बेटी को याद करते हुए : संस्कृति

महावीर रंवाल्टा

मेरी बच्ची!
अगर आज तुम जिन्दा होती
तो पूरे नौ बरस की होती
ठीक इतने बरस पहले
पिता से बिना कुछ कहे
तुम्हारा दुनिया से चला जाना
बहुत तकलीफदेह रहा।

मेरी बच्ची!
तुम्हारे जन्म की पहली वर्षगाँठ
दु:खों की गाँठ बनी पिता के लिए
जीवन भर की
लाख कोशिशों के बावजूद भी
वह आज तक खुली नहीं।

मेरी बच्ची!
ठीक आज के ही दिन
माँ के कीर्तन-भजन के बीच
लपलपाती गर्मी की एक दुपहरी
तुम्हारा अवतरण हुआ।

….हमें याद है
तुम्हारे ‘उंगारे’ भरना
भूख में बिलबिलाना
नहाने के लिए
पानी से भरी परात में उतारते ही
जोर-जोर से रोना
ऐसा लगता था
पानी से तुम्हें डर है।

तुम्हारी गंध ‘परफ्यूम’ की तरह
रच-बस गई थी पिता की देह में
तुम्हें गोद में लेते
पालने में झुलाते हुए
दूध की बोतल तुम्हारे मुँह से लगाते हुए
उन्हें बराबर लगता था
तुम्हारी गंध उनका हिस्सा है
जिसे वे
बाँट नहीं पाएंगे किसी और के साथ।
(Poem by M Ranwalta)

तुम्हारी नन्हीं पनीली आँखों में
बहुत सपने थे पिता के
जैसे कि
ठीक एक वर्ष बाद
तुम्हारे जन्मदिन का जश्न होगा
बच्चे नाचेंगे, गाएंगे
टॉफी, केक, बिस्कुट खाएंगे
और बड़े
कोक, लिमका, पेप्सी, बीयर, व्हिस्की जो मांगेंगे, पाएंगे
पिता की दौड़ जितनी लम्बी थी
उसका एक छोर तुम थी
जिसे पकड़ने के लिए
समय के साथ भी
आँखमिचौनी से भी परहेज न था हमें।

मेरी बच्ची!
न रुकी तुम वर्षभर भी
तुम्हें तो शीघ्रता थी जैसे
किसी अनंत यात्रा पर जाने की
न समझा तुमने लाचार पिता का दर्द
न माँ का ममत्व
तुम तो सिर्फ आँख मूंदकर चली गई
और पिता खुली आँखों में आँसुओं का समन्दर लिए
तुम्हारे लिए बराबर तड़पते रहे।

साढ़े तीन माह की अल्पावधि में
पिता को तुमसे मिला
साढ़े तीन सौ बरसों का सा सुखानन्द
उसे कैसे व्यक्त करें पिता
उसके लिए तो पागलपन की जद में जाना होगा उन्हें
और लोगों को कहने का मौका मिल जाएगा कि
एक पागल का उदय हो रहा है
लक्षण प्रबल हैं।

मेरी बच्ची!
अपनों से बेहद प्रेम करना भी
एक तरह का पागलपन ही है
पागलपन में खोकर ही पाया जा सकता है सच्चा प्रेम
सचमुच मैं पागल रहूंँ या न रहूँ
किन्तु पागलपन को छुपाने की कोशिश करता हुआ
जरूर पकड़ा जाऊंगा
तब अपनी बेबसी पर रोने के सिवा कोई दूसरी राह
नहीं बचेगी मेरे सामने।

मेरी बच्ची!
अब तो वह जगह भी
तब्दील हो गयी है बस्ती में
अंतिम विश्राम के लिए पिता की गोद से उतरकर
धरती में समा गयी थी जहाँ तुम
सदा के लिए
पागलों की तरह बुक्का मारकर पिता रो पड़े थे
और तुम्हारे नन्हे चेहरे पर गजब की शान्ति थी।
उस भूखण्ड से गुजरते हुए
हमें तुम्हारी याद आना लाजमी है।
(Poem by M Ranwalta)

मेरी बच्ची!
मुझे लगता है
तू बाहें उठाए वहीं पर खड़ी है
और पुकार रही है मुझे
‘‘पापा! मैं बड़ी हो रही हूँ
आओ मुझे गले से लगा लो
इस बार मेरे जन्मदिन पर
क्या उपहार लाये हो?’’
तब मुझे लगता है कि
सिवा पागलपन के कुछ नहीं बचा है मेरे पास
वैसे तुम चाहो तो पिता के प्राण भी ले सकती हो।

मेरी बच्ची!
क्या यह नहीं हो सकता कि
एक बार फिर तुम हमारी जिन्दगी में आ जाओ
हमारी कुछ साँसों को संजीदा बना जाओ
वरना यूँ ही
घुट-घुटकर जीने के बाद
एक दिन सचमुच मरना भी कठिन हो जाएगा।

मेरी बच्ची!
अगर तुम सुन सकती
तुम देख सकती
तब तुम पिता के आँसू पोछने जरूर आती
क्योंकि सब जानते हैं कि-
बेटियाँ बेहद भावुक होती हैं
बेटियाँ बेहद नाजुक होती हैं
बेटियाँ पिता का ख्याल रखती हैं
बेटियाँ पिता को अधिक चाहती हैं
लेकिन
बेटियाँ सबको नसीब नहीं होती।
(Poem by M Ranwalta)

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika

पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें