संस्कृति

जड़ें

भुवन बिष्ट

बेटा,
तू भविष्य तलाशने गया था शहर
मेरी बुझती आँखों में
खेतों का वर्तमान गिरवी रखकर
विश्वास भरकर
कि तू वापस जरूर आयेगा
बंजर खेतों को
फिर से लहलहायेगा।
जब दूसरे के खेतों में देखती हूँ
फलदार पेड़
जब कभी दूर से आती है
लोरी और किलकारियों की आवाज
फूट पड़ती है ममता
चू पड़ती हैं आँखें
अधूरी उड़ान के दबे-कुचले सपने
मुझे ला पटकते हैं
अतीत के गर्त में।
कैसे भूलूं
तेरा बचपन में अनाथ हो जाना
कैसे भूलूं तेरा शहर जाना और
वहीं का होकर रह जाना
अचानक सालों बाद आना
और कहना
‘ईजा में अकेले नहीं आया हूँ
तेरे लिए बहू भी लाया हूँ।’
मैं समझ गयी थी
तू जाने के लिये ही आया है
तो फिर क्यों सुनायी किलकारियाँ
क्यों खुलवाया
ममता का बंद पिटारा
मेरी झोली में
आखिर कब तक रहेंगी
झूठी खुशियाँ
पैंचे की किलकारियाँ
बुसीले बीज
दान में मिली रोटियाँ
और बहू के सच्चे ताने
‘गाँव में बच्चों का
(Poems of Bhuwan and Rashmi)
कोई भविष्य नहीं है
इन गँवार लोगों को आता ही क्या है’
सच तब से दिन जोड़-जोड़ कर
गिनती सीख गयी हूँ मैं।
आज पाँच बरस छ: महीने
एक बीसि आठ दिन हो गये हैं
तुझे गये हुए
लोगों से मिलती है
तेरी आसल-कुशल
और मेरी खाली झोली भर जाती है
तेरे भेजे
रुपये और दवाइयों से।
तू ठीक कहता है
बच्चों के भविष्य के लिये
गाँव छोड़ना ही पड़ेगा
पर मैं कहाँ से लाऊँ ताले
बिना सांकल के दरवाजों के लिये
कैसे गोठियाऊँ इष्ट देवता को
कैसे छोड़ दूं
उन पौधों को जिन्हें
बारिस की आस में
अभी-अभी रोपकर आयी हूँ
एक दिन
ये भी बड़े हो जायेंगे
तेरी तरह
कुपोषण की शिकायत लिये
खड़े हो जायेंगे।
ये करम हैं मेरे
जिनसे चिट्टी बन नहीं सकती
अभी क्या-क्या भोगना है
कह नहीं सकती
(Poems of Bhuwan and Rashmi)
रौखड़ आबाद करने से भी
ज्यादा कठिन है
मन का समझाना
कभी सोचती हूँ
काश मैंने बेटी जनी होती
तो शायद
ममता घनी-घनी होती।
बेटा तू आबाद रहना
शहर में अपना भविष्य जोड़ना
ये मातृभूमि है तेरी
इससे मुँह मत मोड़ना
हो सके तो अपने बेटे को भी समझाना
गाँव की मिट्टी से जड़ें हैं हमारी
इसको भूल न जाना।

क्या हुआ माँ
रश्मि बड़थ्वाल

बिस्तर से लगी औरत की
लगती है जब आँख
झाँकता है हौले से
एक मासूम चेहरा
पलकों के कोने से पुतली के भीतर
पूछता है स्नेह और करुणा से भीगकर
क्या हुआ माँ
कहती है कोमल बच्ची
लेटी रहो चुपचाप आराम करो
मैं धो-माँज दूंगी बरतन
कर दूंगी झाड़ू-पोछा
सुधार-संवार दूंगी सारा घर
तुम क्यों चिन्ता करती हो माँ
क्या हुआ जो नहीं पूछते तुझे
तेरे बेटे और तेरा पति
मैं हूँ न!
मैं पका दूंगी खाना
सजा दूंगी मेज
समय पर चाय-नाश्ता सब कुछ
नहीं मुरझायेंगे तेरे पौधे माँ
मैं सीचूंगी प्यार से तेरी क्यारियाँ तेरे गमले
फोन के लिए भी मत उठना माँ
मैं बता दूंगी तेरा हाल
पहचानती हूँ तेरे वांछित अवांछित को
नहीं करेगा कोई तुझे परेशान
तू कहेगी तो
तेरे पत्र भी पढ़ कर तुझे सुना दूंगी मैं
और तू बोलेगी तो
लिख भी दूंगी उनके उत्तर
चाहेगी तो किसी से कुछ भी न कहूंगी
तेरे फोन और पत्रों के बारे में
तू क्यों शरमाती है माँ
तेरी कोख में मैं भी रही थी
बिल्कुल नंगी
और जन्मी भी थी ऐसी ही
तुझे तो ढक करीने से
नहला-धुला दूंगी कपड़े पहना दूंगी
कहती है
पलक की कोर पर आँसू बन कर
अटकी हुई लड़की
माँ मैं हूँ न, माँ मैं हूँ न, माँ मैं हूँ न!
(Poems of Bhuwan and Rashmi)

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