प्रतीक्षा : कहानी

क्षितिज शर्मा

क्षितिज शर्मा जन्म 15 मार्च 1950, ग्राम रिष्टना, मानिला, अल्मोड़ा। मृत्यु 30 मार्च 2016। कहानी संग्रह- ‘ताला बंद है’, ‘समय कम है’, ‘गोरख धंधा’, ‘उत्तरांचल की कहानियाँ’, उपन्यास- ‘उकाव’, ‘पगडंडियाँ’, ‘बाल उपन्यास’, ‘भवानी के गाँव का बाघ’, ‘पामू का घर’।  विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित।

उम्मीद-भरी प्रतीक्षा के बाद निराशा की जो अथाह थकान होती है, उसी को लेकर, टूटी डाल की मानिंद- थकी-माँदी काकी लौट गई थीं। उनका जाना निश्चित था। हम कोशिश करते, तब भी वे रुकने वाली नहीं थीं। किसी ने उन्हें रोकने की ज्यादा कोशिश की भी नहीं। मुझमें तो उन्हें रोक पाने की हिम्मत बिल्कुल नहीं रह गई थी। उनका अचानक आना और अल्पावधि में ही लौट जाना, मेरे मन में एक विषाद भर गया था। रजनी ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया। शायद उसके मन में रही हो कि वे हमारी संगी तो हैं नहीं, बेकार में अपने लिए परेशानी पैदा करने का क्या मतलब! सभ्यता और औपचारिकता वह निभाती रही थी।

जिस दिन वे गाँव से आई थीं, उसी दिन बच्चों के कहने के अंदाज से ही परायेपन की गन्ध आ रही थी। मैं घर पहुँचा ही था कि बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘पापा, गाँव से कोई आमा आई हैं।’’ मैं चौंका। माँ की मृत्यु के बाद पहली बार बच्चों ने आमा-आमा कहा था। एकाएक समझ में नहीं आया कौन हो सकता है। मौसी मेरी कोई है नहीं। बुआ लखनऊ रहती हैं। चाची-ताई में से कोई भी गाँव नहीं रहता।

अन्दर गया तो भौचक्का रह गया, भागुली काकी थीं! क्षण-भर को ठिठका-भागुली काकी यहाँ! स्वास्थ्य तो ठीक है इनका। इलाज-विलाज के चक्कर में ना आई हों। यहाँ आने का और क्या उद्देश्य हो सकता है? कोई सगा-सम्बन्धी उनका इस शहर में रहता हो, मुझे याद नहीं। जहाँ तक ध्यान जाता है, उन्होंने अपने किसी निजी सम्बन्धी के यहाँ, दिल्ली में होने का जिक्र भी नहीं किया। निजी कहने को उनके पास ज्यादा सम्बन्धी है भी नहीं। भाई उनके देहात में ही रहते हैं। अब शायद जिन्दा भी हों या परलोक सिधार गए हैं, मुझे जानकारी नहीं है। दोनों दामादों में से एक बरेली रहता है और दूसरा किच्छा में। शायद किसी शुगर मिल में काम करता है। बीमारी का कोई मामला होता तो निश्चित रूप से वे दामादों के पास ही जाती हैं। पर वे अचानक यहाँ, बिना किसी सूचना के?

इस समय अधिक सोचने का मौका नहीं था। मैं थोड़ा सँभला। मेरे संस्कारों ने मुझे उनके पैरों तक झुका दिया। आशीर्वाद के रूप में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और मेरे चेहरे को हाथ से मलास कर अपनी अँगुलियों को चूमती रहीं। बीच-बीच में पूछती रहीं, ‘‘च्याला भौल छै, नँनतिन भल छैं?’’ (बेटा ठीक है, बाल-बच्चे ठीक हैं?) मेरे गाँव में बलाइयाँ लेने, प्यार-स्नेह जताने का यही तरीका है। मैं हाँ-हूँ में ही उत्तर देता रहा। उनकी यह प्रक्रिया मेरे अन्दर संकोच पैदा करती रही। उनके यहाँ आने पर मुझे कोई भार या परायापन बिल्कुल महसूस नहीं हुआ। एक खुशी का अहसास होता रहा- अपने प्रियजन को पाने का सुख मिला। उनके और मेरे बीच सम्बन्ध ही ऐसा था। न मैं उनके लिए कभी पराया रहा, न वे मेरे लिए। माँ के बाद मेरी सबसे अधिक श्रद्धा उन्हीं के प्रति रही है। बल्कि वे मेरे लिए माँ ही हैं और मैं उनके लिए बेटा।

जबकि सारा गाँव उन्हें एक तेज-तर्रार, मुँहफट औरत के रूप में देखता था। सबके मन में उनके प्रति एक अव्यक्त-सी नफरत थी। लोग उनसे कतराते थे। एक धारणा-सी बना ली थी उन्होंने- यह औरत नहीं, डाकिन है। इसके मुँह कौन लगे। अव्वल तो लोग उनसे फालतू बोलते नहीं थे- पर भीतर से भरे रहते थे। झगड़ा हो जाये तो फूट पड़ते थे। तब, बदतमीज, बेशरम जैसे सम्बोधनों की झड़ी लगा देते थे। जवाब में काकी कभी चुप रही हों, ऐसा नहीं देखा गया। उनको भी जैसे मौका मिल जाता था- सबके ऐबों और सम्बन्धों की पोल-पट्टी खोल देती थीं कि खुद ही फैसला कर लो कौन बदतमीज और बेशरम है। किसी को बख्शना तो काकी ने सीखा ही नहीं था। गुस्सा आ जाये तो बच्चों तक को डाँट-फटकार कर भगा देती थीं। पर मेरे साथ एकदम उल्टा था। कभी मुझ पर गुस्सा किया हो, मुझे याद नहीं।
(Pratikshya Story)

