कविताएं

माया गोला की दो कविताएँ

1.

माँ
तूने मुझे वैसा बनाया
जैसा तू मुझे बनाना नहीं चाहती थी
क्यों?

जिस दिन हुआ था मुझे
पहला मासिक स्राव
तूने कहा-
अब तू बड़ी हो गई है
लड़कों से ज्यादा मेलजोल ठीक नहीं
दुपट्टा ओढ़ा कर ढंग से
और गलियों में तेज
दौड़ा मत कर

हालांकि तू खुद
खूब हंसना चाहती थी
फिर भी तूने कहा-
ठहाके मारकर हंसना लड़कियों के लिए ठीक नहीं
माँ
तूने मुझे वो सब समझाया
जो तू मुझे समझाना नहीं चाहती थी
क्यों?
(Poem by Maya Gola and H Pathak)

जब मैं जवान हुई
तूने मुझे सफल गृहस्थी के
सारे गुर बताए
घर के अमूमन सारे काम सिखाए
तूने बताया-
स्त्री के लिए चरित्र बडे़ काम की चीज है
इसे खोना नहीं चाहिए
हालांकि चरित्र की बेहतर परिभाषा
तेरे पास थी नहीं
आज मैं यह कह सकती हूँ दावे से

फिर भी
माँ
तूने मुझे वो सब सिखाया
जो तू मुझे सिखाना नहीं चाहती थी
क्यों?
मेरे ब्याह के समय
तूने मेरे कानों में कहा-
पति की जी-जान से सेवा करना
उसे हमेशा खुश रखना
परिस्थितियों से समझौता कर लेना
और विद्रोह तो कभी मत करना
हां, बेटे की माँ जरूर बनना
क्योंकि निपूती को कोई पूछता नहीं
यह कहते हुए बेशक
छलछला आई थीं तेरी आंखें
फिर भी
माँ तूने मुझे वो सब बताया
जो तू मुझे बताना नहीं चाहती थी
क्यों??
(Poem by Maya Gola and H Pathak)

2.

लड़की होने का एहसास
मुझे पहली बार तब हुआ था
जब मैंने दीवार फांदनी चाही थी
दीवार-रूढ़ियों की, वर्जनाओं की,
नैतिकताओं की …..

माँ ने मुझे रोका था-
सुन लड़की!
तुझे दीवार नहीं फांदनी चाहिए
परंतु क्यों?
मेरे पांव तो भाई से भी लंबे हैं
मेरी भोली बुद्धि ने यह
सहज प्रश्न उठाया था
माँ ने नहीं बताया कि
लंबे पांवों से दीवार फांदने का
कोई संबंध होता है या नहीं
हां, याद आया ….
मेरे सहज प्रश्न को दबाकर
माँ ने मुझे घूरा था
ऊपर से नीचे तलक
माँ की उन भेदक नजरों का अर्थ
तब नहीं समझती थी
अब समझती हूँ खूब
माँ ने यह भी कहा था-
(Poem by Maya Gola and H Pathak)
दीवार फाँदने से अक्सर
लड़की के चरित्र पर दाग लगने का भय रहता है
और चरित्रहीन स्त्री को
समाज जीने नहीं देता
इसलिए सुन लड़की!
तू दीवार न फांद
परंतु यह चरित्र क्या …..?
तब माँ से यह प्रश्न
पूछते-पूछते रह गई थी मैं
आज जबकि मेरे पास चरित्र की बेहतर परिभाषा है
मैं माँ से पूछना चाहती हूँ कि
स्त्री के चरित्र को उसकी देह से
जोड़कर ही क्यों देखा जाता है,
सत्य, निष्ठा और ईमानदारी से जोड़कर क्यों नहीं?
लेकिन मैं माँ से
यह प्रश्न कैसे पूछूं
दीवार के उस तरफ
कैद हो गई है
माँ मेरी ….

नये साल की दुआ
हरीश पाठक

नव सम्वत्सर से
नया साल हो
ऐसी मेरी इच्छा

नये साल की बधाई
इस आशा में कि
बीते वर्ष से अच्छा होगा यह साल

ऐसा हो
शहर आ जाये गाँव में
गाँव-घर आबाद हों
खोली, बाखली और पटाङण में
फिर से रौनक हो
बूबू, आमा देखें नाती को
आँगन में जमघट हो
बतकव होते रहें
होली, दीवाली, काले कव्वा
इन त्योहारों में फिर से रौनक हो
मिलजुल मनायें हम सब इनको
दखल शराब का न हो
(Poem by Maya Gola and H Pathak)

जल-जंगल-जमीन
सब अपने हों
जन ही इन्हें बचाये,
पानी को अविरल बहने दें
टिहरी को पुन: न दोहरायें
मार, काट, घृणा नफरत की
न हो राजनीति
रुके सिलसिला
आत्महत्याओं का

सब में भाईचारा हो
हम सब सोचें
कैसे हो समाधान
करें रक्षा संसाधनों की
बनें आत्मनिर्भर
रहें सुरक्षित
खेत खलिहान
और
पशुओं का मान
जन आन्दोलन होते रहें
मुद्दों पर बात-बहस हो
जन की जैसी कामना
वैसा  बने देश
(Poem by Maya Gola and H Pathak)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika