गीता गैरोला की दो कविताएँ

मन हत्या

यहाँ से जाना होगा
अब बस
सोचने, समझने का समय
खत्म हुआ,
जाना ही होगा
कहीं भी औरतों के उस झुंड में
जहॉँ कुछ हाथ
हौले-हौले सहलाएँगे
कुछ आँखें
गीली शंकित सी
प्रश्नाकुल होंगी
कुछ पैर पीछे से पैरों को ठेलेंगे
और कुछ
आगे चल रहे होंगे
ऐसा ही झुंड औरतों का
जो उन अहसासों से
मुक्त कर दे
जिनमें बँधी बार-बार
वे अपने मन की हत्या करती हैं
अनदेखी
मन हत्या
इस हत्या के लिए
दोषी हैं सब
सज़ा देंगी
ऐसी ढेरों मन हत्यारी
औरतों की भीड़
और खींच कर मुक्त कर देगी
दरिन्दों से भरे
इस महा जंगल में लड़ने को
मन हत्या की लड़ाई
यहॉँ से जाना ही होगा
दोष मुक्त होने के लिए।
poems of G Gairola & S Melkani

नूपीलान की मायरा पायबी

उग गया है तुम्हारे भीतर
एक बनैला सूरज ले रहा है आकार
तुम गाहे-बगाहे क्यों मुस्कुराती हो इरोम
जेल की अधूरी हवा में
अपने खेतों में गबारे धान की महक को
अपने फेफड़ों में भर लो
इस गमक से तुम्हारे उगाये
बनैले सूरज को ताप मिलेगा इरोम
तुम्हारी काती चादर
थंग्जम मनोरमा के खून से लिखी,
मणिपुर के चौराहों पर अब भी टंगी है
जो नूपीलान की मायरा पायबी को जिलाये है
कांगला गेट के बाहर
बारह आदमज़ाद मायरा पायबी
तुम्हारी नाक में लगी नलियों के रास्ते
ख़ून में दौड़ रही है
जो तुम्हारा है उसे ही हथियार बनाया है तुमने
इतिहास अधूरा है
तुम इसीलिए धरती पे आई हो इरोम
एक दशक से ज़्यादा हो गया
तुमने कोई स्वाद नहीं चखा
तुम सबको चखा रही हो मधुर स्वाद
सुना रही हो मद्घिम सा राग
दुनिया के सारे स्वाद
तुम्हारी प्रतीक्षा में है इरोम
जिस दिन तुम्हारी जीभ इन स्वादों को चखेगी
मायरा पायबी का नूपीलान
सारी दुनिया में अंकुरित होगा
poems of G Gairola & S Melkani

स्वाति मेलकानी दो कविताए

कब सीखोगे तुम

कब सीखोगे तुम…..
खाली पन्नों पर लिखी
कविता पढ़ना।
मेरी आवाज का
नकाब हटाकर
अपने कानों को
मेरी खामोशी तक ले जाना
और सुनना
ठहरे पानी में
सदियों पहले डूब चुके
पत्थरों के
गिरने की अनुगूँज को।
कब सीखोगे तुम….
मेरी भटकी आँखों में
अपना पता लगाना।
पाँचों उँगलियों से बँधी
मेरी बन्द मुट्ठी के
ढीलेपन को समझ पाना।
मेरी सधी उड़ान के
कम्पन को महसूस करना।
तेज रफ्तार से ढके
मेरे लड़खड़ाते पैरों को देख पाना।
कब सीखोगे तुम…
खौलते पानी में
उठते बुलबुलों से
मेरे हर आवतरित झूठ के
तपे हुए
सच को पकड़ पाना।
poems of G Gairola & S Melkani

अम्मा को देखकर

अम्मा, तुम बीड़ी पीती हो
और तुम्हारी आजादी का
एक धुँआ-सा फैल रहा है
आसमान में
तेज धूप है
और सामने की चोटी पर
तुम बैठी हो
अपनी ही काटी घास के
गट्ठर पर पीठ टिकाए।
काले और भावहीन चेहरे पर
कई लकीरें भर डाली हैं जंगल ने
सूखती देह पर
पेड़, झाड़ियाँ और कैक्टस उग आये हैं,
लेकिन इन पलकों में अब तक
हरी बेल वह झूल रही है
जिसमें जंगली फूल खिले थे
सुर्ख लाल अपने ही जैसे
आश्चर्य…. इस फैले सन्नाटे में भी
कैसे न सुन पाया कोई
बसन्त की आहट।
सबके ही तो कान लगे थे
उस दरवाजे की साँकल पर
जिसके भीतर तुम रहती थी
निरी अकेली।….
poems of G Gairola & S Melkani
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