कविताएँ

रेखा चमोली

1. बस एक दिन

नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहें चीजें यूं ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाये
फर्ष पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाये अधखाये
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देखकर खीजूं नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कम्बलें, रजाइयां
साबुन गलता रहे, लाईट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुंझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब
के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूं।
(Poem)

2. नींद चोर 

बहुत थक जाने के बाद
गहरी नींद में सोया है
एक आदमी
अपनी सारी कुंठाएं
शंकाएं
अपनी कमजारियों पर
कोई बात न सुनने की जिद के साथ
अपने को संतुष्ठ कर लेने की तमाम कोशिशों के बाद
थक कर चूर
सो गया है एक आदमी
अपने बिल्कुल बगल में सोई
औरत की नींद को चुराता हुआ।

3. इसीलिए

देखो हँस न देना ज्यादा जोर से
चार जनों के बीच में
तुम्हारी हँसी वैसी ही कितनी प्यारी है
देर तक बतियाना ठीक नहीं किसी से भी
चाहे वो कितना ही भला क्यों न लग रहा हो तुम्हें
प्रेम कविताएं तो भूल से भी ना पढना
लोग मुस्कुराएंगे
एक दूसरे को इशारा करेंगे
मेरा नाम तुम्हारे नाम के साथ जोडकर
बातें बनाएंगे
कितनी बार कहा है तुम्हें
जिनमें कोइ्र्र संभावना नहीं उनमें
अपनी ऊर्जा बरबाद मत किया करो
कई महत्तवपूर्ण काम अभी करने बाकि हैं तुम्हें
चाहता हूँ सूर्य की तरह चमको तुम
आसमान में
सारे लोग ग्रह नक्षत्रों की तरह
चक्कर लगाएं तुम्हारे
पर डरता हूँ
तुमसे प्यार भी तो कितना करता हूँ
बचा के रखना चाहता हूँ तुम्हें
इस दुनिया को प्रकाशित करने के लिए।
(Poem)

4. और तुम     

अक्सर
राशन की चीनी की तरह
हो जाती है तुम्हारी  हँसी
तिलमिला उठता हूँ तब
मुट्ठियाँ भींच लेता हूँ
चुप्पी साध लेता हूँ
क्या  करूँ – क्या करूँ की तर्ज पर
यहाँ-वहाँ बेवजह डोलता हूँ
तुम कहती हो !
कुछ नहीं, कुछ नहीं
सब ठीक हो जाएगा जल्द
इसी आस में बस जला-भुना रह जाता हूँ
कोई छू कर देखे मुझे तब
जल जाए
मैं चाह कर भी नहीं हटा पाता
उन कारणों को
जो तुम्हारी हँसी पर
परमिट जारी कर देते हैं
और तुम
किसी कुशल कारीगर की तरह
दिन-रात जुटी रहती हो
जीवन बुनने में।
(Poem)

माँ

रमा शंकर चंचल

माँ
उम्र के उस मुकाम पर
जहाँ हम हो जाते हैं
बेकार बेकाम
पर मैं माँ को देखता हूँ
वह आज भी उठ जाती है
सबसे पहले पता नहीं
रात वो सोयी या नहीं
उठने के साथ ही
दौड़ जाती है
उसके मस्तिष्क में
न जाने कितनी
चिन्ताएँ समस्याएँ
सारी चिन्ताओं को पाले
रहती है वह सदैव
करती है
अपनी शक्ति से अधिक
काम
हर पल हर रोज
सोचता हूँ
उसका ममत्व है
जो देता है उसे शक्ति
मैं नहीं जानता
उसके ममत्व का
कितना कर्ज उतारते हैं
उसके बेटे
हाँ, यह जरूर जनता हूँ
बेटे का उदास चेहरा
कर देता है उसे
भीतर तक दु:खी
पता नहीं तब
मन ही मन
वह कितनी
ले लेती है मनौतियाँ
उस उदास चेहरे के
खिलखिलाने की
आस में।
(Poem)
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