गाँव में बहुत कम परिवार ऐसे होंगे- ना के बराबर, जिनसे उनका झगड़ा न हुआ हो और सम्बन्ध लम्बे समय तक अच्छे रहे हों। झगड़ों के बड़े कारण नहीं थे। बस, उन्हें अपना जरा-सा भी नुकसान बर्दाश्त नहीं था। किसी की गाय-बकरी क्षण भर को ही उनके खेत में चर आई तो फूट पड़ीं। सब्जी की किसी बेल में या खेत में उनके अनुमान से रत्ती-भर भी कमी दिख जाये तो शाम को ठीक संध्या के समय- जब लोग घरों को लौट रहे होते हैं, अपनी धुरी (ढलवाँ छत की मिलान पट्टी) पर खड़ी होकर गलियों की बौछार कर देती थीं- जिसने भी उनका नुकसान किया, उसका सर्वनाश हो जायेगा। मेरे खेत की चुराई चीज पकाने की जगह अपने प्यारों को क्यों नहीं पका खाते।

सुनने वालों को तब गुस्सा आता था। उन्हें संकेत अपनी ओर दागा हुआ लगता था। बौखलाने को हो जाते थे वे। फिर ‘क्या मुँह लगना हो रहा है राँड के’ जैसे भाव से चुप हो जाते थे। ‘‘लो, संध्या-बेला में मंत्री मंत्रोच्चारण शुरू हो गया है’’ कहकर अपने को हल्का कर लेते थे। दो एक दाने-सयाने जरूर भुनभुनाते रहते थे, ‘‘जिस गाँव में सुबह-शाम शंख और घंटियाँ गूँजती थीं, इस घोर कलयुग में गू-मूत खाने की बात हो रही है।’’

बस, एक मेरी माँ ही ऐसी थी जिससे उनके सम्बन्ध ज्यादा दिन तक खराब नहीं रहते थे। हल्की-फुल्की तकरारें जरूर होती थीं, पर जल्दी सुलह भी हो जाती थी। ज्यादा समय तक अबोला नहीं रहता था। उनका ज्यादा उठना-बैठना और ऐंच-पेंच (लेना-देना) हमारे ही घर से था। इसका कारण शायद यह भी रहा कि माँ और काकी का मायका एक ही गाँव में है। इस रिश्ते को वे बड़ा मान देती थीं। माँ को दीदी कहती थीं। इस नाते, माँ उन्हें झिड़क भी देती थीं और समझाती भी रहती थी- ‘‘थोड़ा-बहुत नुकसान तो होता रहता है। गाय-बकरियाँ जब चरने जाती हैं तो रास्ते के खेतों में मुँह मार ही देती हैं। सभी के साथ ऐसा होता है। खाली गालियाँ देने से क्या फायदा। इससे सुधर तो क्या जायेगा।’’

पर काकी कहती थीं, ‘‘आते-जाते मुँह मारने की तो कोई बात नहीं। उसके लिए कौन कहता है! पर ये लोग जानबूझकर मेरा नुकसान करते हैं कि इसका कोई तो है नहीं, क्या कर लेगी करके। अगर मैं एक बार चुप रह गई तो ये मेरा गाँव में रहना मुश्किल कर देंगे।’’

बड़ा होने के बाद, जब कभी काकी के इस तर्क पर सोचता हूँ तो लगता है कि इसके पीछे उनका यह मनोविज्ञान रहा होगा कि निखालिस खेती के दम पर पहाड़ में कौन जिन्दा रह सकता है। कुछों ने खेती की और कुछों ने बाहर निकलकर मनीआर्डर किया, तब चला और काकी का मनीआर्डर भेजने वाला कौन था? इसलिए एक दाने की बरबादी भी उन्हें भविष्य के अन्धकार का सूचक लगती होगी।

उनके स्वभाव की कटुता के बारे में गाँव के लोग जितना बताते हैं, मैंने उतना नहीं देखा है। मैं लम्बे समय तक गाँव नहीं रहा। बहुत छोटी उम्र में बाबू के साथ पढ़ने के लिए दिल्ली आ गया था। बाबू की हार्दिक इच्छा थी कि उनका इकलौता बेटा कुछ बन जाए। माँ, दीदी और छोटी पुष्पा गाँव में ही रहते थे। एक तो बाबू गाँव का नाता छोड़ना नहीं चाहते थे- उनके मन में था कि आखिर लौटकर तो वहीं जाना है। दूसरा, सबको साथ रखकर अपनी छोटी-सी नौकरी से बेटे को कुछ बनाने के उद्देश्य को पूरा कर पाने की सामथ्र्य भी नहीं जुटा पा रहे थे। इसलिए परिवार दो हिस्सों में बँटा रहा।

मेरी र्गिमयों की छुट्टियाँ गाँव में बीतती थीं। माँ का भी यह आग्रह रहता था कि कम से कम दो महीने तो इसे मेरे पास  रहने दिया करो और घोर गर्मी में मेरा क्वार्टर अकेले पड़ा रहना, बाबू को भी पसंद नहीं था।

मेरी छुट्टियों का इन्तजार जितना माँ को रहता था उतना ही काकी को भी रहता था। माँ अक्सर कहा करती थी, ‘‘तेरी भागुली काकी एक महीने से कह रही है, अब तो भवानी की छुट्टियाँ होने वाली होंगी!’’

