कविताएँ

ये मेरा प्रेम पत्र….

कृष्णा कुमारी

आओ सहेज लें
पत्रों को/वरना हो जायेगा
एक युगांत/ये धरोहर है वक्त की
बहुत जरूरी है/संरक्षण इनका
क्योंकि मुखरित हैं/इन्हीं में
बालकों की मासूम शरारतें
उन की उन्मुक्त हँसी
उन के गुड्डों-गुड़ियों की
शादियाँ/उन की जन्म तारीखें
शादियों की उम्र/इन में लिखा है
परम्पराओं का इतिहास
सहज जिज्ञासाएँ/संभावनाएँ
प्रगाढ़ संवेदनाएँ/संस्कृति के भूगोल
आस्थाएँ/जिजीविषाएँ/कुंठाएँ/प्रतिशोध
इन पत्रों में अंकित हैं
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

प्रेमियों के संवाद/उनकी गुपचुप बातें
उनके शिकवे-शिकायतें
उन की मोहब्बतें
अप्रतिम अनुभूति
जाहिर है इनमें/ उनके
अज्ञात मिलन स्थल/उनके गुप्त नाम
इन्हीं में छिपा है/अनिर्वच आनन्द
छिप-छिप कर
स्नानगृह में/प्रेम-पत्रों को
दिन में कई..कई..कई..बार
पढ़ने का/
इन्हीं में मिलेगी ढेरों शुभकामनाएँ
अपनों की कुशल क्षेम
माँ की दुआएँ
पिता की हिदायतें/राखी का धागा
बेटियों का दुलार
अपनों की राजी-खुशी
होली के रंग/दीवाली की जगमग
बासंती सम्मोहन/फागुनी मादक बयार
खोज सकते हैं इनमें
समारोहों, सम्मेलनों के रिपोर्ताज
यादों के तहखाने/सदियों की वेदनाएँ
गरीबों की भूख-प्यास
जनता की सत्ता से बगावतें
तख्तों के मंसूबे
और भी बहुत कुछ/पढ़ा जा सकता है..
समन्दरों के बदलते तेवर
मौसमों की साजिशें/इतिहास की गलतियाँ
रनिवासों के रहस्य
सम्राटों के एशो-आराम
वनिताओं के उपालम्भ/मान-मनौवल
और भी इतना कुछ/ कि/
लिखे जा सकते हैं
हजारों-हजार महाकाव्य/इनके आधार
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

पर/ है अभी भी वक्त
बचा सकते हैं पत्रों को/वरना
अंतर्जाल इन्हें फाँस लेगा/अपने जाल में
और देखते व गाते रह जायेंगे हम
‘कबूतर जा..जा..जा..’
‘लिक्खे जो खत तुझे..’
‘चिट्ठी आई..है…आई…है’
बन जायेंगे इतिहास
‘कि मेरा प्रेम पत्र पढ़कर…’
कौन होगा नाराज…
तो…फिर…देर किस बात की
उठाइए कलम और…
लिखिए एक खत मेरे नाम/और
हर रोज/अपने…अपनों को..
ताकि ‘डाकिया डाक लाया…’
की अद्भुत खुशी/की प्रतीक्षा कर सकें/
हम सब.. /एक बार फिर/रोमांचित
हो सकें/प्रतिदिन…
और बचा रहे/डाकिये का वजूद।
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

