नशाखोरी के विरुद्ध जनता की एकजुटता का सही वक्त

विनोद पाण्डे

उत्तराखण्ड में शराब की समस्या के विरुद्घ लगातार कहीं न कहीं आंदोलन होते ही रहते हैं। एक ऐतिहासिक आंदोलन 1984 में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन के नाम से लड़ा गया था। बाद के वर्षों में यह आंदोलन उत्तराखण्ड महिला मंच द्वारा ही संचालित किये गये हैं, पर सरकार व माफिया गठजोड़ के कारण आंदोलन निर्णायक स्तर पर नहीं पहुंच सके हैं। जिससे इस समस्या से किसी भी रूप में निजात नहीं मिली। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन से जहां लोगों को विभिन्न प्रकार की अपेक्षाऐं थीं, महिलाओं की एक प्रमुख अपेक्षा शराबबंदी को लेकर भी थी। पर अफसोस है कि उत्तराखण्ड में जो भी सरकारें आयीं, नशाखोरी को बढ़ावा ही दिया। विधान सभा में आज कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो शराबबंदी की बात करता है। हालांकि कई छोटे-छोटे दल जो आंदोलनों से निकले हैं पर विधानसभा में पहुंचने में सफल नहीं हुए हैं, के ऐजेंडे में शराबबंदी रहती है। उत्तराखण्ड में नशाबंदी आंदोलन को निहित स्वार्थी तत्वों जिनमें सरकार भी है, ने इतना दुत्कारा है कि आज यह आंदोलन थका हुआ सा लगता है। इसलिए बिहार सरकार ने 1 अप्रैल 2016 से नशाबंदी के विरूद्घ जो  प्रयास किया है, क्या उससे उत्तराखण्ड के इस आंदोलन को कोई दिशा मिलेगी, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है।

बिहारनशाबंदी पर बड़ी पहल

बिहार, तमिलनाडु व केरल में राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार अपने घोषणापत्रों में शराबबंदी की बात की और फिर शराबबंदी को लागू किया, उससे जहां इन सरकारों की प्रशंसा हो रही है, वहीं कई लोग व राजनीतिक विरोधी उनका उपहास करने से बाज नहीं आ रहे हैं। शराबबंदी पर सबसे बड़ी पहल बिहार की नितीश सरकार ने की है, इसलिए उसका विश्लेषण जरूरी है। यह भी महत्वपूर्ण है कि जब देश में धार्मिक उन्माद, देश भक्ति-देश द्रोह व गोरक्षा के नारों पर बिहार में भाजपा उतरी तो नितीश कुमार ने नशाबंदी को मुख्य मुद्दा बनाया था।

बिहार के इस नये कानून के प्रमुख प्रावधानों में शराब व अल्कोहल के किसी भी रूप को मादक द्रव्य माना गया है। इसमें भांग व गांजे को भी शामिल किया गया है। यदि कोई व्यक्ति इस बिहार नशाबंदी व आबकारी कानून 2016 का उल्लंघन करता है, तो कोई भी संबधित अधिकारी जिनमें जिलाधिकारी, आबकारी अधिकारी व पुलिस अधिकारी शामिल हैं, बिना वारंट के उसकी गिरफ्तारी कर सकते हैं। यदि किसी के घर में शराब पायी गयी तो पूरा परिवार इसके लिए दोषी माना जायेगा, जब तक अन्यथा सिद्घ न हो जाय। साथ ही यदि किसी के मकान में किरायेदार के पास शराब पायी गयी तो मकान मालिक को भी दोषी ठहराया जा सकता है। इसके अपराध के रूप में 10 वर्ष की सजा से लेकर आजीवन कारावास की सजा व शराब पीकर किसी की मृत्यु होने पर शराब बेचने वाले को मृत्यदंड तक की सजा है। साथ ही परिस्थितियों के अनुसार 1 से 10 लाख रुपया  तक जुर्माना हो सकता है। जिस मकान या संपत्ति में शराब पायी गयी तो उसे जब्त किया जा सकता है। यदि  प्रतिबंध के विरुद्घ किसी समूह की संलिप्तता पायी गयी तो सामूहिक जुर्माना तक किया जा सकता है। निसंदेह यह कानून बहुत कठोर है।