छुट्टियों के दौरान हफ्ते में कम से कम तीन-चार समय का खाना तो मैं काकी के वहाँ ही खाता था। मैं ना भी जाता तो वे अपनी बेटी नन्दी को भेज देती थीं। मेरी पसन्द की उड़द-पेठे की बड़ियाँ और दाम (चीड़ के बीज) वे सँभाले रखती थीं।
(Pratikshya Story)

उनका और हमारा घर लगभग सटा हुआ है। माँ बताती थीं, छुटपन में मैं अधिकांश उन्हीं के घर में रहता था। माँ और दीदी खेतों पर चले जाते थे, मैं और पुष्पा काकी की बेटियों के साथ खेला करते थे। कालान्तर में उनका वात्सल्य मेरे मन में बैठ गया- मेरे संस्कारों में समा गया। उनको लेकर एक भावुकता हमेशा रही मेरे मन में। खासकर नौकरी लगने और माँ की मृत्यु के बाद- जब से मैं पूरी तरह शहर का हो गया हूँ। गाँव का अर्थ मेरे लिए माँ और काकी की स्मृतियाँ ही हैं।

और इस अपनत्व का सहारा लेकर वे यहाँ आई हैं तो कोई बेजा नहीं किया है उन्होंने। बल्कि उनका हक है। जितने दिन चाहें, यहाँ रहें। जिस चीज की जरूरत हो, खुलकर कहें। रजनी को इस सम्बन्ध की जानकारी  कुछ तो है, थोड़ा और समझाना होगा उसे कि काकी को हमेशा यही लगे कि वे अपनों के पास आई हैं और हमें उनके आने की बहुत खुशी है।

कपड़े बदलकर जितनी देर उनके पास बैठा रहा, मन में उनके आने का उद्देश्य जानने की उत्सुकता बनी रही। ‘कैसे आई काकी?’ पूछ लेने का साहस नहीं हुआ। ऐसा पूछना कितना भोंडा लगता और असभ्य भी!

बातचीत में गाँवभर की खबर पूछता रहा। परिचित परिवेश के बारे में, वह भी जिसे देखा-सुना ही नहीं, भोगा भी हो। नया जानना या पुरानी स्मृतियों की पुनर्जागृति करना कितना सुखद लगता है! एक-एक के बारे में पूछता रहा। कौन अब क्या करता है? कितना बड़ा या बूढ़ा हो गया है? बेड़ू-तिमिल, आड़ू-खुमानी और काफल की चोरी बच्चे अब भी करते होंगे?

काकी सिलसिलेवार सब बताती गई, अपने कहने के खास अन्दाज में। जिससे उनकी इन दिनों पटती थी, सम्बन्ध अच्छे थे, उनके बारे सहानुभूतिपूर्वक अपनत्व जताते हुए बताती गईं, ‘‘ठीक ही चल रहा है बेचारों का। दूधों नहा रहे हैं, पूतों फल रहे हैं।’’ और जिनसे हमेशा अनबन रही उनके बारे में कहती गई, ‘‘तू तो जानने वाला ही ठैरा उनके लछड़ों को। खा-पी रहे हैं। अपना भला करना जानते हैं। दूसरों के पड़े में तो काम कभी आए नहीं।’’

वे किसी भी तरह से कहें, उनकी बातों से गाँव और लोगों की एक मुकम्मल खबर तो बन ही जाती है।

मैं कुछ पुरानी स्मृतियों की ओर जाना चाहता था। वे वर्तमान को क्रमवार बताने को आतुर थीं। जैसे, कहती गईं, ‘‘अब पहले जैसी’’ बात नहीं रह गई है गाँव में भी। कभी ताला देखा तूने वहाँ किसी के घर में? और अब सुई भी बाहर रह गई तो समझ लो ढूँढना बेकार है। पिछली र्सिदयों में कोटली के प्रधान की दीवार तोड़ दी चोरों ने। बताते हैं, सारा जेवर ले गए। सारी र्सिदयाँ आसपास से गाँवों में रात-भर हल्ला होता रहता था कि वे आये कि वो गए। डर के मारे कँपकँपाती रहती थी। एक रात भी चैन से नहीं सो पाई। प्राण सूखे रहते थे। बगल में अपना कहने को एक तुम्हारा घर था, वहाँ भी कोई नहीं ठहरा। बूनों (चीड़ के पत्ते) की साँय-साँय से लगता था- दरवाजे पर ही आ गए हैं। बस, अभी घोट देंगे गला। मैं तो च्यला, दिन ढलने से पहले ही दरवाजे-खिड़कियों पर अड़िए-मड़िए (आड़) लगा देती थी। बैठी रहती थी फिर रात-भर ठीटों (चीड़ के दाने) की आग के सामने। मेरी आँखें देख रहा है तू। कुछ तो इनमें पहले से ही पानी आता है, ठीटों के धुँए से बिल्कुल ही फूट गई हैं। घाम उछाने के बाद तो जपजपाट पड़ जाता है। कुछ नहीं दिखाई देता। अन्दाजे से ही सारे काम करती हूँ। आँखें तो अब फूट ही गई हैं, क्या इलाज हो सकता है इनका। पर ज्यादा भय हो गया है चोरों का। मैत-सौरास (मायके-ससुराल) आती-जाती बहुओं ने भी जेवर पहनने कम कर दिये हैं अब। इस बार तो च्यला, अभी से हो गई है चोर-चोर करके। हर समय पराण डरे रहते हैं, किसी दिन कोई पच्च से गला दबा गया तो हो गया, तीन दिन तक पता भी नहीं चलेगा किसी को कि मर गई है करके।’’