हैड साहब

सुरेन्द्र पुण्डीर

सुबह की
घिसयाती धूप में
हैड साहब आते हैं-
खूबसूरत सपनों को लेकर
घुस जाते हैं-
ढेर सारी परिस्थितियों
संवेदनाओं उसकी/पीड़ाओं की
चिट्ठियों के बीच
बड़ी बारीकियों से देखते हैं
लोगों की चिट्ठियों के/लिफाफों को
और दहल जाते हैं-
लोगों के मनिआर्डर को देखकर
इन सब कतरनों को देखकर
जम जाते हैं-
अपने स्टूल में
लगाते हैं- कागजों पर मुहर
स्वतंत्रता की
धर्म निरपेक्षता की
समाजवाद की
सिकुड़ जाती हैं
उनकी छोटी गिल्लोरी आँखें
सारी उम्र गुजार दी है
सन्देशवाहक बनकर
पैकर बनकर
चेहरे पर
पिचके गाल
नौकरी के बीस साल के
तजुर्बे की निशानी हैं
और दाँत-
आजादी की खुली हवा खाकर
टूट गए हैं-
जैसे-
मंत्रियों के सिंहासन टूट जाते हैं
राजसत्ता की मरीचिकाओं के बीच
बिफर उठता है/उनका काला कोट
जो शादी की पहली सालगिरह में बनवाया था
कुछ सच्चाइयाँ दबा दी थीं दर्जी ने
बखिया करते समय
उन सच्चाइयों को खोजते /वे ठूँठ हो गए थे
उनके भारी भरकम पैरों/जूतों तले
दब जाती है
लोगों की
प्यार की
शादी की
मरने की
शुभकामनाओं की अनाम चिट्ठियाँ।
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

कविताएँ: पूरन बिष्ट

शहीद 1

कोने पर पड़ा है,
काले रंग से पुता टिन का सन्दूक।
जिस पर
सफेद हरूफों में दर्ज है
नम्बर- 4136682
रैंक- लांस नायक
रेजीमेंट- 6 कुमाऊँ
हरे रंग का बिस्तर बंद
जिसके कसे हुए फीते
खोले नहीं गये हैं, अब भी
सन्दूक के ऊपर रखा है
सन्दूक से लिपटकर
दिन-रात बिलखती रहती हैं माँ
पिता पहुँच जाता है
सुदूर नेफा
1962 की यादों में
चीनी गोला-बारी के बीच
और यंत्रवत चला जाता है हाथ
बाँये घुटने की ठूँठ पर
बहू की सूनी आँखें
जाने क्या तलाशती रहती हैं, सन्दूक में।
बार-बार खोलती हैं
उलट-पुलटकर देखती हैं
दुधमुँहा पोता तोतली जुबान में,
सन्दूक पर बैठने की जिद करता है,
मिट्टी की पाल पर रेंगते हुए
जब भी वह सन्दूक की तरफ बढ़ता है
बहू दौड़कर उठा लेती है उसे
और भींच लेती है सीने से
बदहवासी में देर तक
कुछ, बड़बड़ाती जाती है बहू।
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

शहीद 2

अभी-अभी लौटा घोड़िया
खबर लाया है बाजार से-
कुछ तार और आये हैं बलि, पोस्ट ऑफिस में
गाँव तो नहीं मालूम
मुझे देखते ही, रास्ता बदल लिया था पोस्टमैन ने
भगवान ही जाने क्यों किया होगा ऐसा।
खबर फैलते ही
जीवन ठहर गया है गाँव में
आँगन सिमट गये हैं, घर के भीतर
खामोश हो गयी हैं, मूसल की आवाजें
जातरों का शोर
जल्दी घर लौट आये हैं बच्चे
लकड़ी का बल्ला, चीथड़ों की बॉल
गिल्ली-डंडा, गोटियाँ और अड्डू
लावारिस बिखरे पड़े हैं, आँगन में
भूख से बिलबिलाती बछिया
रम्भा रही है
जोर-जोर से
नहीं सुनाई पड़ रहा है कहीं
‘ग्राम जगत’ और विनय ध्यानी का स्वर।
औरतों के दु:ख-सुख और चुहल
एकत्र नहीं हुए आज नौले के पाट पर
थरथराते हाथों से गगरी भरने की आवाजर्
सिहरन पैदा कर रही है वातावरण में
बच्चों के बस्ते नहीं खुलेंगे आज
न सुनाई पड़ेंगे ‘ओऽम जय जगदीश हरे’ के
सामूहिक स्वर
गाँव के सपनों में आज
रात भर घूमता रहेगा पोस्टमैन।
(Poems of Krishna/ Surendra and Puran)

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