नहीं लांघी मैंने रेखाओं की मर्यादा

शेर सिंह बिष्ट

‘भिक्षाम् देहि’
सुनकर यही पुकार
निकली कुटिया से बाहर
देने धर्मानुकूल भिक्षा
धवलांगी-श्वेताम्बरी सीता-
देखा अविचल भाव
साधु खड़ा है द्वार
पग कुछ चली, ठिठकी
देखकर लक्ष्मण-रेखा
‘नहीं आ सकती मैं साधु महाराज!
लाँघकर इस लक्ष्मण-रेखा को,
करें क्षमा, समझें विवशता मेरी
ग्रहण करें भिक्षा आकर इधर ही!’
सुनकर विनम्र वचन सीता के
हुआ अति क्रोधित साधु ऐसे
डाल दिया हो आग में घी जैसे
चिल्लाया दानशीला सीता पर
हो गया हो जैसे अक्षम्य अपराध-
‘नहीं लेनी हमें यह रेखा-बंद भिक्षा
जा रहा हूँ मैं इसी पल
तैयार रह तू अब-
दंड भोगने कठोर मेरे शाप का
हुआ है घोर अपमान आज साधु का!’
सुनकर बोल तीखे असंयत साधु के
विचलित हो उठी धीर-गंभीर सीता
पूछते हैं लोग युगों से
रघुकुल-वधू वैदेही से-
‘क्यों लाँघी लक्ष्मण-रेखा?
लाँघेगा जो लक्ष्मण-रेखा
भुगतेगा दुष्परिणाम उसका!’र्
किंकर्तव्यमूढ़ मैं क्या तब करती?
‘दान-दक्षिणा पुण्य-कर्म है
क्षत्रिय जाति का वह परम धर्म है’
बचपन से जिसने यही सुना हो,
संस्कारों में जो घुला-मिला हो,
खाली हाथ साधु को कैसे
लौटा देती दरवाजे से अपने,
क्षत्राणी राजकुमारी वैदेही की
क्या तब मर्यादा भंग न होती?
(Poem by Sher Singh Bisht)
नहीं थी मैं अंतर्यामिनी कोई
जानती कैसे किसी के मन की
साधुवेश में यहाँ कौन खड़ा है
मानव है कि दानव खड़ा है!
स्वर्ण-मृग बनकर वह कौन आया है
सीता-हरण का जाल किसने बुना है!
त्रिलोक विजयी महाबली रावण
महातपी, महापंडित रावण
लक्ष्मण-रेखा से क्यों डर गया था
तप पर अपने उसे विश्वास नहीं था?
रेखाओं से नहीं डरा करते पुरुषार्थी
स्त्री-हरण नहीं करते कभी महाज्ञानी
छल-प्रपंची नहीं होते शूरवीर योद्धा
ढाल नहीं बनाते नारी को महाप्रतापी राजा!
नहीं लाँघी मैंने रेखाओं की मर्यादा
भिक्षादान का मानव धर्म निभाया!
कहते आए हैं परम्परावादी मर्यादावादी
‘देवर लक्ष्मण का कहा यदि मान लेती
रावण द्वारा सीता कभी छली न जाती!’
श्रद्धा-विश्वास के ही पात्र रहे हैं
साधु-संत सदा जनमानस में,
रहती नहीं मन में आशंका कभी
आगमन पर उनके घर-द्वार में,
पितृगृह से ही देखती मैं आयी
आशंका किसी अपवाद की
मन में मेरे कभी रही नहीं!
भंग की थी मर्यादा एक नृप की
लंकाधिपति रावण ने,
कलंकित की थी मर्यादा साधु की
उस साधुवेशधारी ने!
छली गई अकारण मैं
हरी गई अबोध मैं,
रोती-बिलखती रही
अश्रुधारा में डूबी रही,
घुटती रही तिल-तिल
लांछन की कोठरी में,
जीती रही फिर भी
जिन्दा लाश की तरह ही!
दोष फिर भी मुझे ही दिया जाता है
मर्यादा का दंश स्त्री को ही डँसता है!
सोचती है व्यथित सीता कभी
जीवन के भोलेपन में भी-
‘शंकालु होकर रेखा न लाँघती यदि मैं
साधु में असाधु का अक्स देखती यदि मैं
था संभव छल-बल से मैं हरी न जाती’
मर्यादा उल्लंघन के अभिशाप से भी
युगों से अभिशप्त मैं न हो पाती,
तब उसका परिणाम क्या होता?
रावण कभी भी मारा न जाता
अब इस युग में किसी सीता को
नहीं देनी होगी अग्निपरीक्षा
(Poem by Sher Singh Bisht)
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