सार्वजनिक शिक्षा का संकट और भोजनमाताएँ

भास्कर उप्रेती

ज के सरकारी स्कूलों में भोजनमाताएँ केन्द्रीय भूमिका में हैं। भोजनमाता सभी बच्चों को साफ, स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन देती है। शिक्षक की तरह ही वह पूरे समय स्कूल के क्रियाकलापों में शामिल रहती हैं। राष्ट्रव्यापी योजना होने और भोजन की गुणवत्ता की समय-समय पर जाँच होने की वजह से यह एक संवेदनशील मसला भी है। वैसे स्कूल का मुख्य मकसद भोजन की बजाय पढ़ाई होता है लेकिन यह तब मुमकिन है जब स्कूल में बच्चे हों। स्कूल में बच्चे कैसे आयें और आयें तो स्कूल में बने भी रहें इसके लिए सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘मिड डे मील’ की व्यवस्था की है। ऐसा माना जा रहा है कि इस योजना से सरकारी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है। खासकर वंचित तबके के कई बच्चे पहली बार स्कूल पहुँच रहे हैं।

स्कूलों में भोजन परोसने की काफी आलोचना भी हुई है। कुछ लोगों का कहना है कि सरकारी स्कूल भोजनालय बनकर रह गए हैं। भोजन ने शिक्षकों को व्यवस्थापक बनाकर रख दिया है और शिक्षा की बजाय भोजन सबसे बड़ा काम हो गया है। कुछ दूसरे किस्म के आलोचक भी हैं, जिनकी शिकायत है कि इस योजना ने एक झटके में सामाजिक संरचना को चुनौती दे डाली है। स्कूल में सभी धर्मों और जातियों के बच्चे एक साथ भोजन करेंगे, कई बार भोजन माता भी गैर-सवर्ण होगी या अल्पसंख्यक समुदाय की होगी। इस फैसले से कई नुकसान हुए हैं। तकरीबन सभी सामान्य जातियों के लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से बाहर निकाल लिया है। आज सरकारी स्कूल का मतलब है अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक वर्ग और पिछड़ा और जनजाति वर्ग का एक थोड़ा हिस्सा, इन जातियों के वे बच्चे जो किसी भी प्रकार के प्राइवेट स्कूल की फीस नहीं दे सकते। शिक्षा पर राय रखने वाले कुछ लोग इसे ‘हिस्टोरिकल मार्जिनलाइज़ेशन’ कहते हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि सरकारी स्कूल साफ तौर पर ‘गरीबों के स्कूल’ की संज्ञा से जाने जा रहे हैं। ऐसा स्कूल जिसके अध्यापक, गाँव का सभापति या कोई भी थोड़ा सा हैसियत वाला व्यक्ति वहाँ अपने बच्चों को नहीं पढ़ाता। ऐसे में निश्चित ही चिंता बनती है कि आखिर ‘गरीबों के बच्चों की शिक्षा कैसी हो?’ सरकार के मन में ‘गैर-गरीबों’ और ‘गरीबों’ के लिए दोहरा एजेंडा है?  
भोजन परोसने का विचार 