काकी की बात सुनकर दु:ख भी हुआ कि लो अराजकता और अमानवीयता पहाड़ तक पहुँच गई है। जहाँ किसी का एक रुपया खो जाने की बात सनसनीखेज खबर की तरह चारों ओर फैल जाती थी, वहाँ का यह हाल! और हँसी भी आई कि काकी का गला कोई क्यों दबाएगा? ले-देकर पाँच-सात बर्तन होंगे उसके पास, वे भी पचास-साठ साल पुराने-पिचके और लकड़ियों के धुएँ की मोटी काली परत चढ़े हुए। ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह-बीस किलो मडुवा-झूँगरा जैसा मोटा अनाज होगा। उसके लिए बुढ़िया की हत्या कर क्यों कोई कलंकित करेगा अपने को। जाने किस बात का भय खाए हुए है काकी को जो खबर बताते हुए इस समय भी ज्यादा नहीं तो थोड़ा-बहुत तो कँपकँपा ही रही है।
(Pratikshya Story)

मैंने पूछ ही लिया, ‘‘ऐसी वारदातें तो काकी अब दुनिया के कोने-कोने में हो रही हैं। बड़ी-बड़ी सरकारें जिनके पास इतनी ताकत है कि पूरी दुनिया को घंटों में खत्म कर दें, वे भी ऐसे लोगों का कुछ नहीं कर पा रही हैं। पर तुम्हें काहे का डर लगता है जो दिन छिपते ही कैद कर लेती हो अपने को! सारी रात ठीटों के धुएँ में आँखों को तपाती हुई खाली घर को पहरा देती रहती हो! जबकि जग जाहिर है कि तुम्हारे पास फूटी कौड़ी भी नहीं होगी।’’

‘‘नहीं च्यला, तुझे नहीं पता, जमाना कितना खराब हो गया है वहाँ। आदमी के मुँह जब खून लग जाता है तो कुछ नहीं समझता वह।’’

वह फिर कई किस्से बताने लगीं कि कैसे-कैसे लोगों ने अपने को बचाया। उनके कहने के तरीके से ही लग रहा था कि वे सब वारदातें उनकी देखी नहीं, सुनी हुई थीं।

बातों का सिलसिला आगे नहीं चल सका, इस बीच रजनी चाय ले आई थी। अपने और मेरे लिए कप में और काकी के लिए गिलास में। धोती के छोर से गिलास को कसकर पकड़ कर चाय को वे सूउ-सूउ कर पीती रहीं। रजनी ने बिस्कुट और भुजिया की प्लेट भी उनके आगे सरका दी। पहले की बात का क्रम टूट चुका था। कुछ और बात शुरू करने और उनके आने के कारण को टटोलने के लिए मैंने पूछ लिया, ‘‘काकी, अब आ ही गई हो तो कुछ दिन यहाँ रहो। वहाँ तुमने कौन-सा भण्डार भर देना है। अकेली जान है तुम्हारी, यहीं पड़ी रहो।’’

‘‘ना, च्यला, ना ज्यादा दिन नहीं रुकूँगी। घर वैसे ही छोड़ आई हूँ। बड़ी लड़की तो बरेली चली गई है, वे तो वहीं के हो गए। कुछ दिनों के लिए छोटी नन्दी को बुला रखा है। वो भी कब तक रहेगी। ससुराल वाले ज्यादा दिन टिकने नहीं देंगे। झींस जैसा लड़का है, उसका वो भी ठीक नहीं रहता। अब एक फिकर थोड़ी है, उसके लड़के को कुछ तकलीफ हो गई तो, उधर भी नाम (बदनाम) ही पड़ने वाले हुए।’’

उनकी अपनी ही कथा में फिर रह गया उनके आने का उद्देश्य जानना।

रजनी चाय के बर्तन लेकर किचन में चली गई तो मैं भी उठ कर बैडरूम में चला गया। सोचा, अगर कुछ काम होगा तो वो बता ही देंगी। आखिर इतनी दूर से आई हैं, कोई कारण तो होगा ही। बिना काम बताए और कराए जायेंगी नहीं। इतनी भी उतावली क्या! अगर खाली घूमने-फिरने आई होंगी तो रजनी से कह दूंगा, वह थोड़ा समय निकाल कर घुमा लायेगी। ना हो तो मैं ही छुट्टी ले लूँगा। आखिर वे अपना मानती हैं, तभी तो मेरे पास आई हैं।

रात खाने के बाद, उनके सोने का प्रबन्ध ड्राइंग रूम में ही कर दिया गया। रजनी ने दीवान पर नई बैडशीट बिछा दी और पानी का जग सिरहाने के पास स्टूल पर रख दिया। काकी को रजनी का आदरभाव और व्यवहार काफी पसन्द आया। मुझसे हँसकर बोलीं, ‘‘तेरी दुल्हैणी (पत्नी) तो बहुत अच्छी है रे भवानी! रजनी की ओर मुखातिब होकर बोलीं, ‘‘अच्छा कर रही है ब्वारी (बहू), जस-अपजस और भलाई-बुराई ही साथ जाती है आदमी के।’’ रजनी को अपनी प्रशंसा अच्छी लगी। वह काकी के पास दीवान पर ही बैठ गई, पूछने लगी, ‘‘बेटियों की शादी के बाद तो आप एकदम अकेली हो गई हैं। इतनी मेहनत कर पाती हैं क्या कि गुजारा हो सके?’’