राजनीतिक विरोध

इस कानून का विरोध उसी दिन से शुरू हो गया था जिस दिन से यह कानून विधान सभा में पेश हुआ। आश्चर्यजनक रूप से बिहार के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि वे शराबबंदी तो चाहते हैं पर जिस तरह का कानून लाया गया है, उससे वह सहमत नहीं है। समाज व राजनीति में शुचिता का बखान करने वाली भाजपा का नशाबंदी को लेकर कोई भी स्पष्ट रुख न पहले था न अब कहीं दिखता है। इसलिए उसका यह विरोध केवल राजनीतिक ही लगता है। भाजपा सहित अन्य विपक्षी दल दरअसल इसका विरोध ही नहीं बल्कि उपहास कर रहे हंै। इसके खिलाफ यह दलील दी जा रही कि है कि एक क्षेत्रीय दल अपनी राजनीति चमकाने के लिए शराबबंदी जैसे अव्यवहारिक कदम उठा रहा है। इनका यह भी कहना है कि यह एक कठोर कानून है, जो भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करता है। इसमें सम्बन्धित अधिकारियों को असीमित अधिकार दिये गये हैं, जिनका दुरूपयोग हो सकता है और मौलिक अधिकारों का हनन हो सकता है। इसके अंतर्गत जो दण्ड प्रस्तावित हैं वे अत्यधिक हैं। ताड़ी जो  शराब का ही एक रूप है उसे इसके दायरे से बाहर किया गया है आदि। उनका कहना यह भी है कि इस शराबबंदी के बाद राजस्व में कमी आयेगी, शराब माफिया बढे़गा, निकटवर्ती राज्यों से शराब अवैध रूप से आयेगी और लोग शराब पीने राज्य से बाहर जायेंगे। इस कारण जब विधान सभा में यह विधेयक पास हो रहा था तो भाजपा ने सदन से वाकआउट किया।
(Right time for public solidarity against drug abuse)

शराबबंदी की पिछली असफलताएँ

बेशक हमारे देश में नशा एक गंभीर सामाजिक समस्या होने के बाबजूद भी इसके विरूद्घ सरकारों का रुख अस्पष्ट रहा है। इसी कारण जब भी किसी प्रदेश में शराबबंदी लागू की गई तो उससे भ्रष्टाचार बढ़ा और यह साबित करने का प्रयास हुआ कि शराबबंदी बुरी तरह असफल रही है। अमेरिका में भी सन् 1920-1933 के दौरान शराबबंदी लागू की गई जिसे शराब समर्थक लॉबी के कारण ठीक से लागू नहीं किया जा सका। यह भी महत्वपूर्ण है कि यह दौर विश्व की महामंदी का था। दरअसल शराब के विरुद्घ कानूनों में कई कमियां रह जाती हैं और इसके व्यापारी इन कमियों की आड़ में इन आंदोलनों को अव्यावहारिक करार देने में सफल हो जाते हैं। इसीलिए अमेरिकी लेखक लिजा मैकगियर तो यहां तक मानती हैं जब शराबबंदी लागू की जाती है तो संपन्न लोग मेडिकल के नाम पर या अन्य तरीकों से शराब पा लेते हैं और गरीब लोग ही इसके उत्पीड़न का शिकार होते हैं और अंतत: ऐसे कानून गरीब विरोधी ही साबित होते हैं। पूरे देश में जब 1977 में शराबबंदी की गई तो शराब के कई विकल्प बाजार में आ गये। जिनमें डाबर जैसी दवा बनाने वाली कंपनी के मृत संजीवनी सुरा जैसे उत्पाद भी थे। खुलेआम सुरा की दुकानें खुलीं। आयुर्वेदिक उत्पाद होने के कारण उनकी बिक्री के  लिए परमिट की जरूरत भी नहीं होती थी। यह सब सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण हुआ। बिहार सरकार ने इस कानून में शराब व उसके वैकल्पिक रूपों को शामिल कर एक महत्वपूर्ण खामी को दूर किया है।

