कविताएँ

जयन्त साहा की दो कविताएँ

स्त्रियाँ

नदियाँ बहती हैं
हवाएँ चलती हैं
कलियाँ खिलती हैं
यानी सबके सब हैं स्त्रीलिंग
और भी स्त्री जनित रूप हैं प्रकृति के
जैसे  धूप-बारिश, रात-चाँदनी, इत्यादि
नदियाँ जब निकलती हैं घर से
अपने बाप या भाई से पूछकर नहीं निकलतीं
जब गुज़रती हैं हवाएँ वीरान जंगल से होकर
उसे अकेली जान कोई नहीं छेड़ता
कलियाँ तो कहीं भी, कभी भी रात हो या दिन
खिल उठती हैं बिना किसी की रोक-टोक के
तो क्या मान लें हम
स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं
कहीं भी आने-जाने के लिए
कहीं भी अपनी मर्जी से घूमने-फिरने के लिए
कहीं भी जहाँ जी चाहे खिलखिलाने के लिए
या इसका दूसरा पहलू भी है कोई
नदियाँ निकलती हैं कल-कल करती हुई
समन्दर में समाहित होने के लिए
हवाएँ दौड़ती हैं तूफाँ के डर से उसके आगे-आगे
और कलियाँ खिलती हैं फूल बनकर
अपने अस्तित्व को स्वाहा करने की खातिर।
घूमती हुई पृथ्वी
पृथ्वी घूम रही है
यानी घूम रहे हैं
पहाड़ मैदान, नदियाँ-समुद्र,
जल-जंगल, नगर-देहात, पेड़-पौधे,
पृथ्वी घूम रही है
और पृथ्वी के भीतर घूम रहा है
सदियों से एक वंचित, शोषित समाज भी
घूमती हुई पृथ्वी के साथ-साथ
घूमते हुए उस वंचित तबके को
लगता है कि
घूमती हुई पृथ्वी एक दिन उनकी तरफ  मुस्कुराकर
सोख लेगी उनका पसीना
घूमती हुई पृथ्वी प्यार से सहलाएगी उनकी फफोले लगी
हथेलियों को
घूमती हुई पृथ्वी बाँटेगी उनका दु:ख-दर्द चारों दिशाओं में
घूमती हुई पृथ्वी घूमते-घूमते ही सही छोड़ जाएगी
अपना कुछ हिस्सा उनके लिए भी सुरक्षित
घूमती हुई पृथ्वी के साथ
घूम रही हैं सदियों से
उनकी अपेक्षाएँ और अभिलाषाएँ।
मिट्टी और सोना
मिट्टी में महक है
और सोने में चमक
शायद चमक बड़ी चीज़ है
इसीलिए सोना महंगा है
और मिट्टी सस्ती है
मिट्टी में महक है
इसीलिए मिट्टी उगलती है सोना
सोने में चमक है
मगर दूर-दूर तक
मिट्टी जैसी संभावना नहीं।
(Poems of Jayant & Bharti Joshi)

भारती जोशी की दो कविताएँ

1.

मैंने देखा है
अपनी माँ की
उंगलियों को
ऊन के धागे से
उलझे हुए।
उंगली में उलझे होते हैं धागे, या
धागों में उंगली
समझ से परे रहता है मेरे।
लेकिन फिर भी
माँ को बुनती होती है स्वेटर
उलझे धागों और उंगलियों से
और मेरी माँ
बना भी डालती है
एक सुन्दर स्वेटर
कभी ना सुलझ सकने वाले धागों से।
वैसे ही माँ भी उलझी है
हमेशा ही
उन तमाम रिश्तों से
उन तमाम जिम्मेदारियों में
जिसने जकड़ के रखा है उन्हें
‘मनमर्जी’ से जीने को
वैसे तो औरत को
चिता में
आग लगाने का भी हक नहीं दिया
इस समाज ने
पर मेरी माँ ने
अपनी तमाम इच्छाओं की चिता पर
लगा दी है आग
बहुत समय पहले ही।
जो शायद उनका सपना हुआ करती थी
या सपने से भी ज्यादा उनकी आदत हुआ करती थी
(Poems of Jayant & Bharti Joshi)

2.

तुम बनाते हो उसे
अपने संगीत की पंक्तियों का
सबसे अहम हिस्सा।
तुम बन जाते हो इतने बड़े, महान लेखक
और संगीतकार भी, कि
तुम दिखाते हो, अपनी धुनों में भी उसे
एक बाजारु चीज की तरह।
तुमने अपने गीत और संगीत में
कभी नहीं दिया उसे
अपनी ही तरह का इंसान होने का दर्जा।
उसके बालों, उसकी आँखों, उसके होठों, उसके गालों
यहाँ तक कि उसकी चाल-ढाल को
और उसके शरीर के हर भाग को
तुम परिभाषित करते हो अपने संगीत में
अतिशयोक्ति अलंकार की तरह
बढ़ा-चढ़ाकर
जैसे की तुम्हें सम्मोहित करना हो
वर्षों से चली आ रही
पुरुष सत्ता को और उस सोच को
जिसके चंगुल में फँसी है
महिलाएँ भी उतनी ही
जितने कि पुरुष
(Poems of Jayant & Bharti Joshi)