‘‘द हो पाये या न हो पाये, मरते-गिरते करना पड़ता है। आज तक तो किसी तरह गाड़ी खींच ही रही थी। अब पराण नहीं रहा। कभी दो-तीन भैंस रहती थीं। कर भी सकती थी। खूब घी कमाया- बेचा भी, खाया भी। अब होगी कुकुरगत। भूखों रहने के दिन आ गए हैं। एकदम से पराण भी नहीं निकलेंगे। धीरे-धीरे जिन्दगी की अधोगत हो जायेगी। अब तो रात-दिन यही फिकर खाए रहती है, इसके बाद क्या होगा। बेटियों के पास जाऊँ तो सास-ससुर, देवर-नन्दों की बातों से उनका भी जीना हराम हो जायेगा। कुछ समझ में नहीं आता ब्वारी…!’’

उसके बाद रजनी चुप हो गई और काकी अपनी पीड़ा को छिपाने की कोशिश में इधर-उधर झाँकने लगीं। रजनी वहाँ से उठने लगी। शायद उसके मन में आया हो कि कहीं काकी पुराने सम्बन्धों की आड़ में आसरे के लिए तो नहीं आई है और बेकार के भार को गले गढ़ने में उसे कोई अकलमन्दी नहीं दिखाई दे रही होगी।

रजनी के साथ मैं भी बैडरूम की ओर जाने लगा तो उन्होंने, ‘‘च्याला, बैठ एक बात कहनी है,’’ कहकर हमें फिर बैठा लिया। खुद थोड़ा आराम से बैठ गईं और पैर सुकोड़ कर हमारे लिए भी दीवान पर, अपने नजदीक जगह बना दी।
(Pratikshya Story)

पल-भर रुक कर बोलीं, ‘‘च्यला, मैं एक खास वजह से आई हूँ। तुझे अपना समझा, इसलिए तुझे तकलीफ देने चली आई हूँ। तू तो जानता है मेरा और कौन है।’’ उनकी आँखें थोड़ा रुँधियाँ आई थीं।

रजनी कुछ भी सोचे, मुझ में उनके प्रति अब भी वही आत्मीयता है। वे बेकार में अपराध-बोध लिए हैं। इतनी भूमिका बाँधने की क्या जरूरत है। सीधा-सीधा कह दें- यह काम है, बस।

‘‘काकी, इसमें तकलीफ की क्या बात है। तुम काम तो बताओ। खाली अधीर हो रही हो। तुम जो भी काम कहोगी, मैं जरूर करूंगा। तुम्हें कहने का पूरा हक है और मेरे करने का पूरा कर्तव्य।’’ उन्हें सहज करने के लिए मुझे विश्वास-सा दिलाना पड़ा।

‘‘सो तो ठीक है। तेरा सहारा है तभी तो….। बात दरअसल यह है कि तू अपने चाचा को ढूँढ दे। मैं उन्हें लेने आई हूँ।’’

चाचा को ढूँढ दूँ!  कौन-से चाचा को ढूँढ दूँ? ओह! शायद काकी अपने पति को खोजने की बात कह रही हैं।

मेरे लिए सचमुच यह आश्चर्य की बात थी। पूरी उम्र बिता देने के बाद, अब चाचा की क्या जरूरत आ पड़ी है काकी को! इस मुकाम पर जब आँख, कान और दाँतों की कमजोरी के माध्यम से मृत्यु ने आगमन की सूचना दे दी हो, चाची का चाचा के लिए भटकना, चौंकाने वाली बात तो थी ही।

‘‘च्यला, मैंने बहुत कोशिश कर ली है। गाँव के जितने भी आने-जाने थे सभी को कहा- कुछ पता लगे तो खबर देना। किसी ने बताया था कि काफी, पहले उसने उन्हें दिल्ली में देखा था। फिर शुरू में वे नौकरी करने दिल्ली ही आए थे। उन दिनों की चिट्ठियों में उनका पता भी था। इतने वर्ष हो गए, वे चिट्ठियाँ जाने कहाँ चली गईं। मेरा पक्का विश्वास है, वे दिल्ली में ही हैं। …च्यला! तू पढ़ा-लिखा है। सब बात, सब जगह जानता-पहचानता है। तू उन्हें खोज दे। तेरा अहसान….।’’ वे रोने को हो आईं।