प्रश्न यह उठता है कि जब हमारे संविधान के अनुच्छेद 47 में नीति निर्देशक सिद्घांतों में तक नशाबंदी लागू करने का प्रावधान किया गया है तो महज कुछ समाजविरोधियों के इरादों के कारण इस बुराई के उन्मूलन से क्यों पीछे हटा जाय? यह एक कटु सत्य है कि भारत में कानून की अवहेलना करना आसान होता है। पुलिस-प्रशासन-राजनीति आमतौर पर भ्रष्टाचार व अपराधों को कम करने के बजाय अपराधियों को प्रश्रय देते हुए पाये जाते हैं। जिस कारण जनहित में बनाये गये कानूनों को असफल करने के प्रयास होते हैं और जनविरोधी कानून सफल हो जाते हैं।

राजनीतिक दृढ़ इच्छा शक्ति

बिहार में इस बार कम से कम इस समय तो यही लगता है कि सरकार ने प्रबल इच्छा शक्ति दिखायी है। शराबबंदी कानून में संबधित अधिकारियों को जहां अधिकार दिये हैं वहीं उनकी जिम्मेदारी भी तय की है। नशे के अन्य विकल्पों को भी इसकी सीमा में शामिल किया है। इस सख्ती के कारण एक बार तो कई थानाध्यक्षों ने पद से हटने की इच्छा तक व्यक्त की। यदि हम अवैध शराब या अन्य अवैध कामों को देखें तो पायेगें कि अवैध कामों के लिए गुंडों, पुलिस, स्थानीय प्रशासन और राजनीतिक संरक्षण की जरूरत होती है। ये एक पूरा जाल है, जो  ऐसा तंत्र बना लेता है जिससे कोई भी ताकत उसके काम में रुकावट डाल ही नहीं सकती। इस पूरे मकड़जाल में सबसे जरूरी है राजनीतिक संरक्षण। इस कुत्सित तंत्र को केवल स्वच्छ राजनीति ही तोड़ सकती है। इसलिए शराबबंदी के लिए प्रबल व ईमानदार राजनीतिक इच्छा शक्ति सबसे जरूरी है। यदि सरकार की इच्छा शक्ति प्रबल हो तो कानूनों को लागू किया जा सकता है। अभी तक बिहार में राजनीतिक दृढ़ता तो दिखती ही है।

नितीश के विरोधी इस कानून में प्रमुख रूप से घर में शराब पाये जाने पर पूरे परिवार को दोषी ठहराये जाने का विरोध कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह प्रावधान कठोर है पर यदि इस प्रावधान को तटस्थ रूप से देखा जाय तो इसका उद्देश्य प्रतीत होता है कि आपके घर या किरायेदार के पास शराब हो तो आप उसे हतोत्साहित करें, अन्यथा आपकी भी जिम्मेदारी होगी। इसे एक सामाजिक जिम्मेदारी का भाग माना गया है। ‘शराब या उसके विकल्पों’ को कानून की हद में लाकर पुरानी शराबबंदी कानूनों की कमियों को दूर करने का प्रयास भी किया गया है। इसलिए बिहार सरकार ने गंभीरता तो प्रदर्शित की है।

शराब: एक सामाजिक बुराई

शराब हमारे समाज की पहली क्षति आर्थिक रूप में करती है। परिवार के वाजिब कामों में लगने वाला पैसा शराब में बर्बाद होता है जिससे कि परिवारों का पतन होता है। इसके अतिरिक्त यह शारीरिक क्षति करती है। इससे शरीर में बीमारियां पैदा होती हैं। तीसरी क्षति सामाजिक है, सभी प्रकार के अपराध व समाज में महिलाओं के प्रति अत्याचार व अपराध को बढ़ाने में शराब की प्रमुख भूमिका है। मेरे एक वकील मित्र ने एक बार कहा था कि यदि शराब प्रभावी रूप से बंद हो जाय तो भारतीय दंड संहिता की कई धाराएँ लुप्त हो जायेंगी। चौथी क्षति राजनीतिक है, शराब के व्यापार से होने वाली आय राजनीतिक दलों की गतिविधियों का प्रमुख आधार है। हमारी आज की मुख्यधारा की राजनीति में पैसा गलत कामों, खरीद फरोख्त, प्रचार दुष्प्रचार, मारपीट व हत्याओं में तक प्रयोग होता है। जिसका प्रमुख स्रोत शराब का धंधा भी है। जिसका सीधा परिणाम यह होता है कि एक साफ सुधरा दल व व्यक्ति चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता, जीतना तो दूर। इसलिए शराब को एक सामाजिक बुराई के रूप में ही देखना होगा। सामाजिक बुराई के लिए कठोर कदम उठाने न्यायसंगत हैं।
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उत्तराखण्ड : नशा एक षड्यंत्र है