दरअसल 1991 में शुरू हुए व्यापक आर्थिक सुधार कार्यक्रमों और वित्तीय उदारवाद के साथ ही भारत में सभी किस्म की सार्वजनिक सेवाओं के समक्ष गंभीर चुनौती पेश आने लगी। शिक्षा, स्वास्थ्य या परिवहन जैसी सेवाओं में निजीकरण को बढ़ावा दिया गया। कई दशकों से चले आ रहे साक्षरता अभियानों के कारण गरीब वर्ग का बड़ा तबका अपनी नई पीढ़ियों को स्कूल भेजने के लिए राजी हो गया। उस वर्ग की चुनौती का सरकार को भी थोड़ा आभास था. जब सरकार एक बड़ी सुविधा छीनना चाह रही हो तो दूसरी छोटी सुविधा का प्रस्ताव करती है। उदारीकरण की योजना के तहत कई निर्मम सुधार-कार्यक्रम (जो मुख्य रूप से सरकार का अपनी जिम्मेदारियों से कदम पीछे बढ़ाने और बाजार के लिए मार्ग सुगम करने का ही मामला था). ऐसे में ऐसा कुछ करना था जो सरकार का ‘मानवीय चेहरा’ प्रदर्शित करे। आत्महत्या करने को विवश किसानों के लिए ‘नरेगा’ की शुरुआत हुई, प्रसव-पीड़ा से प्राण त्याग देने वाली महिलाओं के लिए ‘एऩएच़आऱएम़’ तो भूख से जूझ रहे नौनिहालों के लिए ‘मिड डे मील’ योजना आई। समझा जा सकता है इतनी महत्वाकांक्षी योजनाओं के बरक्स पिछले एक-डेढ़ दशक में किस तरह प्राइवेट स्कूलों और अस्पतालों का जाल फैलता चला गया। पूरे देश में प्राइवेट बिल्डरों और भू-भक्षी प्रपर्टी डीलरों का राज आ गया। अब सरकार पूरी जिद पर अड़ी है कि वह संसद में ‘भू-अध्यादेश कानून’ पारित कराकर रहेगी।
(Public education crisis and bhojanmata)

सो 15 अगस्त 1995 को देश के कुछ चुनिंदा विकास खण्डों में ‘मिड डे मील’ नामक नवाचारी योजना शुरू की गयी। उद्देश्य था- बच्चों के पोषण में सुधार लाना, स्कूलों में नामांकन बढ़ाना, उपस्थिति में सुधार लाना। दरअसल इसी दौर में संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ जैसी प्रतिष्ठित संस्थाएं भी भारत में व्याप्त कुपोषण को हाईलाइट कर रही होती हैं। तो सरकार ने झमेला ही खत्म कर दिया। सरकारी स्कूलों में तथाकथित पौष्टिक खाना खिलाओ और दूसरी तरफ उसकी एक खास छवि गढ़ते हुए निजीकरण को बढ़ावा दो। शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर लगातार आलोचना का पात्र बन रही सरकार के लिए भूखे बच्चों का पेट भरना और शिक्षालय को भोजनालय बना देना अधिक मुफीद और पुण्यदायक था।

एक तरह से सरकार यह भी कह रही थी जिन लोगों के पास अपने बच्चों का पेट भरने लायक पैसा है वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजें। अंग्रेजी वाद, उपभोक्ता वाद और करियर वाद की चमक के दीवाने अभिभावकों के सामने ‘प्राइवेट स्कूल’ के बारे में भी थोड़े ही दिन में स्थिति स्पष्ट कर दी गयी। औपनिवेशिक काल में स्थापित हुए दून, शेरवुड या वुडस्टक जैसे स्कूल प्राइवेट नहीं थे। प्राइवेट का मतलब था समान सेवित क्षेत्र में खुला कोई निजी विद्यालय। उसके पास पर्याप्त संसाधन या प्रशिक्षित शिक्षक हों न हों यह अलग बात है। आगे ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ सरकार के दायित्वों के बारे में बने हुए धुंधलके को और स्पष्ट करता है। यानी पड़ोसी निजी स्कूल को सरकारी स्कूल से 25 प्रतिशत तक बच्चे दान देना। एक तरह की ‘ट्रिकल डाउन पालिसी’। ऐसे में साल दर साल बच्चे सरकारी स्कूल से रिसते रहेंगे और एक दिन बहुत सारे विद्यालयों से बच्चे पड़ोस के निजी स्कूलों में चले जाएंगे। सरकार अपने मंतव्य में साफ है, धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों को बंद कर देना है। और एक दिन ऐसा आएगा जब सरकारी सेक्टर नाम का होगा, शायद कुछ सरकारी मडल स्कूल होंगे और प्राइवेट सेक्टर शिक्षा बाजार के तीन चौथाई से अधिक पर काबिज होगा।

