कविताएं

बड़ी होती लड़की

शीला रजवार

1.

भादों का
महीना आ गया था
माँ ने
पुरानी फटी/सुन्दर किनारी की
साड़ियों से
मेरी गुड़िया के कपड़े सी दिये
पुरानी गुदड़ियों से
सुन्दर गुड़िया बनाई
जो
दुनियाँ की सबसे कीमती और
सुन्दर गुड़िया थी मेरे लिए
फिर जुटाया सरंजाम
गुड़िया की शादी का
क्रम चलता रहा
हर बार पूछते
मामा चाचा फूफा
गुड़िया! तेरी गुड़िया कैसी है?
थपथपा देते गाल
ला देते रेशमी रुमाल
या ऐसा ही कोई उपहार
मेरी गुड़िया सँवर जाती
सज जाती मैं भी
सजने सँवरने का
क्रम चलता रहा यूँ ही
चलता ही रहता
अगर मेरी बढ़ती उम्र का फर्क
लोगों की आँख से झाँकने
न लगता
अब मामा चाचा
गुड़िया से गुड़िया का हाल न पूछते
पिता के सिर से जोड़ सिर
या सिर्फ उनके कानों तक
पहुँचती आवाज में
फुसफुसाते मंत्र डालते रहते
और कुछ टूटे फूटे शब्द
मुझ तक पहुँचते
लड़की जवान हो गई
ठौर ठिया देखो इसका
फलां का लड़का/पोता
मेरे उस की उसके
भाई के भाई का भतीजा
है….
गुड़िया, गुड़िया की गुड़िया
मौन ….
आँखों आँखों में एकटक ताकते प्रश्न समेटे
सन्नाटे से घिरे
मौन….मौन….मौन….मौन….
(Poem)

2.

मेरी मौसी कहती थी
बार-बार
कितने ही बड़े हो जांय बच्चे
हमारे लिये तो बच्चे ही रहेंगे
मैं उंगली पकड़कर चलती थी जब उनकी
फिर कमर से ऊँची होते-होते
जा लगी कन्धों से
मेरे भाई उनके कद की
ऊँचाई से भी ऊँचे हो गये
तब भी
वे कहती हैं उनसे
कितने ही बड़े हो जायें बच्चे
हमारे लिये तो बच्चे ही रहेंगे
लेकिन मुझसे
नहीं कहती अब यह
कर लिया है मुझे, शामिल
अपनी कतार में
भाई की रोटी पकाना
कपड़ों को
तहा देना, समेट देना
कभी बिखरे सामान
मेरे हिस्से
में शुमार हैं।
(Poem)


साठ पार करती औरतें

माया गोला

(‘आधारशिल’ में पानू खोलिया के उपन्यास अंश ‘वाहन’ को पढ़ते हुए)
60 पार करती हुई औरतें
न जाने क्यों
मुझे बहुत भाती हैं
इसी उम्र में
सैकड़ों अनुभव जिन्दगी के
तैरते हैं इनकी आँखों में
काम करते हुए हाथों में एक लय होती है
और चाल में एक सधता
हालांकि अब तक
बेटों और बेटियों की बस चुकी होती है दुनिया
लेकिन इनकी दुनिया तो
जैसे अब शुरू होती है
बड़ी कुशलता से साधती हैं ये बेटों की गृहस्थियाँ
‘मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है’
कहावत ये, देखकर इन्हें ही गढ़ी गई होगी
आँखों में उतरने पर इन्हीं का अक्स
भर-भर जाती हैं
ससुराल को लौटतीं बेटियाँ….
लगता है जैसे
समूची गृहस्थी की कस्तूरी
इन्हीं की नाभि में बसी है
और महकता है घर
इन्हीं के होने से
यूँ तो पिता सारी दुनिया चला सकते हैं
लेकिन अब एक कदम भी नहीं चला जाता
इनके बिना
प्रेमचंद के शब्दों में कहूँ तो
‘दो पहिए साथ-साथ चलते हुए
घिस-पिट कर एक दूसरे के आदी बन जाते हैं’
इसी वय में इनका बिछोह
पिताओं को तोड़ डालता है….
(Poem)
भले ही ठस भरा हो घर
लेकिन
जाने से इनके
घर में खिलते हैं सिर्फ चमेली के सफेद फूल
गुलाब ये अपने साथ ले जाती हैं….
60 पार करती हुई औरतें
गृहस्थी का पर्याय होती हैं
मुझे नहीं पता मेरा ये दावा कितना सही है
लेकिन मैं मानती हूँ ऐसा ही
इसी वय में
इनके शरीर के रोएँ-रोएँ
घर के कोने-कोने में चिपक जाते हैं
और इन्हें ये एहसास भी नहीं होता
कि पूरे घर की कार्बन को
कैसे ये आक्सीजन में बदल देती हैं…..
इसीलिए जाने से इनके
गृहस्थी की साँसें उखड़ने लगती हैं
पिता हो जाते हैं दमे के मरीज
और संतति के दिलों में नाजुक तहें
हो जाती हैं इनके स्पंदन से रहित
हमेशा के लिए…..
(Poem)
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