शराब को लेकर उत्तराखण्ड की सरकारों की भूमिका निंदनीय रही है। उन्होंनें शराब की बिक्री को बढ़ाने का ही प्रयास किया। पिछली कई सरकारों ने शराब की दुकानों के विरोध से निबटने के लिए अजीब तरीका अपनाया। यदि किसी गांव में लोगों ने शराब की दुकान का विरोध किया तो सरकार ने  वहां पर शराब की बिक्री के लिए मोबाइल वैन की अनुमति दे दी, यानी चलती फिरती कार से शराब की बिक्री। इससे शराब के ठेकेदार दूर दूर तक शराब बेचने में कामयाब हो गये, यानी जनता जो चाहती थी उसका करारा जवाब। वर्तमान सरकार ने कुछ खास शराब कंपनियों को ही आपूर्ति की अनुमति देकर प्रदेश में घटिया शराबों को बढ़ावा दे दिया है, मंतव्य साफ है- शराब से अवैध कमाई। ये उदाहरण सरकारों की बदनीयती और बेईमानी के साथ जन विरोधी चरित्र को ही प्रदर्शित करती हैं। यानी सरकारें इस धंधे में पूरी तरह लिप्त हैं।

उत्तराखण्ड में हमारे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों जिसमें भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा और यहां तक यूकेडी तक शामिल हैं, ने कभी भी शराबबंदी के प्रति कोई भी गंभीरता नहीं दिखाई है। अपनी कार्यप्रणाली के कारण ये दल ऐसी प्रबल राजनीतिक इच्छा शक्ति रख ही नहीं सकते क्योंकि चुनावी खर्च के लिए ये दल माफियाओं पर ही निर्भर रहते हैं। ऐसी इच्छा शक्ति एक नेता के बस की है भी नहीं है। जब तक पूरे दल की विचारधारा शराबबंदी के विरुद्घ नहीं होगी, तब तक वह दल सच्चे रूप में शराबबंदी के पक्ष में नहीं हो सकता है।

उत्तराखण्ड की सरकारों की नीतियों से प्रदेश में शराब का प्रचलन बहुत बढ़ रहा है व शराब एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या बन चुकी है। साथ ही यहां पर अवैध कामों का सिलसिला भी लगातार बढ़ रहा है। यहां के अवैध कामों में शराब और खनन के धंधे प्रमुख हैं, अब इसमें जमीन की खरीद फरोख्त का धंधा भी शामिल हो रहा है। इनमें बहुत हद तक योगदान जंगलों से चोरी का भी है। कुछ माफिया तो अपने अखबार व न्यूज चैनल निकाल कर खुद को राजनीतिक रूप से मजबूत बना रहे हैं। यह रोचक बात है कि ये सभी माफिया अब आपस में व राजनीति से भी जुडे़ हैं। अधिकांश राजनीतिक लोग भी किसी न किसी रूप में इन सभी धंधों में शामिल हैं। यह स्थिति किसी भी समाज की विकृति की पराकाष्ठा है। जब तक इन अपवित्र गठबंधनों को जनता के सामने बेनकाब नहीं किया जायेगा, इससे निजात नहीं मिलेगी। भले ही अल्पकालिक रूप में ये राजनीतिक लोग अपने हित साध लें, लेकिन इससे जो सामाजिक, शारीरिक व राजनीतिक क्षति पहुंच रही है, जितनी देर होगी, उससे निबटने में उतना ही अधिक

समय और परिश्रम लगेगा। 

उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने 1984 में नशाबंदी आंदोलन नशा एक षड्यंत्र है नारे के साथ लड़ा था। भारत जैसे गरीब और भ्रष्ट राजनीति के शिकार देश के लिए नशाबंदी के परिप्रेक्ष्य में यह एक पूर्ण संदेश है। यहाँ पर नशे का कारोबार न केवल एक धंधा है बल्कि तमाम अवैध कार्यों, महिला अत्याचार, भ्रष्टाचार, राजनीतिक कार्यों व तमाम तरह की माफिया गतिविधियों को चलाने के साथ ही समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों को कमजोर करने, उन पर अत्याचार करने के लिए उपयोग किया जाता है। कुल मिलाकर  एक भ्रष्ट तंत्र को बनाये रखने के महत्वपूर्ण औजार के रूप में नशे का उपयोग किया जा रहा है।
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मीडिया की गैरजिम्मेदाराना भूमिका