मेरी समझ में कुछ नहीं आया- जैसे दिमाग ने एकाएक काम करना बंद कर दिया हो। पहले तो इतने बड़े महानगर में एक आदमी को, वह भी उस आदमी को जिसे मैं ठीक से पहचान नहीं सकता, ढूँढना कितना कठिन था! बहुत छुटपन में, जब मैं पहली-दूसरी में पढ़ता होऊंगा या शायद स्कूल भी नहीं जाता होऊंगा, उन्हें देखा होगा। आज अगर वे सामने पड़ भी गए तो क्या मैं उन्हें पहचान लूँगा? उनकी पहचान के कुछ धुँधले-से  चिह्न जो इस समय मेरे दिमाग में घूम रहे थे, क्या उम्र के इतने बड़े अन्तराल ने उन्हें ज्यों का त्यों बनाए रखा होगा? फिर यह जरूरी नहीं कि वे दिल्ली में ही हों। हो सकता है, किसी दूसरे शहर में चले गए हों। यह भी संभव है- अब इस संसार में हों ही नहीं।

पर इससे भी अधिक समझ में नहीं आने वाली बात थी कि काकी को अब क्या जरूरत आ पड़ी है चाचा की? अपनी आयु के हिसाब से गणना करूँ तो जब वे गाँव से आखरी बार आए थे, बल्कि काकी और दो बेटियों को बेसहारा छोड़ आए थे, मैं छ:-सात साल का रहा होऊंगा। इस हिसाब से करीब पैंतीस-छत्तीस वर्ष हो गए हैं उन्हें खोए हुए।

इतने लम्बे अन्तराल में काकी ने उनकी कभी जरूरत महसूस नहीं की। कठिनाइयों और जिम्मेदारियों के दिन उन्होंने खुद निभाए, बिना किसी सहारे के।
(Pratikshya Story)

इस दौरान उन्होंने कभी चाचा को किसी के सामने याद किया हो, मुझे खबर नहीं। बाबू की पूरी उम्र दिल्ली में ही बीती है, उन्होंने भी मेरे सामने कभी नहीं कहा कि काकी चाचा को ढुँढवाना चाहती है। माँ के मुँह से भी सुनने में नहीं आया कि काकी चाचा के गायब होने से परेशान हैं।

हो सकता है, मेरे होश सँभालने यानी उस आयु से पहले जबकि अधिकांश बातें याद नहीं रहतीं, काकी परेशान रहती हों और उन्होंने लोगों के माध्यम से चाचा को खोजवाने की कोशिश की भी हो। यह भी हो सकता है कि चाचा के परदेश बस जाने के कारणों को काकी अच्छा तरह जानती हों और उसे अपने अन्दर राज के रूप में दबा कर अकेले, अपने दम पर जिन्दगी और जिम्मेदारियाँ निभाने का साहस उन्होंने जुटा लिया हो।

अपनी याददाश्त सँभालने के बाद से आज तक मुझे कभी नहीं लगा कि चाचा के प्रति उनमें कोई अनुराग शेष बचा है। उन्होंने अपने को चाचा से पूरी तरह काट लिया था। बल्कि मैंने उनके मन में चाचा के प्रति एक तिरस्कार भाव ही देखा है। बड़ी बेटी के कन्यादान पर पंडितजी थोड़ा अनमनाए थे कि यहाँ पिता का होना जरूरी था। काकी बिखर पड़ी थीं, ‘‘विधवा की बेटियों का कन्यादान नहीं होता है क्या पंडित जी? वैसे ही करिये।’’

सभी स्तब्ध थे। काकी के इसी तीखे व्यवहार से अधिकांश गाँव उनसे कटा रहता था। सभी का कहना क्या, आरोप था कि काकी के व्यवहार में वैसे तो पहले से ही तेजी थी, पर चाचा के जाने के बाद जो परिवर्तन आया उनके स्वभाव में, उसके कारण किसी से पट नहीं पाई उनकी। तब झगड़ों में यह बाण हमेशा फेंका जाता रहा उनकी ओर कि अगर यही अच्छी होती तो आदमी क्यों भागता। पड़े वक्त में भी अकड़ी रहती है। काकी ने न कभी इन बातों की परवाह की, न जिम्मेदारियों और कठिनाइयों के लिए किसी सहारे की तलाश में अपने को झुकाया। अपने बूते पर, स्वाभिमान को बनाए रखकर, अपना और अपनी बेटियों का निर्वाह किया। दो-तीन भैंसें थीं उनका सहारा, जो पीढ़ी-पीढ़ी उनके परिवार को संबल देती थीं। थोड़े-बहुत जो खेत थे, उनकी बुवाई-जुताई का भुगतान घी बेचकर होता था। उसी के दम पर दोनों बेटियों को यथासंभव आठ-दस तक पढ़ाया भी और शादियाँ भी कीं।

और आज पूरी जिन्दगी ढह जाने के बाद यानी जब न बेटियों को बाप की जरूरत रही और न काकी को पति की, चाचा की खोज में उनका भटकना, मेरे लिए परेशानी का कारण था ही।

काकी का यह रूप मेरे लिए एकदम असहज और अविश्वसनीय था। आज तक मैंने उनके अन्दर या तो वात्सल्य भाव देखा या स्वाभिमानता की अकड़ में तना भव्य चेहरा।