निजी सेक्टर को गरीबों का भार उठाते हुए नुकसान न हो इसका भी खयाल सरकार ने रक्खा है। यहाँ एडवांस बेलआउट है। अभी प्रति छात्र करीब 2000 रुपये निजी स्कूल में दाखिल बच्चे के लिए सरकार दे रही है। तो सरकार शिक्षा में निजीकरण के लिए देश भर में अरबों रुपये खर्च कर रही है। यह पूछना प्रासंगिक नहीं कि जो पैसा निजी क्षेत्र पर न्योछावर किया जा रहा है, उससे सार्वजनिक शिक्षा को भी तो दुरुस्त किया जा सकता था! आखिर पूँजीवाद का सरगना अमेरिका भी अपने यहाँ शिक्षा को सरकार के हाथों में ही रखने का हिमायती बना हुआ है। लगभग पूरा यूरोप भी शिक्षा को सरकार के हाथों में बनाये हुए है। और इन देशों में जनता की चेतना इस स्तर की है कि वे शिक्षा को निजी हाथों में जाता हुआ देख ही नहीं सकते। दूसरी तरफ गुलामी से लंबा संघर्ष कर आजाद हुए भारत में निजी शिक्षा की साझेदारी विश्व में सर्वाधिक 27 प्रतिशत (किसी-किसी राज्य में तो 50 फीसदी) से अधिक हो गयी है। सवाल उठ सकता है लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है या और पतित हो रहा है?
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सरकारी स्कूलों के खराब होने और वहाँ पढ़ाने वाले शिक्षकों के गैर-जिम्म्मेदार होने की शिकायत अक्सर की जाती है। मुख्यधारा के मीडिया ने पिछले करीब एक दशक से सरकारी शिक्षकों के खिलाफ धुंआधार मुहिम छेड़ रखी है। यह उदारीकरण और निजीकरण का जबर्दस्त भोंपू बनकर सामने आया है। मीडिया की यह मुहिम इसलिए नहीं है कि सरकारी स्कूल सुधरें और उनमें गुणवत्ता आये बल्कि इसलिए है कि उनका बंद होना ही उनके हित में है। यह कोर्पोरेट मीडिया का बुनियादी उसूल है कि जो भी संस्था उन्हें लाभ न दे सके उसके खिलाफ बिगुल फूंक दो। सरकारी स्कूल प्राइवेट स्कूलों की तरह विज्ञापन नहीं दे सकते जबकि दूसरी तरफ बहुसंस्करणीय राष्ट्रीय अखबारों के लिए निजी स्कूल से मिलने वाले विज्ञापन उनकी आय का बड़ा जरिया हैं। समाज का सरकारी स्कूल को देखने का नजरिया अचानक नहीं बदला है। क्या कारण है कि अब तक देश की प्रगति में योगदान देने वाले स्कूल अब एकदम ही नाकारा हो गए हैं। किसी ने सच कहा है एक झूठ को सौ-सौ बार दोहराएंगे तो वह सच लगने लगेगा़
कुछ बदलाव तो हुआ!