इस समय देश में नशाबंदी को लेकर बिहार सरकार ने जो एक नयी दिशा दिखायी है उसके प्रति मुख्यधारा  मीडिया की भूमिका नकारात्मक है, इसलिए मीडिया की यह भूमिका संदेहों के घेरे में है। वास्तव में यह संदर्भ ही मीडिया विमर्श से नदारद है। जब कभी भी मीडिया में नशाबंदी का जिक्र होता है तो बिहार के कानून की कमियां या पिछली असफलताओं को गिनाकर इस नशाबंदी अभियान के विरुद्घ एक माहौल बनाया जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंम्भ भी कहते हैं। इसलिए मीडिया का काम जनता के हितों की पैरोकारी व जनता को शिक्षित करने का भी है। इसके बजाय इस पूरे प्रकरण की उपेक्षा करना या इसके प्रति नकारात्मक रुख अपनाना, स्पष्ट रूप से मीडिया की गैरजिम्मेदारी, व्यवसायीकरण व राजनीतिकरण को ही सिद्घ करते हैं। जो एक स्वस्थ परंपरा नहीं है। बल्कि भविष्य के लिए अशुभ संकेत देती है।

चुनाव को हथियार बनायें!

शराबबंदी के लिए कानूनी उपाय एक पक्ष है, कानूनों का पालन कराना दूसरा व महत्वपूर्ण पक्ष है। हमारे देश में कानून तो खूब बनते हैं पर कानूनों के पालन की स्थिति बहुत ही खराब है। कानूनों को ढीला व बेअसर बनाने में पुलिस-राजनीति-नौकरशाही यहां तक कि न्यायप्रणाली तक की भूमिका होती है।

यदि सामाजिक कुरीतियों को हटाने के लिए मात्र नियम कानूनों पर निर्भर रहा जायेगा तो वांछित परिणाम नहीं आयेगें। इसके लिए जरूरी है जन दबाब। नशे के शिकार और नशे के प्रति आकर्षित होने वाले लोगों के लिए एक कार्यक्रम पर भी विचार होना चाहिये। जिससे कि वे इस बुराई के प्रति समझ पैदा कर सकें। यह एक लंबा कार्यक्रम होगा। हमें समझना होगा कि जब सामाजिक बुराई को मात्र कानूनों से समाप्त नहीं किया जा सकता है, इसके विरुद्घ जन अभियान होगें व जन शिक्षण अभियान तैयार करने होंगें।

इसलिए जनपक्षीय संगठनों को इस मुद्दे पर एकजुटता दिखाकर बिहार की नशाबंदी का समर्थन कर देश में नशाबंदी के पक्ष में एक माहौल बनाना चाहिये ताकि कानून के प्रति जिम्मेदार अधिकारी अपनी भूमिका ठीक प्रकार निभायें। इस संबध में राजनीतिक दृष्टि से विरोध करने वालों की तो निंदा होनी ही चाहिये। मीडिया की भूमिका की भी चर्चा होनी चाहिये। साथ ही जबकि उत्तराखण्ड में चुनाव नजदीक हैं, प्रमुख दल परंपरागत रूप से घटिया जोड़तोड़, जातीय समीकरण, चंदा इकट्ठा करने में जुटे होगें। क्यों न जन संगठन इस नशे के षड्यंत्र के तंत्र से इनकी मिलीभगत को बेनकाब करें? जिससे चुनावों में शराबबंदी एक प्रमुख मुद्दा बन जाय, ताकि जनता चुनाव में उचित निर्णय ले सके। इस सामाजिक कुरीति व इसे संरक्षण देने वालों की राजनीतिक शक्ति खत्म  हो और शराबबंदी के पक्ष में खड़े होने वालों को मजबूती मिले। हमें यह समझना होगा कि नशाबंदी आसान नहीं है, पर जरूरी है। इसलिए इसके लिए प्रयासरत रहना ही होगा।
संदर्भ- बिहार नशाबन्दी
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