धोखे की
हाहा हाहा हाहा
मैं समझ नहीं पाई
बहुत साधारण हूँ न मैं
औरतें साधारण ही हुआ करती हैं
असाधारण तो पुरुष होते हैं
लेकिन फिर भी ये साधारण औरतें
रच देती हैं असाधारण इतिहास
क्योंकि जब जब बुद्घ को लोग
याद करके लिखेंगे उनका
गौरवमयी इतिहास
तब – तब ये भी लिखा जायेगा कि
यशोधरा जो राहुल की माँ थी
बुद्घ की अधूरी पत्नी
राजा शुद्घोधन की पुत्रवधु थी वो
और सबसे बड़ी बात
एक अकेली औरत थी वो।
(Puran Joshi Poems)

छह

औरतें औरतें दे रही हैं अपने बारीक हाथों से
देहरियों पर ऐपण,
औरतें चित्रित कर रही हैं
अपनी पूरी कोमलता से
किनारों पर नाजुक फूल और बेलबूटे
औरतें उकेर रही हैं लक्ष्मी के सुंदर पगों को
घर के आंगन से भीतर की ओर
और ये औरतें ही हैं जो बनीं हुई हैं
संस्ति की अग्रदूत
युगों युगों से
औरतों का इस तरह से
उकेरना लक्ष्मी के पैरों को
बाहर से भीतर की ओर
दर्शाता है उनका बाहर से घर के भीतर जाना
फिर कभी न निकलना
उस चौहद्दी से बाहर
और लोप हो जाना, मर -खप जाना,
सुहागन ही मरने की कामना लेकर
रोज ही मर-मर कर जीना
लेकिन अब ऐ औरतो त्याग कर दो
ऐसी संस्तियों का
छोड़ दो इन देहरियों को
बाहर निकलो
और रंग दो समूची धरती को
अपनी जीवटता और जिजीविषा सेद्य
(Puran Joshi Poems)

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