निश्चित ही विश्व बैंक से शिक्षा-संसाधनों को जुटाने के लिए मिले भारी ऋण, ‘स्कूल चलो अभियान’, ‘बस्ते का बोझ कम करो अभियान’, ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का व्यापक प्रसार हुआ दिखाई देता है। वहां अब पेयजल, शौंचालय, बिजली कनेक्शन, अधिक कक्ष दीखते हैं। बच्चों से अब फीस नहीं ली जाती और एस़सी,.ए एस़टी तथा बालिकाओं के लिए मुफ्त ड्रेस की सुविधा है। पाठ्य पुस्तकें भी मुफ्त में दी जा रही हैं। अचानक ही शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों को खास अहमियत मिली है। बच्चों के लिहाज से यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पिटाई नहीं की जा सकती और कक्षा-9 तक अनुत्तीर्ण नहीं किया जा सकता (हालाँकि ‘आदर्शवाद’ से प्रेरित एऩडी़ए सरकार इन दिनों वापस फेल करने की नीति की तरफ बढ़ती दीख रही है, जबकि फेल न करने के पीछे शिक्षाविदों का मंतव्य यह था कि बच्चे फेल होने के डर से स्कूल ही न छोड़ दें। ऐसा अनुभव किया गया था कि फेल होने से सीखने की संभावनाएं क्षीण होती जाती हैं )। स्कूलों में पुस्तकालयों का महत्व समझा जा रहा है। ‘विद्यालय प्रबंधन समिति’ को स्कूल के कार्यकलापों में भागीदारी के लिए वैधानिक जामा पहनाया गया है।  कहीं-कहीं तो शिक्षकों ने अपने प्रयास से प्रोजेक्टर, एल़ई़डी टी़वी़, पंखे, वाटर प्यूरीफायर, फर्नीचर आदि भी जुटा लिए हैं। लेकिन सरकार ने अपनी जिम्मेदारी को समझने में इतनी देर कर दी कि बड़ी संख्या में बच्चे निजी स्कूलों में चले गए। सरकार अपने मौजूदा रुख पर भी कायम रहेगी, इस पर भी पर्याप्त संदेह है, जैसा कि मौजूदा केंद्र सरकार शिक्षा बजट में भारी कटौती कर संकेत भी दे चुकी है। सरकार नई शिक्षा नीति लाने का भी ऐलान कर चुकी है, उसमें क्या बदलाव आएंगे यह भी बड़ा रहस्य है।

सरकारी विद्यालयों में सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के माध्यम से जो भी सुविधाएँ आज आ रही हैं उसका दारोमदार केंद्र सरकार की उदारता या कठोरता पर निर्भर है। केद्र इन योजनाओं का 75 प्रतिशत जबकि राज्य 25 प्रतिशत वहन करते हैं।  केंद्र की ओर से थोड़ी सी कटौती भी राज्यों पर भारी पड़ती है (सर्व शिक्षा अभियान के तहत रखे गए शिक्षकों को अपने वेतन के लिए धरना-प्रदर्शन करना पड़ता है)। इन दो परियोजनाओं के बावजूद भी केन्द्रीय बजट में शिक्षा मद को मौजूदा समय में दो प्रतिशत से कम राशि मिल रही है (जरूरत कम से कम छह प्रतिशत की है)। इतने बड़े महादेश में शिक्षक-प्रशिक्षण जैसे भारी महत्व के विषय के लिए मात्र 600 करोड़ मिल रहे हैं। डाईट जैसी संस्थाएँ बुरी तरह लड़खड़ा रही हैं। हालाँकि इस बीच देश भर में चिंतनशील शिक्षकों, शिक्षाविदों, शिक्षा के काम में लगी संस्थाओं आदि के दवाब में ‘राष्ट्रीय पुनश्चर्या पाठ्यक्रम 2005’ जैसा क्रांतिकारी कदम भी सामने आया है। सार्वजनिक शिक्षा घनघोर संकटों से भले घिरी है लेकिन उसमें उम्मीद की जंग भी कायम है।      
मिड डे मील योजना

‘मिड डे मील योजना’ 15 अगस्त 1995 को शुरू की गयी। वर्तमान में कक्षा एक से कक्षा आठ तक के सभी बच्चे इस योजना से आच्छादित हैं। योजना को 2007-08 में देश के सभी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में लागू कर दिया गया। बाद में इसके तहत उच्च प्राथमिक विद्यालयों और इंटर कलेज में पढ़ने वाले कक्षा-8 तक के सभी बच्चों को ले लिया गया है।  केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक इस समय करीब 9 करोड़ बच्चे प्राथमिक विद्यालयों और 4 करोड़ बच्चे उच्च प्राथमिक विद्यालयों में इस योजना का लाभ ले रहे हैं।  कुल 13 करोड़ बच्चे। ऐसे करीब 12 लाख स्कूलों में भोजन बनाने के लिए करीब 25 लाख भोजनमाताओं (कहीं-कहीं भोजनपिता भी रखे गए हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है) को काम पर रखा गया है। इसके अतिरिक्त  करीब डेढ़ करोड़ बच्चों को ‘अक्षय पात्र’ संस्था द्वारा भोजन उपलब्ध कराया जाता है। ‘मिड डे मील’ योजना का उद्घेश्य है बच्चों के पोषण में सुधार लाना, स्कूलों में नामांकन बढ़ाना, स्कूलों में उपस्थिति में सुधार लाना। स्कूल में पढ़ रहे किसी बच्चे की मां या बी़पी़एल। परिवार की सदस्या को भोजन माता के रूप में काम मिलता है।
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भोजनमाताओं की भूमिकाएं और समस्याएँ

