राजनीति का ऋतुरैण

Poetry of Shirish Kumar Maurya

शिरीष कुमार मौर्य

एक

मैं
एक ऋतु का नाम लिखूँगा
और एक जगह का

वसन्त में कासगंज आया है
कासगंज में वसन्त आया है
कैसे लिखूँ?

मुझे
सि़र्फ कविता नहीं
रितुरैण भी लिखना है
राजनीति
और समाज का

मैं पीड़ित कल का हूँ
और
र्शिमन्दा आज का

26 जनवरी, कासगंज दंगा।
(Poetry of Shirish Kumar Maurya)

दो

वसन्त में मिल रही विध्वंस की
खबरों के बीच
अनिष्ट की कई-कई आशंकाओं के विरुद्ध
एक मित्र ने कहा-
इतना आसान नहीं है

वो मारना तो चाहते हैं
पर हमारा मर जाना इतना आसान नहीं है

समाज को तोड़ने की हत्यारी कोशिशें तो हैं
पर समाज यह
पूरी तरह टूट जाए इतना आसान नहीं हैं

देश यह बाढ़ में डूब जाए मुमकिन है
पर इसे डुबो कर
मार ही दिया जाए इतना आसान नहीं है

मैंने भी सोचा
उस प्यार भरे दिल के बारे में

पहलू में जिसे सँभाले
लगातार पिटती रही है मुहल्ले की
एक मुसलमान लड़की
रेशमा
अड़ी हुई कि शादी करूँगी तो
राजू से ही

राजू जो दो सौ रुपये रोज़ पर
ट्रैक्टर चलाता है
रेशमा जो दो सौ रुपये रोज़ पर
गेहूँ धान काटती है
फसल का समय न हो तो
पचास रुपये रोज़ पर बरतन माँजती है
दोनों को नहीं पता
कि त्रिपुरा कोई जगह है
ऐसी तमाम जगहों को नहीं पता
कि प्रेम भी कोई जगह है

विचार कोई जगह है सबको पता है
जबकि प्रेम के बिना
विचार भी कोई जगह नहीं

जटिल है जीवन का विधान
समझ पाना इतना आसान नहीं है
मुझे डर है रेशमा नहीं रहेगी
नहीं रहेगी
कि इस्लाम रह सके

जिस परिवार को दो वक़्त की रोटी बचानी चाहिए
अपनी झोंपड़ी का छप्पर बचाना चाहिए
घर के बीमार बच्चों के लिए दवाई के पैसे बचाने चाहिए
वो इस्लाम बचा रहा है
लगातार पिटती, अकेली भटकती हुई रेशमा
प्यार बचा रही है

धर्म हर बार प्रेम के विरुद्ध खड़ा होता है
धर्म को बचाने जितना आसान नहीं है
प्रेम को बचा पाना

प्रेम हर बार धर्म के विरुद्ध खड़ा होता है
धर्म को पा लेने जितना आसान नहीं है
प्रेम को पा लेना

वसन्त के हुड़दंग में शामिल हो जाना आसान है
इतना आसान नहीं है
मनुष्यता के वसन्त को बचा ले जाना

वसन्त को देखना हो तो पूरी हसरत से देखिए
देखिए
कि अल्लाह के बगीचे में खिला है एक वनफूल
वनफूल यह
मनुष्यता का नया रितुरैण है
इतना आसान नहीं है
इसे अनसुना कर पाना।
(Poetry of Shirish Kumar Maurya)

तीन

अल्पसंख्यकवाद के कई वसन्त
देखे मैंने
बहुसंख्यकवाद के वसन्त भी
देख रहा हूँ

कुछ लोग वोटों के ढेर पर
फूल खिला रहे हैं
मुझे ‘गुल खिला रहे हैं’ कहना चाहिए
भाषा में ये जो हल्का सा पेच है
इससे ज़्यादा वसन्त में नहीं होना चाहिए

पर यहाँ पूरा वसन्त ही
एक पेच है झंड किया हुआ

मैं वसन्त को बहुत प्रशंसनीय ऋतु नहीं मानता
मैंने बचपन से ही
गाँव के घरों में अकेली छूटीं
हर वय की कलपती स्त्रियाँ
और
उनके साथ वसन्त की
घरेलू हिंसा देखी है

दंगा करने वालों के वसन्त हैं
इस देश में
जबकि मनुष्यता के वसन्त होने थे।

चार

हत्या के बाद
जिम्मेदार व्यक्तियों के चेहरे पर
जो मुस्कान आती है
सब ऋतुओं को उजाड़ जाती है

फिर यह तो वसन्त है-
नाज़ुक-सा एक मौसम
इसकी क्या बिसात
हत्यारे
चेहरों के आगे

चल भाई वसन्त
अपना झोला समेट यमुना के किनारों से
उठ
और शिवालिक पर कहीं
मेरे साथ बसेरा कर

रह मेरे करीब
कि छटपटाऊँ तो धिक्कार पाऊँ
तुझे
जाऊँ  अपने प्रिय ग्रीष्म में
तो ले जाऊँ
किसी पुड़िया में बाँध कर

अगले बरस का तू बीज बन
मैं तैयार करूँगा अपने हिस्से की धरा

बहुत सारे रंगों के बीच
जिसमें
अपनी ज़मीन पर
मह़फूज
और अपनी ज़मीन के प्रति
समर्पित रह सके हरा।
(Poetry of Shirish Kumar Maurya)

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