कविताएँ : शेखर जोशी

देवीधुर (देवी का वन)

गिरि आधार पर देवी थान
सिर नवा, वह चढ़ गई सीधी चढ़ाई
ऊपर बहुत ऊपर एक झरना सदानीरा
इन दिनों कृशकाय, बहुत दुर्बल
कर रहा आतुर प्रतीक्षा चौमास की

कगारों पर दिखी लहलहाती हरी कोमल घास

(अहा, कितने मुदित होंगे खैरा औ’ बसंती इसे पाकर)

जान की बाजी लगाकर बढ़ चली वह रपटीली डगर पर

अब सरासर चल रही है दरांती घास पर
मुदित मन वह गा रही है गीत
संगत कर रहे मूंठ पर बंधे घुंघरू
तानपुरा बनी जलधार स्वर लहरी
वातास में गूंजते गीत के स्वर और सब कुछ मौन
चीड़ के सींकिया पत्ते, घुघुती, कागा, तितहरी, कठफोड़वा भी मौन
सब एकाग्र होकर सुन रहे हैं गान
अभी नीचे एक प्यासा बाघ आया था
वह भी दबे पाँवों मुड़ चला बिना पानी पिए
वातास में गूंजते गीत के स्वर
सिर पर भारी बोझ ले संभलकर उतरना ओ पार्वती!
तेरी राह तकते खैरा औ’ बसंती
तुझे आशीष देंगे जी भर
(Poems of Shekhar Joshi)

मितवा

चैत की भरी दुपहर
चीड़ वन की र्सिपल डगर पर
मैं अकेला बटोही
एक मारक अकेलापन
कर रहा राह दूभर
भेदने को यह असहज एकांत
मैंने अलापा:
‘सुन मेरे मितवाऽऽऽ’
मुझे आयी मौन को चीरती अपनी ही गुहार
मैंने फिर अलापा:
‘सुन मेरे मितवाऽऽऽ’
कुछ क्षणों तक छाया रहा
वही परिचित मौन
फिर सहसा
हवा में तैरता आया
एक कोमल कंठ स्वर:
‘सुणा म्यारा मितवा’
मैं चलता रहा
सोचता रहा
शायद यह मेरे स्वरों की अनुगूंज हो
पर वह सुकोमल स्वर मेरा तो नहीं था
उस र्सिपल डगर पर कई पल बीते
अगले मोड़ दिखी वह सुहागिन
रोली से माथा सजाये
बड़ी सी नथ झुलाती
सर पर भेटौई1 की डलिया सम्भाले
मायके से मुदित मन घर लौटती
वह तनिक मुस्कुरायी
सिर झुकाया
शायद नमन की मुद्रा रही हो
फिर अपनी राह चल दी
किस जनम की रही मेरी तुम मीता?
सहसा इतना नेह देकर
मेरा अकेलापन तिरोहित कर गयी!

ओखल नृत्य

(कवि वीरेन डंगवाल के लिए)

आँगन की दीवार के पार
तुलसी चौर के पास ही बना है रंगमंच
आ पहुँची हैं दो युवा नृत्यागनाएँ
अभी शुरू होगा ओखल नृत्य
अपने परिधानों को अनुकूल बनाती तैयार हो रही हैं नर्तकियाँ
लहंगों में फेंटे मार लिए हैं
आँचल से कस ली है कमर
अभी प्रस्तुत करेंगी जुगलबन्दी
अभी मंचित होगा वह ओखल नृत्य
उठा लिए हैं नृत्य के उपकरण
आ गयी हैं आमने-सामने जुगलबन्दी के लिए
अब शुरू हुआ ओखल नृत्य
पड़ रही है मूसल की चोट धानों पर
बिलबिलाकर भाग रहे हैं धान ओखल के बाहर
स्थित एड़ी पर पंजे की फटकार से
वापिस खेल रही है उन्हें झेलने को और मूसलमार
ऐन महिषासुर मर्दिनी की भंगिमा में।
गतिमान हैं दोनों वर्तुलाकार
थिरक रही हैं सुडौल पिंडलियाँ
द्रुत से द्रुततर होती जा रही है नृत्य गति
हवा में फहरा रहे हैं काकुल
दोलायमान है वेणी
(Poems of Shekhar Joshi)
दोलायमान हैं वेणी में गुँथे फुन्ने
दोलायमान हैं वक्ष
झूम रही हैं मूँगों की माला
झूम रहा है चवन्नी के सिक्कों का गलहार
क्रम से उठ रहे हैं गिर रहे हैं मूसल द्वय
आरोह-अवरोह के सुरों में खनक रही हैं चारों हाथों की चूड़ियाँ
उभर आये हैं माथे पर स्वेद बिन्दु
एक लय में फूट रही है होठों से श्रम की सिसकारी
लयबद्ध चल रही है जुगलबन्दी।
शेष हुआ नृत्य
टिका दिए हैं मूसल दाड़िम के तने से
पोंछ लिया है माथे का पसीना
परख लिया है हथेली में फूँक कर श्रम का प्रतिफल
और
चुप्पे से, मालकिन की नजर बचाकर
फाँक लिया है मुट्ठीभर
अपने श्रम का नवगीत।

छोरमुया

मुझे अब कौन नहलाएगा
लिए लोटा और नन्हीं बाल्टी
मैं अकेला ही बावड़ी पर गया
चकित देखा, एक नाटा पेड़ झबरीला
सरकता आ रहा है इस ओर
नहीं, वह गृहस्थिन थी
अपने गोधन का आहार लेकर आ रही वन से
बिसाया बोझ टेकरी पर श्लथ बदन, आरक्त मुँह
अंजुरी ओठों पर टिकाए संकेत करती प्यास का
गटागट पी गई भरा लोटा कि जैसे प्राण लौटे
बोल फूटे : ‘लला!’ एक लोटा और’
इस बार उसने तनिक कुरती उठाई दो नन्हे सफेदा आम झलके
उन्हें छपछपाकर खूब नहलाया
फिर पेट पोंछा चिपचिपाहट से मुक्ति पाई
बुदबुदाई : ‘न रो भब्बा, मैं अब्भी आई’
ये बोल लक्षित थे उस रुदन को जिसे केवल वह सुन पा रही थी
लौटी, सिर पर बोझ पंख पैरों में लगाए ओझल हो गई
कैशोर्य की देहरी पार करते ही जननी बनी
ओ माँ! मुझे अपना शिशु बना ले
(Poems of Shekhar Joshi)

1.  भेटौई : उत्तराखण्ड में चैत माह में बेटी को दिया जाने वाला पकवानों का उपहार
     छोरमुया : अनाथ, मातृहीन बालक

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