कविताएँ : माया गोला

ललिता देवी

हाँ, यही तो था तुम्हारा नाम
हालांकि तुम अपने नाम के पीछे
‘देवी’ लगाना कतई पसंद नहीं करती थीं

18 बरस की होते-होते
सीख लिए तुमने गृहस्थी के सारे काम
खेतों और जंगल के काम निपटाते हुए
घास के गट्ठर के बोझ तले दबकर
दुखती थी तुम्हारी गर्दन
लगभग हर रोज

खेतों में काम करते हुए
मिट्टी की परत चढ़ती थी तुम्हारी उंगलियों पर
रोटियाँ सेकते हुए चूल्हे में
कई बार झुलसी थीं तुम्हारी उंगलियाँ
बर्तनों की कालिख
कई बार दीख जाती थी तुम्हारी गौरवर्ण उंगलियों में

खैर
19 बरस की होते-होते
तुम्हारा ब्याह हो गया
एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर
तुम मना करती ही रह गई
और तुम्हें
डोली में बिठा
विदा कर दिया गया
तुम्हारी दो छोटी बहनों का वास्ता देकर

दगा दे गई तुम्हारी किस्मत
तुम्हें शौक था पढ़ने-लिखने का
लेकिन पति तुम्हें शराबी मिला
इसे अपनी नियति मान
माँ के सिखाए गुरों से
चलाया तुमने गृहस्थी का काम
पिटती
लुटती
सहती रहीं तुम

एक के बाद एक
तीन फूल आ गिरे तुम्हारी झोली में
अनचाहे मेहमानों से
इनकी तोतली बोली में
तुम भूल गई सारे दुख
लेकिन तुम्हारे दुखों का अभी अंत कहाँ था ललिता देवी
(Poems of Maya Gola)

जिस दिन पीटा गया तुम्हें शराब पीकर
दीवार से टकराई थी तुम्हारी देह
कई-कई बार
अब भी दुखती है तुम्हारी देह
उस रात की घुटन से
अब भी रिसती हैं तुम्हारी आँखें

सोचा था तुमने
कई-कई बार
मार डालूं इसे
या खुद मर जाऊँ मैं
बरसात की काली-अंधियारी रातों में
उसके साथ अपने अंधेरे भविष्य को लेकर
सहम जाती थी तुम
तुम्हारे धैर्य को
अपने कंपकपाते हाथों और
लड़खड़ाते पैरों में लपेट
वह शाम को लौटता घर
अपना निढाल वजूद लिए

उस दिन
जब लौटी तुम दिन ढले
घास का गट्ठर लेकर
तुम्हें बताया किसी ने
कि वो नाली में औंधा पड़ा है
तुम दौड़ पड़ी थीं
लोगों का हुजूम था वहाँ
तुमने देखा उसे
और बस देखती रहीं
मुँह पर उसके मक्खियाँ भिनभिना रही थीं
उसके हाथ मक्खियाँ नहीं उड़ा सकते थे अब
तुम वहीं सड़क पर
गिर पड़ी थीं
टूट गई थीं तुम्हारी काँच की चूड़ियाँ

कई मिनटों के बाद
दर्द कतरे-कतरे होकर बहा
तुम्हारी आँखों से
पता नहीं उसकी मौत पर
या कि अपनी नियति पर

सुबह कफन के लिए वही पैसे दिए तुमने
जिन्हें पेट काट-काट कर बचाया था
और जिन्हें
किसी भी वक्त शराब के लिए झपट सकता था वो
जिसे
दुनिया तुम्हारा पति कहती थी…
(Poems of Maya Gola)

अहल्या एक पुनराआख्यान

पौराणिक कथा की पात्र
अहिल्या
कहा जाता है कि
अपने ऋषि पति के श्राप के कारण
बन गई थी प्रस्तर प्रतिमा!
लेकिन मैं कहती हूँ
कोई भी श्राप
बना ही नहीं सकता
दुनिया की किसी भी स्त्री को पत्थर
क्योंकि स्त्री की भीतरी तहें
उदारता और नरमी से बनती हैं
और ये तत्व पत्थर बन जाने के कतई खिलाफ हैं

हाँ संभव है ये कि
खुद ही चुन ली होगी अहल्या ने
पत्थर बनने की राह
अपनी उदारता और नरमी को साधकर

इसीलिए
ऋषि प्रताड़ना से टूटी अहल्या
मरी नहीं
जीवित रही पत्थर बनकर!
पत्थर-
जिस पर अब दिखा नहीं सकता था
ऋषि अपनी शक्ति और सामथ्र्य
पत्थर-
जिस पर
किसी के छल और ऋषि के बल का
अब होना न था कोई प्रभाव
पत्थर-
जिससे अब माँगा नहीं जा सकता था
कोई हिसाब….
(Poems of Maya Gola)

पत्थर बनना दरअसल
अहिल्या के प्रतिशोध का
सबसे धारदार हथियार था
कि लो-
अब करो मुझसे सवाल
अब करो मुझेकटघरे में खड़ा
अब दो मुझे सजा
उस गुनाह की
जो किया ही नहीं मैंने
कि मैं अब बेअसर हूँ तुम्हारे हर असर से…
इसी हथियार से
पौराणिक इतिहास में
अडिग रही अहल्या
क्योंकि उस समय
जब एक राजा की
होती थीं कई-कई रानियाँ
और ऋषियों की तपस्या भंग करने में भी
इस्तेमाल होती थी
स्त्री की देह
तब
अहल्या का पत्थर बनने का फैसला
खुद को बचाने का
एक शानदार उपाय था….
(Poems of Maya Gola)

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