जब मान लिया गया है कि बच्चों को पढ़ाने के लिए पहले उनको स्कूल लाना और फिर उन्हें वहाँ बनाये रखना जरूरी है और यह तब संभव है जब बच्चों के पेट खाली न हों, तब भोजन माताएँ शिक्षक से अधिक अहमियत वाली हो जाती हैं। आज सरकारी स्कूल एक-एक बच्चे के लिए मोहताज हैं, ऐसे में एक-एक बच्चे की संतुष्टि मायने रखती है। स्वास्थ्य विज्ञान और बाल मनोविज्ञान की दृष्टि भी कहती है ‘भूखे पेट भजन न होय गोपाला’। सरकारी स्कूलों में आज जिस सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे हैं उनके अभिभावकों के साथ पेट भरने का संकट है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। ‘स्कूल चलो अभियान’, ‘र्लंिनग गारंटी केन्द्रों’ का एक बड़ा सबक यह था कि किसी तरह बच्चों का नाम स्कूल रजिस्टर में तो दर्ज हो जाता था, लेकिन बच्चे स्कूल आने की स्थिति में नहीं थे। उनकी स्कूल न आ पाने की स्थिति स्वाभाविक थी। वे या तो अभिभावकों के काम में हाथ बंटा रहे थे (घर में अपने से छोटे बच्चों की देखभाल हो, घर का चूल्हा-चौका हो या बाहर से छोटी-मोटी आय अर्जित करने का काम)। बच्चे भूखे स्कूल जायें और स्कूल से लौटने के बाद भी खाने का इंतजाम न हो, यह एक गंभीर विडंबना थी। जिसका उनके पढ़ने-लिखने की क्षमता पर असर पड़ रहा था। इस विडंबना को स्वीकार करने में आजाद भारत ने पूरे पांच दशक लगा दिए। सरकार ने शिक्षा प्रसार में ‘भूख की स्थिति’ को मान लिया तो यह चुनौती भोजन माताओं के जिम्मे आयी। सरकार की दूरगामी नीति जो भी ही फिलहाल तो पेट के लिए ही सही वंचित समुदाय के बच्चे सरकारी स्कूलों में पहुँच रहे हैं।

50 बच्चों तक एक, 51 पर दो, 101 पर तीन भोजन माताओं को रखने का प्रावधान है। भोजन माता बच्चों के लिए खाना बनाने से लेकर खिलाने और कहीं-कहीं बर्तन धोने तक का कठोर श्रम करती है। राशन ढोना और ईंधन की व्यवस्था करना भी उसके जिम्मे आता है. जहाँ एकल शिक्षक विद्यालय हैं और शिक्षक को विभागीय काम के लिए बाहर जाना पड़ता है, वहाँ उन्हें कई बार भोजन बनाने के अलावा बच्चों के प्रबंधन का भी स्वाभाविक जिम्मा रहता है। यदि भोजन माता पढ़ी-लिखी है तो उस पर अकादमिक कार्यकलापों का भी जिम्मा आ ही जाता है। उत्तराखण्ड जैसे राज्य में कई भोजनमाताओं के जिम्मे गाँव से बच्चों को स्कूल तक लाना और छोड़ना भी होता है, क्योंकि वन्य जीवों के हमले का खतरा लगातार बढ़ रहा है। 