पूरी रात मैं सो नहीं सका। बचपन से लेकर अब तक काकी से जुड़े सारे  प्रसंग घूमते रहे दिमाग में। क्या चाचा का जिक्र न करना या उनका प्रसंग आने पर कड़ुवाहट उगलना, कहीं काकी का अपने मन के चोर को छिपाना ही तो नहीं था? हो सकता है चाचा के प्रति उनके मन में अथाह अनुराग हो। कहीं वह उबल न आये, उससे लोगों के व्यंग्य से बचने के अलावा अपने को टूटने से बचाने का नाटक मात्र तो नहीं था! पर यदि ऐसा था भी, तो कभी तो, वे किसी को तो कहतीं- उनकी खबर देना या उन्हें लौटा लाना, जैसे वे आज आई हैं, वैसे पहले भी आ सकती थीं। तब एक जस्टीफिकेशन तो बनता था। आज तो…. कुछ समझ नहीं आया। मैं उलझता रहा रात-भर।

पूरी रात करवटें बदलने के बाद, जब सवेरे उठा तो देखा, काकी धोती से आँखें मल रही थीं। उनके चेहरे से ही लग रहा था, पूरी रात वे भी नहीं सोई हैं। नाश्ता करने के बाद दफ्तर जाने को हुआ तो काकी ने याद दिला दिया, ‘‘दिन में जरा कोशिश करना च्यला। अगर मिल जायें और तेरी बात न मानें तो मुझे लिवा ले जाना।’’ उनकी आँखों में जो आतुरता और विनय भाव था, उसे अधिक नहीं देख सका मैं। ब्रीफकेस उठाया, चल दिया। रजनी टा-टा करती रह गई। उसकी ओर देखने को भी मन नहीं हुआ।

शाम को जब लौटा तो काकी की नजरों में जो सवाल देखा, उसे मैं पहचानता था। इसलिए उनके पूछने से पहले ही कह दिया, ‘‘कोशिश कर रहा हूँ, काकी। वैसे तो बहुत मुश्किल है। इतने बड़े शहर में एक आदमी को बिना पते के ढूँढना आसान नहीं है। पर फिर भी भगवान ने चाहा तो जल्दी ही कहीं न कहीं पता लग ही जायेगा।’’
(Pratikshya Story)

काकी चुप रहीं। कुछ आशा बँधी उनमें या बुझ-सी गईं वे, मैंने जानने की कोशिश नहीं की। कपड़े बदलने को अन्दर चला गया। बाकी समय बच्चों के होमवर्क में उलझने का नाटक करता रहा। खाने पर बैठते ही मैंने प्रसंग बदल दिया। रजनी से कहा, ‘‘काकी इतनी दूर से आई हैं।’’ थोड़ा इन्हें घुमा-फिरा दो। बुढ़ापे में आकर अब कहीं इनका दिल्ली आना हो पाया है। फिर शायद ही कभी आ पायें। दो-चार जगह दिखा लाओ इनको।

‘‘ना च्यला ना, कहीं नहीं घूमना है मुझे। कहीं ले जाने की जरूरत नहीं। तेरे घर से ही इतना सारा दिख जाता है। खाली परेशानी से क्या फायदा। बस, तू जरा उन्हें ढूँढ दे तो मैं जल्दी से अपने घर पहुँच जाऊँ। जब तक पराण है, तब तक का जंजाल तो ठहरा ही। खेती का काम भी अब शुरू होने को होगा। हलिए का मिलना भी मुश्किल है। अब एक भैंस है बाखड़ी। क्या दूध देगी, क्या घी बनेगा।  ऊपर से सग्यान (त्योहार) भी आने को है। मैं न रही घर पर, तो नन्दी भी उदास हो जायेगी। तू तो सब समझता ही है।’’

हफ्तेभर तक तो काकी उम्मीद लगाए रही कि आज नहीं तो कल मैं चाचा को ढूँढ ही लाऊँगा। सुबह और शाम उनकी आतुर आँखें जो सवाल कह देती थीं, उनकी आद्र्रता अन्दर तक बेध जाती थी।

ऐसी बात नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की। अपने गाँव पड़ौस के जितने लोगों से मेरा सम्पर्क था और जितनों को मैं जानता था, मैंने फोन पर या नजदीक के लोगों से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क किया। पर एक आदमी को जिसे लोग लगभग भूल गए थे, एकाएक खोज पाना सभी को कठिन लगा। फिर ऐसे झंझट के कामों की जिम्मेदारी कौन मोल लेता है!

मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने तो उन्हें देखा भी नहीं या मेरी जैसी हालत में धुँधली-सी याद जता देते थे। कुछ थोड़ा बुजुर्ग लोगों से पूछा तो एक उपेक्षित भाव ही नजर आया। उनमें से ही एक से हल्का-सा सूत्र मिला भी कि वे किसी वकील के पास वर्षों पहले नौकरी करते थे। सालों पहले उन्होंने देखा था। लेकिन उस सूत्र से कुछ हासिल नहीं हुआ।

और अन्तत: काकी ने और अधिक नहीं रुक पाने की असमर्थता बता दी, ‘‘अब मेरा यहाँ रुकना कठिन है। अगर उनका कुछ पता चल जाता तो एक-आध दिन और रुक जाती। किसी तरह मना कर उन्हें घर ले ही जाती।’’

मुझे भी लगा कि उनका छूटा हुआ घर और चाचा की कोई खबर नहीं मिलना, उनकी बेचैनी को बढ़ा रहा है। एक कैद का अहसास जरूर हो रहा होगा उन्हें।

