कोरोना काल की कविताएं

-रश्मि बड़थ्वाल

मृत्युपर्व

दोष सूरज का था
कि जलती थी सड़क
दोष हवा का था
कि हम थे नंगे पैर
दोष पानी का था
कि हो गया था नजरों से ओझल
दोष धरती का था
कि चलने को थे हजारों मील
दोष आकाश का था
कि वह हंस रहा था हम पर
आपका तो दोष कुछ भी नहीं साहब
हम ही मसखरे थे
कि सड़कों पर मनाया मृत्युपर्व!
खून सनी रोटियां
क्या फर्क पड़ता है
हम सोलह थे
छब्बीस छत्तीस या छियासी
समस्या तो हल हो गयी न
संवर गयी कुछ तुम्हारी दुनिया
चल दिये कुछ गरीब
क्यों मरे कैसे मरे मत सोचो
अपने महान दिमागों से लगे रहो
अपना घर भरने में
घर को बड़ा करने में
नकली एड़ियों के सहारे नकली चमक जुटाते रहो
हमारी मौत को भी भुनाते रहो
अपनी संवेदना का चमकदार फुग्गा
झुलाते रहो फुलाते रहो
जब तक हम जिये उठाया तुम्हारा भी बोझ
अपने बोढिल जीवन के साथ
जब तक सांस चली कष्ट सहे तुम्हारे हिस्से के भी
अपने हिस्से के तो उठाने ही थे
जब तक हम उठ सके अपने पैरों पर
हमने उठाये तुम्हारे भी जोखिम
तुमने फेक कर ही दी हमें सूखी रोटियां
लो लौटा देते हैं तुम्हें अपने खून में सान कर!
महामारी में मासूम
मत रोओ मेरे मरने पर बाबा
था भी क्या आखिर
मेरे बचपन की पोटली में!
भरम थे उलझन थी अंधेरा था
नानी थी कहानी नहीं थी
दादी थी गोदी नहीं थी
वे दोनों तो रहती थी गांव में
मां थी पर लोरी नहीं थी
तुम थे पर तुम भी कहां थे बाबा!
तुम दोनों तो जाते करने मजूरी
और मैं भटकती अकेली
दुनिया भर के लोगों को देखते
मेरे पास बस भरम थे उलझन थी अंधेरा था।
हजार मील चले थे न हम बाबा ?
पांव पांव
दूर कितनी दूर होता जाता था अपना गांव
महीनों चल कर भी क्या मिला गांव में ?
शहर की झुग्गी बस्तियों में
नहीं दिखता था कोई स्कूल न पाठशाला
गांव वापस आकर मिला भी तो कैसे बाबा
पढ़ने के लिए नहीं
सबसे अलग कर दिये जाने के लिए!
यहां भी मेरे बचपन की पोटली में
भरम थे उलझन थी अंधेरा था बाबा!
एक विषधर के डसने से
मैं दर्द से छटपटायी तो बहुत
पर मेरी पोटली की गांठ खुल गयी बाबा
न भरम रहे न उलझन न ही अंधेरा रहा बाबा!
कर्तव्य- अकर्तव्य
बाहर मृत्यु की आहट है अभी
भीतर जाओ मित्र
छांट लो कूड़ा कर्कट अवांछित अनुपयोगी
बाकी सब कुछ को निखार लो संवार लो।
अवसाद से कहो वह बाहर ही रहे
भीतर है प्यारा परिवार
अभी हैं करने काम बहुत सारे
अपनों के साथ
अपनों के लिए।
तनाव से कहो भागता दिख यहां से
याद आ रही है मुझे
टूटी हुई खुशबू कलम कूंची घुंघरू
उनसे करने दो दोस्ती गहरी और गहरी।
निराशा से कहो यहां तेरा नहीं कोई काम
फुरसत नहीं तनिक
अपनों से अपनेपन से और सृजन के संसार से।
याद न करना खोयी हुई अफरातफरी को
उस अशांत समय को जो मार देता था तिल तिल
या बनाता था इतने दबाव
कि एक ही झटके में कर सकता जीवन की इति।
ठहरे हुए मन से देखो
स्ंवरे हुए घर में बिखरा हुआ है
परिवार का माधुर्य
कुछ कसर है तो पूरो उसे मित्र
भावना से भर लो लबालब कलश को
कुछ उलझा है तो सुलझाओ उसे मित्र
बुन डालो झिलमिल मजबूत चादर नेह की।
बाहर मृत्यु की आहट है अभी
भीतर जाओ मित्र
वहीं से मना लो रूठी हुई प्रति को
वचन दो उसे नहीं फंसोगे प्रलोभनों में
नहीं ठानोगे उससे रार
करते रहोगे सदा उस से भी प्यार
मान जाएगी वह
नहीं रूठी रह सकतीं अधिक देर तक मांएं!
अभी तो भीतर जाओ मित्र
साफ साफ देखना
कहां कहां क्या क्या हुई गड़बड़
विश्वास करो मित्र सब ठीक हो जाएगा
बस तुम ईमानदारी साथ लेकर जाना भीतर
और छांटना संवारना संकल्प करना
मिलेगी तुम्हें नयी दुनिया
नयी दुनिया के लिए होना तैयार
नयी सोच नये यत्न नयी संवेदना के साथ
पर अभी तो बाहर मत निकलना मित्र
बाहर मृत्यु की आहट है अभी।
भीतर के जीवन को भीतर की आस्था को
भीतर के प्रेम को भीतर के विश्वास को
निखारने का समय है यह
सुधार लो निखार लो संवार लो
बस बाहर मत निकलना मित्र
बाहर मृत्यु की आहट है अभी।
बदलेगा समय
नहीं रहेगा हमेशा महामारी का घमासान
पार किये हैं हमने पहले भी सैकड़ों दावानल
हजारों झंझावात।
भंवर से खाई से आग से
हर संकट से निकले ही हैं हम कुंदन बन कर।
देवी होंगी नदियां कल भी
देती रहेंगी हर जीव को जीवन
देवता होंगे वृक्ष कल भी
देते रहेंगे छांव दवा फल फूल आहार
पर्वत सागर आकाश और धरती
देंगे हमें प्रेरणा कल भी
बस अपने सिकुड़े हुए सोच की सलवटें
अब मिटा ही डालना मित्र
नयी दृढ़ता नयी ऊर्जा से
और नये साझेपन के साथ जाएंगे बाहर
अभी तो बाहर मत निकलना मित्र
बाहर मृत्यु की आहट है अभी।