लेकिन उनके काम के प्रति ईमानदारी और मेहनत का मूल्य सरकार के पैमाने में सिर्फ एक हजार रुपए है (उत्तराखण्ड में 1500)। यह राशि स्थायी अध्यापकों के प्रतिदिन के वेतन से भी कम है। यह तर्क हो सकता है कि शिक्षक मानसिक श्रम करता है लेकिन जब बच्चे स्कूल आएंगे और उनका मन लगेगा तब ही तो यह पढ़ाना संभव होगा। यदि बच्चे ही नहीं होंगे तो शिक्षक किसे पढ़ाएंगे और सरकार उन्हें तैनात ही क्यों करेगी।

शिक्षक संगठन अपनी मांगों (खासकर आर्थिक मांगों) को लेकर मुखर रहते हैं, लेकिन जिस भोजन माता की वजह से उनके स्कूल कायम हैं उनकी मांगों को लेकर कभी आवाज उठाते नहीं देखा गया है।  कई शिक्षक बिना सोचे-समझे ‘मिड डे मील’ योजना को बंद करने की वकालत करते जरूर देखे गए हैं। क्या यह ‘भूख की पीड़ा’ का अंतर नहीं? कुछ सालों पहले शिक्षा मित्रों को राजधानी देहरादून में लाठी खाते और सरकार के आगे गिड़गिड़ाते देखता था, आज उन मित्रों को सरकार ने स्थायी शिक्षक बना दिया है लेकिन तब क्या उनकी ‘भूख की पीड़ा’ भोजन माताओं के समान नहीं थी? 
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जिन शिक्षकों के अपने बच्चे अब सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते (जैसा कि अब लगभग किसी के नहीं पढ़ते) वे बिना पढ़ाये भले काम चला लें लेकिन भोजन माताओं को तो रोज ही भोजन बनाना पड़ता है। रोज सफाई के साथ, स्वाद का ध्यान रखते हुए और सभी के लिए पर्याप्त। लेकिन यदि भोजन कम या अधिक बन जाए, सफाई से न बने, स्वादिष्ट न बने तो शिक्षक उस पर बिगड़ते देर नहीं लगाते। इंटरवल की घंटी बजी नहीं कि बच्चे भोजन के लिए कतार लगा लेते हैं। वहाँ भोजन माता कोई बहाना नहीं कर सकती। यह नहीं कह सकती कि आज उसकी तबीयत खराब है। यह भी नहीं कि आज भोजन बनाने में थोड़ा देर हो गयी। सब कुछ ठीक होने पर भी उसे स्पष्टीकरण देने होते हैं। बच्चों का भोजन अच्छा है लेकिन शिक्षक के लिए चाय अच्छी न बनी तो भी वह कोपभाजन बन सकती है। यह बातें इसीलिए कह रहा हूँ कि भोजन माता की भूमिका को सबसे पहले शिक्षक को ही समझने की जरूरत है। भले उसके मानदेय की समस्या का निदान वह न कर सके लेकिन वह उसके काम को महत्वपूर्ण तो माने, जो कि निश्चित रूप से है, क्योंकि उसकी भूमिका पर स्कूल का अस्तित्व टिका है। सामान्य व्यवहार के अलावा कई बार भोजन माताओं को वित्तीय गड़बड़ी से भी दिक्कतें आतीं हैं। भोजन सामग्री की खरीदारी और रख रखाव शिक्षक का जिम्मा होता है। वह यदि सामग्री अच्छी न खरीदे और सस्ते में खराब सामग्री क्रय कर ले तो इसका असर भोजन की गुणवत्ता पर पड़ता है। वह खुद तो सातवें वेतनमान पर चर्चा करता है और यह नहीं समझता कि किसी की दो टके की नौकरी इस खरीदारी पर निर्भर है।  कम मानदेय की वजह से भोजन माता का काम शिक्षक के काम से कमतर नहीं। दोनों के काम एक दूसरे के पूरक हैं। बच्चे भूख मिटाने के लिए स्कूल आते हैं। इससे उनका स्कूल में बने रहने और मन लगने में योगदान होता है। शिक्षक ऐसी अनुकूल स्थिति में ही अकादमिक काम करने की स्थिति में आ पाते हैं।

