कविताएँ: दिव्या

Poems by Divya
खोज जारी रहे

निकल पड़ी हैं
अपने वजूद की तलाश में
दहलीजें लांघकर
लंबे सफर के लिये 

ये तलाश है
खुद से लड़ते हुए
खुद को पाने की

टूटकर बिखरने के बजाय
लड़ते हुए
जी जाने की

ये चुनौती है
खोखली मान्यताओं को
झुठलाने की

ये उम्मीद है
फिर नयी तलाशों के
सफर पर निकल जाने की

सीखने की सिखाने की
सुराखों से रोशनी लाने की
ये सफर जारी रहे उनका!!!

हम लड़कियाँ

हम बेबाक, बकैत, 
घुमंतू लड़कियां
प्यार मोहब्बत करतीं
अपने रास्ते खुद तलाशतीं

सवाल करतीं
जिनके पूछे जाने से
हुक्मरानों की चूलें
हिल जाती हैं

हम लड़कियां
पैदायशी नहीं थीं ऐसी
चाहती तो
बन जातीं
सीता, सावित्री
त्याग की देवी, सहनशीलता की मूर्ति
टाइप कुछ भी

लेकिन
हमने चुनी
बगावत
अपनी शर्तों पर
जिन्द्गी जीना
बेखौफ होकर यही बात
चुभ रही है
कई जोड़ी आँखों में
और कई में
ला रही है चमक।

डर उन्हें भी लगता है

डर उन्हें भी लगता है
साये से निकल
आवाज उठातीं
स्त्रियों के हौसले से
मासूमों के बहाए रक्त
के मिलके एक हो जाने से
भड़कायी आग की राख के
दिशाओं में फैल जाने से

डर उन्हें भी लगता है
पैकेज के बजाय
व्यवस्था पर सवाल उठाते
शिक्षण संस्थानों से
तर्क करने वालों से
साहित्य, कला, विज्ञान से
आदिवासियों की एकजुटता से
किसान के लाल पसीने से|
महिलाओं, दलितों की आत्मनिर्भरता से

धर्म की आड़ में लिपटा
डर भगाउ यंत्र भी
नाकाम हो रहा है अब
भय के विरेचन में

इसलिए
तांत्रिक योगी भोगी जोगी
सभी कूद पड़े हैं
मोर्चा सँभालने
घिनौने हथकंडों के साथ

लेकिन
रौंदी गयी धूल
बिखरी हुई राख
उठता धुँआ
पसीने की महक
खून की रक्तिमा
महसूस करवा ही देती है
अपना वजूद

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