कविताएँ- जसिन्ता केरकेट्टा

भूख का आग बनना

भूख जब आग बन रही हो
तब डिग्रियाँ चुपचाप उठकर
उस आग की ओर चल देती हैं,
और कागज पर उतरने से पहले
स्याही की देह, घुलने लगती है
किसी गहरी चिंता में।

तब, रात भर खटिया की रस्सी
लगती है थोड़ी और खुरदुरी
जैसे उसी खुरदुरेपन पर
जिन्दगी, बार-बार उठकर
फिर चलने की कोशिश कर रही हो।

तब, मुर्गे के बांगने से पहले ही
हो जाती है एक सुबह
और धूप निकलने तक
आंगन में ऊँघती रहती है रात।

तब एक दिन
उठती है कहीं
कुरथी की दाल से
भाप की लहक,
पत्ते में लिपटी
रोटी से राख की महक
और बदल जाती है कविता में।

कविता, भूख की आग पर
पकती हुई गुनगुनाती है,
और उठने लगती है एक साथ
कई घरों की आग
भूख के सारे कारणों के खिलाफ।।
(Poems of Jasinta)

साजिशों की सिक्स लेन

सारंडा के जंगलों से निकलकर लोग
जुट रहे हैं किसी गाँव में।
स्त्रियाँ चली आ रहीं बच्चे बेतराकर,
बूढ़े लाठियों से नापते घाटी
जवान और पहाड़ फाँदते
और
बच्चे गिनते आ रहे सखुआ के पेड़।
किसी अलगुलान के लिए नहीं,
यह जुटान है
फुटबॉल के खस्सी टूर्नामेंट का।

गाँव में बच्चा जैसे ही छोड़ता है
माँ का दूध
बना दिया जाता है सारंडा के
किसी युवा-क्लब का हिस्सा
जिसके पीछे है एक अलग किस्सा।
अपनी जमीन पर अवैध खनन के
खिलाफ
उठ सकने वाली हर आवाज के हाथों
किताब की जगह होता है, फुटबॉल।
इन खस्सी टूर्नामेंटों में
सारी पढ़ाई हो जाती है गोल।

रफ्ता-रफ्ता सूंघता है वह
फुटबॉल की अफीम,
पथराती आँखें नहीं देख पातीं
खेल के हार-जीत से आगे
अपने अस्तित्व का संघर्ष

मैदान में निचुड़ चुकी है उसकी ऊर्जा
देखती है अपनी देह पर
जोंक की तरह चिपकी भूख को
कुलबुलाती हुई,
तब उसके हाथों में
थमा दिया जाता है फावड़ा
और वह पेले, माराडोना, नेमार या मेसी
बनने के सपने के लिए बन जाता है
अपनी ही माँ को छलकर
उसका गर्भ खोदने वाला बेबस मजदूर
(Poems of Jasinta)

गाँव के हर दरवाजे पर
पहुँचते हैं खनन के पैरोकार।
भूख, बीमारी, बेरोजगारी व लाचारी से
तड़पकर ज्यों ही
आह भरते हैं लोग,
ठूँस दिया जाता है उनके मुँह में
अनाज, दवाइयाँ, बासन, कपड़े
और सस्ते में उठा लेते हैं
मजदूरों का कुनबा।

विकास के नाम पर अब वहाँ
बन रहीं चार-छह लेन की सड़कें
उन रास्तों पर मजदूरी करते लोग
नहीं जानते सारंडा में
साजिशों की और कितनी लेनें हैं?

सिरहाने का सूरज

ओ गांगु पहाड़िया!
तुम सफेद कुर्ता पहन
नशे में घूम रहे हो मंगर बाजार
और वहाँ पहाड़ पर
तुम्हारी बेटी पड़ी है खाट पर
देकर एक बच्चे को जन्म
अधमरी सी बीमार।

तुम अपनी बेटी के दर्द बेच रहे
बिहान से ही आकर बाजार
सौ, दो सौ, पाँच सौ मदद की
लगा रहे परिचितों से गुहार
कुछ पैसे लोगों ने तुम्हें दिए भी
देखकर तुम्हें लाचार।
तुम साँझ झौंक आए अब शराब में
नहीं याद आई बेटी, तुम्हें एक भी बार।

ओ पहाड़ के राजा!
क्यों नहीं तुम्हें सुनाई पड़ती
अपनी ही बेटियों की चीत्कार?
तुम सोते रहते हो नशे की नींद में
और मेला देखने आई तुम्हारी बेटियों का
शहरी भेड़ियों के हाथों हो रहा बलात्कार!
(Poems of Jasinta)

ओ मईसा पहाड़िया!
क्या तुमने नहीं उठाया था जिम्मा
हर पहाड़िया को दिलाने भोजन का अधिकार?
अब तुम क्यों बस गए
पहाड़ से भागकर सपाट तराई में
उन्हीं लुटेरों के बीच, सपरिवार?

भेदकर तुम्हारी आजादी की दीवारें
तुम्हारे पहाड़ों पर वे मशीनें चला रहे,
और पहाड़ बेचकर कौड़ी के भाव
तुम उनके दरवाजों पर भीख मांग रहे।

उठो, पहाड़ों के राजा
बचाने अपने पहाड़ों को कटने से,
अपनी बेटियों को गैरों के हाथों बिकने से।
देखो, इतिहास का पन्ना फिर से फड़फड़ा रहा
तुम्हारे सिरहाने से सूरज निकल रहा।।
(Poems of Jasinta)

जमुनी तुम हो कौन?

ओ जमुनी! देखो,
तुम्हारा दर्द हर दिन अब
सजा रहा खबरों का बाजार।
देस से लेकर देशों तक
तुम्हारे दर्द कैसे बिक रहे!

पति से तुम्हारे पिटने की,
पड़ोसी के तुम पर दुष्कर्म की,
प्रेमी से मिले अनचाहे गर्भ की,
होने वाली तुम्हारी हत्या की,
शोषण और उत्पीड़न की,
चटपटी, मसालेदार बनाकर खबर,
तुम्हारे दर्द का हो रहा व्यापार।

तुम रेडियो, टीवी, इंटरनेट पर,
हर दिन की खबरों में
देखती हो, पढ़ती हो, सुनती हो
टकटकी लगाए घर पर मौन
सोचती हो, इन सबके बीच
तुम हो गयी कहीं गौण।
दर्द हो, खबर हो, या हो इंसान,
जमुनी, तुम आखिर हो कौन?
(Poems of Jasinta)

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