आखिर उन्होंने अपने जाने का निर्णय सुना दिया कि वे कल वापस जाना चाहती हैं। उनको रामनगर की बस में बैठा दो तो वे चली जायेंगी। रामनगर से तो किसी से भी पूछ कर आगे की बस पकड़ सकती हैं।

‘‘कुछ दिन और रुक जातीं तो ठीक ही था। अब आ ही गई हो, छब्बीस जनवरी देखती जाओ।  वैसे तो तुम्हारा आना कभी हो नहीं पायेगा।’’ मैंने और रजनी ने करीब साथ ही यह औपचारिकता निभाई थी।
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‘‘ना, अब नहीं। सब देखा हुआ ही समझ। जिस काम से आई थी, वही पूरा नहीं हुआ तो….। पर च्यला, तू कोशिश बराबर रखना। तेरी बात न मानें तो मुझे चिट्ठी लिख देना। मैं आकर मना लूँगी। थोड़ी देर चुर रही वे। फिर बोलीं, ‘‘खाना-पीना, रहना तो जैसा किस्मत में है, वही होगा। भाग्य तो कोई मिटा नहीं सकता। पर अपना दु:ख-सुख एक-दूसरे से बोल-चाल कर तो बाँट लेंगे। सच कहती हूँ, जब चारों तरफ से ये आया वो आया होता है तो छत के पाथर भी हिलते नजर आते हैं। खेती-बाड़ी में भी अकेले जाने को मन नहीं करता।’’

‘‘ठीक है काकी, मैं कोशिश बराबर करता रहूंगा। अगर मिल गए तो खबर कर दूँगा। हो सका तो गाँव तक पहुँचा भी दूँगा। अगर ना मिले तो भी….। उम्र भर तो उन्होंने कभी तुम्हारा साथ नहीं दिया।….’’

खामोश हो गईं वे। लगा, मेरी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी।

मैंने अपनी बात को सँभाला, ‘‘मेरा मतलब है अपनी कोशिश तो हम करेंगे ही। फिर भी अगर….।’’

‘‘नहीं च्यला, ये बात नहीं। जो हुआ सो हुआ, आखिर वे मेरे आदमी हैं। अब न ज्यादा उम्र रही ना सामर्थ। नन्दी और गोपुली के ससुराल चले जाने के बाद अकेला घर काट खाने को आता है। घर में दो हों, एक-दूसरे का सहारा बना रहता है। तीरथ-बरत जाने को भी मन करता है। अकेले जाने का क्या सत! आखिर चरेऊ (मंगलसूत्र) का भी कोई मतलब होता है।’’

उनके जाने से पहले मौन ही छाया रहा। रजनी ने रास्ते के लिए पराठे बना दिए थे। बीच में अचार रख दिया था। नन्दी के बच्चे के लिए कुछ टॉफियाँ-बिस्कुट अलग से बाँध दिए थे। अपने कुछ पुराने कपड़े भी उनकी पोटली में रख दिए थे।

घर से बाहर निकलने से पहले उन्होंने उसी तरह मेरी, रजनी और बच्चों की बलाइयाँ लीं और रुँधियाये गले से एक बार फिर कह गईं, ‘‘तू उनसे कहना, कोई फिकर नहीं। निस्संकोच अपने घर चले आएँ। शरम काहे की! घर तो आखिर उन्हीं का है। बुढ़ापे के आखिरी दिन काटने के लिए बहुत है मेरे पास। एक भैंस है। जब तक कर सकूँगी, दोनों का खर्चा निकाल लूँगी। हाथ-पाँव थक गए तो बेच देंगे। चाँदी की हाँसुली-धागुली भी सँभाल रखे हैं, ऐसे ही दिनों के लिए। फिर पुरखों की जोड़ी दो-चार हाथ जमीन भी है। उनकी बिकरी से भी हमारी साँसों तक का तो पूरा हो ही जायेगा। तू समझा दियो अच्छी तरह से। तू समझदार है तुझे क्या समझाना। जैसे भी हो, एक बार तू उन्हें…।’’ फिर रोने को हो आईं वे।

उन्हें बस में बैठा कर लौट आया हूँ। जब तक गाड़ी चली नहीं इनकी आँखों की व्याकुलता और असुरक्षा का बोध डँसता रहा मुझे। कह नहीं सकता, वे अपने साथ कोई उम्मीद लेकर गई हैं या आशा की अन्तिम डोर भी यहीं छोड़ गई हैं।

पर मेरे लिए पैर जमाकर सीधे चलना मुश्किल हो गया है। इस महानगर की भीड़ में अपने को अकेला महसूसता एक अप्रत्याशित भय से ग्रस्त हूँ। काकी के लिए कुछ कर सकने की सामथ्र्य नहीं होने के कारण अपराध बोध से गला जा रहा हूँ। सोचता हूँ अगर चाचा मिल जाते, चाहे किसी भी कीमत पर, तो एक बार तो उन्हें पकड़कर काकी के सामने खड़ा कर देता, कि देखो, खुद अपनी आँखों से देखो। सोचो जरा, कितने जन्मों का पुण्य-प्रताप रहा होगा तुम्हारे साथ जो आज भी यानी छत्तीस-सैंतीस साल बाद भी तुम्हें अपनाने के लिए व्याकुलता से तुम्हारा इंतजार हो रहा है। वह भी उसके द्वारा जिसकी हत्या तुम हजार बार कर चुके हो।

समय कम है- से साभार
(Pratikshya Story)
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