कविताएं

लड़कियाँ
अक्षय जैन

खट्टा-मीठा जामुन थीं
लड़कियाँ
नहाने का साबुन थीं
लड़कियाँ च्यवनप्राश थीं
मूर्ख कवियों के लिए
नीला आकाश थीं
मोनालिसा की मुस्कान थीं
फौज द्वारा
उजाड़े गये शहरों के
खाली मकान थीं
पथरायी धुनों का कत्थक थीं
देर रात
किवाड़ों पर पड़ने वाली दस्तक थीं
डाक बंगलों से
उठने वाली
चीखों का सरगम थीं
लड़कियाँ
राजनेताओं, माफियाओं, क्रिकेट खिलाड़ियों
और क्रांतिकारियों के लिए
च्युंगम थीं
जब तक बुर्कें में थीं
कौम की शान थीं
जब तक घूँघट में रहीं
सोने की खान थीं
लड़कियाँ मोहल्ले की इज्जत थीं
लड़कियाँ मोहल्ले के लीडरों की मिलकत थीं
हुस्न का खजाना थीं
सारे ग्रीटिंग कार्ड्स और
र्गिमयों में पहाड़ों की सैर के बावजूद
(Poems of Akshy, Ramesh and Jyoti)
लड़कियाँ
दो वक्त का खाना थीं
भूख से तलाक तक
खुदकुशी से हत्या तक
ग्लैमर से गुमनामी तक
खौफनाक सफर थीं
लड़कियाँ
जिन्दा जलाये जाने का
शाम के अखबार में
एक रोजमर्रा की खबर थीं
कठपुतलियों का खेल थीं
केशवर्धक तेल थीं
पक्षियों की खनखनाती बोलियाँ थीं
नींद की गोलियाँ थीं
सपनों की आहट थीं
कभी न थकने वाली
टाइपराइटरों की खड़खड़ाहट थीं
पूस की कड़कड़ाती ठंड थीं
गजलखोर शायरों की फूहड़ तुकबन्दी थीं
बलात्कारियों के पक्ष में
जाने वाले कोर्ट के फैसले थीं
गर्भपात कराने वाले
डाक्टरों के हौसले थीं
बेटों को जनने वाली
वंश को बढ़ाने वाली
चरित्रहीन पतियों को
अनदेखा करने वाली
तार-तार साड़ी में
बदन को छिपाने वाली
सास-ससुर, देवर-जेठ, ननदों के
सौ-सौ नखरे उठाने वाली
करवा चौथ मनाने वाली
लड़कियाँ जनम से विषपायी थीं
लड़कियाँ जनम से परायी थीं
लड़कियाँ हिन्दू थीं
लड़कियाँ मुसलमान थीं
धौलपुर से दुबई तक
बिक्री आसान थीं
लड़कियाँ जवान थीं।
(Poems of Akshy, Ramesh and Jyoti)

अरण्य-रोदन
रमेशचन्द्र पंत

गर्भ में धारण किए हुए
अपने आने वाली संतान को स्त्री
एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति कर रही है
हर क्षण अलौकिक आभा की दीप्ति
दिखाई दे रही है चेहरे पर
लेकिन अपने लिए नहीं
उसके लिए जो पल रहा है गर्भ में
पूरी दिनचर्या ही बदल गई है उसकी
खो बैठी है सुध-बुध अपनी
घूम रही है अपनी आने वाली पीढ़ी के आस-पास
उठना-बैठना, खाना-पीना, सोना-जागना
हर किसी के केन्द्र में बस वही है
सप्ताह में तीन दिन
व्रत-उपवास रखने वाली स्त्री
अब नहीं रखती व्रत-उपवास
कर लेगी वह ईश्वर को फिर कभी खुश
माँग लेगी क्षमा
फिलहाल तो उसका ध्यान
गर्भस्थ शिशु पर है
जन्म लेता है शिशु
चकरघिन्नी-सी काटती रहती है उसके आस-पास
दुनिया सिमट गई है उसी तक
समय बढ़ता रहता है आगे
उम्र के एक निश्चित पड़ाव पर आती है वह
और अकेली पड़ जाती है
और काट देती है अपना शेष जीवन अरण्य-रोदन में
जिसे कोई नहीं सुनता
वह शिशु भी नहीं
जो अब रहता है एक दूसरी स्त्री के साथ।
(Poems of Akshya, Ramesh and Jyoti)

ड्यूटी वाली माँ

ज्योति राज प्रसाद

मेरे बच्चे
उस फूल की डाली
या उस खिलौने से बहला,
मैं छुड़ा लूंगी,
तेरी मुट्ठी में कसा
अपना आँचल…
अद्र्धनिद्रा में
तेरे दूध की प्यास को
अपनी ‘थपकी’ से मिटा
तेरी नन्हीं उंगलियों के बीच से
अपनी ‘तर्जनी’ निकाल
मैं चल पडू़ंगी…
तेरी मधुर पुकार को
अनसुना कर
तेज कदमों से बढ़ चलूंगी
और कानों में
तीव्र से मध्यम होते
मिश्री में घुले स्वर
गूँजते रहेंगे…
मम्मा ऽऽऽ मम्मा ऽऽ
मत देख बेटा
इन प्रश्नवाचक नजरों से
निष्ठुर नहीं हूँ मैं
निरुत्तर हूँ…
बेपरवाह भी नहीं
माँ ही हूँ मगर
‘ड्यूटी वाली माँ’
(Poems of Akshya, Ramesh and Jyoti)