कविताएँ

गृहिणी का शब्द चित्र
शोभा सिंह

क्या काम करती हो
गहरे संकोच का जवाब
कुछ नहीं
घरेलू औरत
सर को गोल गोल घुमाये
बस एक दिन का जायजा ले
चक्की चलती ही रहती
काम के दाने डालती जाये
एक के बाद दूसरा
क्रम से होड़ लगाते
यह कैसी आपाधापी
साँस उखड़ जाती
उसके रूखे बाल
उड़ी चेहरे की रंगत
चिथड़ा हुए होंठ गाल
कांटे से चुभते
अपने ही रूखे हाथ
अपने में बुदबुदाती
जाड़े के छोटे दिन
कब कैसे बीता सर्र से
कभी साग काटने बैठती धूप में
जाड़े की धूप
गरमाई कैसी गुनगुनी
धूप में पसर जाने का लोभ छोड़
जल्दी से उठती
कमरों का जायजा
भूचाल से गुजरा घर
हर चीज अपनी सही जगह के लिये चीखती
प्यार से झाड़ पोछ कर अपनी जगह रखती
किताबें हसरत से सहेजती
एक दिन पढ़ेगी फुर्सत से
आज नहीं
अखबार तरतीब से लगाती
अनायास मुस्कुरा उठती
पति की खीझ भरी टिप्पणी
(Poems of S Singh and D Naithani)
अखबार इनके लिये रात की लोरी हैं
वह मन में रमती
काश पति के बजाय
चाय का इतमिनानी प्याला
अखबार के साथ वह पकड़े
खाना, झाड़ू-पोछा बर्तन, कपड़े
जल्दी का काग स्नान
झटके से बाल संवारती
भागती स्कूल की ओर
अक्सर गीले बाल
ब्लाउज पीछे से भीग जाता
बेटी देखते ही मुँह फुला लेती
तुम मैम की तरह स्मार्ट नहीं
स्कूल का रिक्शा लगाने के सवाल पर
झिड़का था पति ने
पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं
काम करता हूँ तब घर चलता है
आँख बंद कर सोचती
अब तमाम फालतू कामों से मुक्त रक्खूं
पानी, बिजली, टेलीफोन का बिल बच्चों की फीस
सब मैनेज करने की कोशिश करती
इसी आपाधापी में एक दिन
टकरा गई बचपन की सखी
भरे बाजार लिपट गई
आँखों में भरे पूरे पन की आत्मीय चमक
क्या काम करती है
कालेज के दिनों में
खूब लिखा पढ़ा करती थी
अब कविता कहानी कहाँ?
कुछ नहीं यार’
‘सिम्पल हाउस वाइफ’
गृहिणी कैसी हीन भावना से
अपने में सिकुड़ गई
कम पैसे हाथ तंग
सुख की नींद गायब
उन्हीं तंग दिनों में
पड़ोसन के कहने पर
औरतों की मीटिंग में गई
हल्की सी उम्मीद थी
शायद- कुछ पैसे वाला
सार्थक काम मिल जाये
बातें बहुत सी
(Poems of S Singh and D Naithani)
बहुत जल्दी-जल्दी बोलती थीं वे
लेकिन उसे समझ आई
हैरान हुई ऐसी नजर से
पहले उसने क्यों न सोचा
उसके हर काम की कीमत है
सुबह से शाम तक खटने की कीमत
अक्सर वह क्यों पिछड़ जाती है
उसका सारा वक्त घरेलू चक्की में
पिस जाता
अखबार और किताबें
और ज्ञान की बहस
कुछ तो अबूझ नहीं
उसकी भी दावेदारी है
वह कुछ नहीं करती
एकदम गलत
लेकिन है
हजारों औरतों में
कुछ न करने का दंश
कुछ तो करना होगा
नाइंसाफी की बात
अपने अंदर से कड़वाहट
जैसे थूक देती
एक बार फिर चुनौती स्वीकार
कमर में पल्लू खोंस
गोया तैयार
(Poems of S Singh and D Naithani)

तीन कविताएं : देवेन्द्र नैथानी
दादी

‘दादी! तुम भी बस
क्या-क्या बड़बड़ाती रहती हो
हर समय?
लो चाय पी लो’
वह कंपकंपाते हाथों में
ले लेती है-
पीतल की गिलास
सुड़कने लगती है चाय
सुड़कने लगती है
अपना एकान्त
जब भी मिलती है
दादी को चाय
अच्छा लगता है उसको
दादी,
देर तक बैठी बतियाती रहती है
चाय से
चाय हर दिन
कई-कई बार
जाती है उसके पास
दादी को सुनती है
दादी के पास हैं-
बहुत सी कहानियाँ
बहुत से किस्से,
बहुत से नाती
बहुत से पोते
बहुत सा समय
बहुत सा दु:ख
बहुत सी पीड़ा
बहुत सा एकान्त
बहुत से दिन।
दादी, रोज गिनती है
दिनों को
घंटों को
मिनटों को
अक्सर,
जब कभी चाय
देर से पहुँचती है
दादी देती है
बहुत सी गालियाँ
दादी के पास हैं-
बहुत सी गालियाँ
और बड़बड़ाहट।
(Poems of S Singh and D Naithani)

माँ

बढ़ती उम्र के बावजूद
माँ अब भी कर लेती है
घर का सारा काम
उसे नहीं रहती अपनी चिन्ता
सबके पेट भर
खाने के बाद ही
खाती है माँ-
बचा-खुचा,
सबसे बाद में
जाती है बिस्तर पर
दबे पाँव आकर
माँ के पैरों का
गठिया का दर्द
चुपचाप घुस जाता है।
बिस्तर के भीतर।
दूर कहीं बजता है समय
दूर कहीं भौंकता है कुत्ता
दूर कहीं सो रही होती है
-दुनिया, बेखबर
प्राय: मैं सुनता हूँ
माँ कराहऽऽ
बाहर,
चुपचाप गिरती रहती है ओस।
(Poems of S Singh and D Naithani)

पहाड़ी स्त्री

उसकी पीठ पर
बहुत ढेर सा है
बोझ
ढेर सी घास
ढेर सी लकड़ी
उसकी पीठ पर हैं
ढेर सी इच्छाएँ
उसकी पीठ है
बहुत छोटी
उसकी मुस्कुराहट
बहुत छोटी
छोटी है थमाली
बहुत छोटी है
उसकी बुलाग
और
उससे भी छोटी
उसकी जिन्दगी।
(Poems of S Singh and D Naithani)

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