पानी

अतुल शर्मा

पर बहता हुआ पानीछोटे-बड़े स्रोतों का पानी
पानी पर सियासतें करते लोगों पर
तरस खाता है
मुस्कराता हुआ पानी
            पानी बहता हुआ
            गम्भीर और गहरा पानी
            कहानियों और कविताओं से भरा-भरा
            चुप-चुप और उदास भी
आंसुओं से भरी नदी
नदियों में आंसू के दर्द  भरे गीत
            कम ही सुनाई पड़ते हैं, जिन्हें
वे ही हैं
हाँ वह ही
जो मार रहे हैं
नदियों को
मार रहे हैं खुद को
बूंद को मार रहे हैं
खुल रहे हैं तभी बाजारों में
कुछ और समय तक
जीवित रखने के लिए अस्पताल
नदी, पहाड़, लोग, जंगल, जानवर
और हवा के साथ
तोड़ दी जब से दोस्ती
तब से महंगी हो गई जिन्दगी
और सस्ती हो गई सियासती मुनाफाखोरी
बाजार की नदी है यह
या नदियों का बाजार है
            जहाँ बिक रही है नदी
            जहाँ बिक रही है सदी
            जहाँ पैदा हो रहा है युद्ध
            पानी में बहता युद्ध
Poem by Atul Sharma
बहती हुई आग की नदी
शिराओं में बहती
है कैसी यह
मानसिकता
घसीट लाये
मुनाफाखोर नदी को
            नीलामी के लिए
सूखी नदियों में भी
चल रही है चोरियाँ
बहस जारी है
कि नदी कैद है
बहस जारी है
कि कैसे बचायें इसे
बड़े-बड़े लोग घूम आये विदेश
बड़े-बड़े लोग
हाथ मिला चुके नदियों के खरीदारों से
यह समय बहुत खतरनाक है
यहाँ
नदियों के साथ
हमारे हाड़, मांस के चीथड़े
शांति वार्ताओं के श्ष्टि मंडल
प्लेटों में सजाकर
खा रहे हैं
और तो और
            लहुलुहान नदी
            मेरे शरीर से मिलती जुलती है

Poem by Atul Sharma
यह उनके लिए
स्वादिष्ट भोज है
यह बहुत खतरनाक समय है
जब लोग नहीं जानते नदियों के परिभाषा
यह बहुत खतरनाक समय है
जब लोग अपने को बेच रहे हैं और खुश हैं
यह बहुत खतरनाक समय है
कि समझ आने लगी है विनाश की इबारत
यह बहुत खतरनाक समय है
यह सब कुछ कहना मना है
मना है अधूरेपन के साथ जीना भी
मना है
आंसुओं में डूबी है रात
रात भर जागी है नदी
समय के पहियों को चलाने वाले मजदूरों की तरह
लहुलुहान और भौचक्की
दिन भर घुमाती ही रहती है
समय का चक्र
काट डाले हैं नदी के हाथ
काट डाले हैं नदी के पैर
काट डाले हैं नदी के अंग
रोयेगी नदी
दिन-रात घुमाती हुई
जीवन का पहिया
नदी के हाथ नहीं होते
नदी के पैर नहीं होते
नदी के जिस्म नहीं होता
इसलिए वह आदमी और
पृथ्वी और आकाश से बड़ी होती है
और
बेवकूफी और समझदारी के बीच
सच के पक्ष में
खड़ी होती है

Poem by Atul Sharma
नदी
एक लड़ती हुई पीढ़ी है
नदी एक बोलती हुई पीढ़ी है
हर सजा उसके लिए अधूरी है
हम कुछ साधनहीन लोगों के लिए
नदी एक हथेली है
इस किनारे से उस किनारे तक पहुँचाने वाली
नाव है नदी
हमारा हर साधन है नदी
हमारी साधना है नदी
गायब होती चिट्ठियों की तरह
गायब होती नदियों वाले इस समय में
अधूरेपन की भाषा सिखा रही है किताबें
हिमालय के लिए
नीतियाँ बन रही है
जानते होंगे शायद
हिमालय को …
हिमालय
जानने की नहीं, जीने की किताब है
उसकी अपनी एक हिमालय नीति है
नीतियों को
तोड़ने वालों को पढ़ने होंगे नये पाठ
तय करनी होगी उनके लिए सजा
जो बेच रहे हैं हिमालय को
नदी को
खुद को
हिमालय जीवन है
उसे अपने हाल पर
अपनी चाल से चलने दो बस
इतना अहसान करो

Poem by Atul Sharma

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