सरकारी स्कूलों में कम मानदेय पर भोजन माताएँ इसलिए भी हैं क्योंकि इस कम मोल का काम महिला के लिए जितना वरेण्य है शायद पुरुषों के लिए नहीं। कई बार बेरोजगार पति पत्नी को भोजन माता का काम करने के लिए कहे लेकिन वह खुद परिवार की आय बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करता। ऐसे में वह घर और स्कूल दोहरी जिम्मेदारी के बोझ तले दब कर रह जाती है। फिर भोजन बनाना स्वाभाविक रूप से महिला के जिम्मे ही आता है। यह समाज और सरकार दोनों की दृष्टि से लैंगिक असमानता का मामला भी है। ऐसे में यदि महिलाएँ भोजन न बनाएं तो क्या होगा? साफ है बच्चे स्कूलों में नहीं आएंगे, ‘मिड डे मील’ योजना बंद हो जाएगी और स्कूल भी बंद हो जाएंगे। शिक्षकों, शिक्षा महकमे, स्कूल प्रबंध समिति और सार्वजनिक शिक्षा के हिमायती किसी भी व्यक्ति के लिए आज भोजन माता की संतुष्टि एक जरूरी मुद्दा नहीं होना चाहिए? मैं हर माह करीब 10 सरकारी स्कूलों का भ्रमण करता हूँ, लेकिन बच्चों के चेहरे में खुशी लाने के लिए जुटी पड़ी भोजन माताओं के मायूस चेहरे देखकर क्षोभ होता है़

भोजन माताओं को स्कूल की भौतिक स्थितियों से भी दो चार होना पड़ता है। स्कूल में राशन रखा होने से चूहे वहाँ आने लगते हैं। जो राशन चट कर जाते हैं। कई बार सीलन लगने से राशन में कीड़े पड़ने लगते हैं।  कई जगह शिक्षकों के प्रयास से अच्छी रसोईयाँ बनीं हैं लेकिन अमूमन उनकी हालत अच्छी नहीं है। वे बहुत छोटी होती हैं और उनके अंदर काम करने में भोजन माताओं का दम घुटता है। राशन रखने के लिए डब्बे नहीं होते, क्योंकि उसका कोई बजट नहीं होता। वह बोरियों में ही पड़ा रहता है।  कुछ जगहों पर अब कुकिंग गैस आ गयी है लेकिन बहुत सारे स्कूल ऐसे हैं जो अब भी लकड़ी पर ही भोजन बनाते हैं। पहाड़ के स्कूलों में गैस पहुँचाना भी एक बड़ी समस्या है जिस वजह से शिक्षक गैस की व्यवस्था करने से सकुचाते हैं।  कई जगह तो गैस है लेकिन खाना लकड़ी के चूल्हे पर ही बनता है, क्योंकि गैस भरवाना आसान काम नहीं है। 

उत्तराखण्ड राज्य में भोजनमाताओं को प्रतिमाह 1500 रुपये मानदेय मिलता है, जो अन्य राज्यों से 500 रुपये अधिक है। लेकिन यह मानदेय साल के 12 महीनों में से 10 माह का ही मिलता है। विद्यालयी शिक्षा विभाग के अनुसार, प्रदेश में 28646 कुक में से 28296 कुक भोजनमाताएँ हैं। इनमें अनुसूचित जाति 3512, अनुसूचित जनजाति 1333, अन्य पिछड़ा वर्ग 4961 और अल्पसंख्यक वर्ग से 731 भोजन माताएँ हैं। शेष भोजन माताएँ सवर्ण जातियों की हैं। भोजन माताओं को कम मानदेय के अलावा कई तरह की दूसरी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। जिन स्कूलों में भोजन माता अनुसूचित जाति की है वहां सवर्ण बच्चे उसके हाथ का बना खाने से इंकार कर देते हैं।  कई बार वह घर से टिफिन लाते हैं और अन्य बच्चों से अलग बैठकर भोजन करते हैं। यह भोजन माता को मानसिक उत्पीड़न की स्थिति में डालता है। भारी परिश्रम के बावजूद उनका मनोबल टूट जाता है।
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कुछ भोजन माताओं पर स्कूल में नामांकन कम होने पस हटा दिए जाने का खतरा मंडराता रहता है। यदि निर्धारित संख्या से कम बच्चे हुए तो एक भोजन माता की छुट्टी कर दी जाती है। भोजन की गुणवत्ता को लेकर छापे पड़ते रहते हैं, जिसमें अधिकारियों को अक्सर भोजन माता के प्रति असंवेदनशील देखा गया है। भोजन माताएँ सामान्य रूप से शिक्षक के काम के घंटे के बराबर ही स्कूल में रहती हैं, जिससे उनके पास आजीविका के लिए दूसरा काम करने का समय नहीं बचता। कई जगह जिलाधिकारियों के आदेश हैं कि बच्चों को भोजन परोसने से पहले भोजन माताएँ भोजन चखेंगी। ऐसे में वह लगातार मानसिक दवाब में रहती हैं। स्कूलों में होने वाली स्कूल प्रबंधन समिति की बैठकों के दिन भोजन माता का काम बढ़ जाता है। उन्हें बच्चों का भोजन बनाने के अलावा समिति के सदस्यों के लिए चाय-समोसे की व्यवस्था करनी पड़ती है। सामान्य रूप से स्कूल की सफाई की व्यवस्था का जिम्मा भी भोजन माताओं के ऊपर आ जाता है। इतनी अधिक मात्रा में भोजन बनाने और परोसने के बाद उतने ही बर्तन भी धोने पड़ते हैं। इस सब काम में भोजन माता की कमर टूट जाती है और यह निश्चित रूप से थैंकलेस जब है। भोजन माताएँ अपनी पीड़ा और आवाज बुलंद कर सकें, इसके लिए उनकी कोई सक्षम यूनियन भी नहीं है। भोजन माता संगठन, उत्तराखण्ड की प्रदेश अध्यक्ष उषा देवी कहती हैं, भोजन माताओं की स्कूलों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। हमारी माँग है कि सरकार को भोजन माताओं के काम का महत्व समझते हुए उनका मानदेय दोगुना करे। 10 माह की बजाय 12 माह का मानदेय देना चाहिए। भोजन माताएँ संतुष्ट नहीं होंगी तो सरकारी स्कूल बेहतर नहीं किये जा सकते। शिक्षा और विद्यालयों से देश का भविष्य बनता है, इस भविष्य में भोजन माता के वर्तमान की चिंता भी होनी चाहिए।

सरकार इस त्रासदी को कब समझेगी, समझेगी भी कि नहीं यह एक यक्ष प्रश्न है। समवर्ती सूची में शामिल शिक्षा के लिए राज्य और केन्द्र को सवाल पूछने में भी हमेशा दुविधा होती है। लेकिन वंचित तबके के चेतनशील वर्ग को, सार्वजनिक शिक्षा के पक्ष में सोचने वाले लोगों और संवेदनशील शिक्षकों को उनके इस काम का महत्व समझ आना ही चाहिए। आज सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बनाये और बचाए रखने में भोजन माता की केन्द्रीय भूमिका है। सरकारी स्कूल, सरकारी शिक्षकों और शिक्षा विभाग का वजूद उसके प्रदर्शन पर टिका है। जिम्मेदार मानवीय शिक्षा व्यवस्था और संविधान में उल्लिखित सबके लिए शिक्षा का सपना भी भोजन माता के चरणों में आकर पनाह पाता है। 
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