पितृसत्ता और उसके हथियार

प्रीति थपलियाल

हिन्दू धर्म में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करने के लिये विवाह संस्था को स्थापित किया गया है, जिसमें परिवार का मुखिया पुरुष होता है और सारे अधिकार उसी के नियन्त्रण में होते हैं। इस संस्था के द्वारा बचपन से ही पुरुष और महिला में भेदभाव करना सिखाया जाता है; जैसे लड़कों और लड़कियों के काम में बंटवारा, पहनावे में अन्तर, खेलों में बंटवारा, खिलौने में अन्तर आदि। इस पूरी व्यवस्था का हम गहराई से विश्लेषण करें तो यह औरत के शोषण का केन्द्र बिन्दु है, जो औरतों को अधीन बनाती है और उन्हें दोयम दर्जे पर खड़ा करती है, जिसमें धर्म, कानून, परिवार, राजनैतिक व्यवस्थाएं, ये सभी इस ढांचे को मजबूती प्रदान करती है।
हिन्दू धर्म में ही देखा जाये तो पहले स्त्री-शक्ति की पूजा होती थी क्योंकि वह सृष्टि की रचयिता थी। उसे सर्वोपरि माना जाता था। पशुकाल में मनुष्य भी जानवरों की तरह जंगलों में रहता था। वह जंगली जानवरों को मारकर भोजन इकट्ठा करता था। लिंग के आधार पर काम का बंटवारा नहीं था। वंश माँ के नाम से जाना जाता था। उस समय विवाह तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति की धारणा नहीं थी।
धीरे-धीरे खेती-बाड़ी व पशुपालन का विकास हुआ, जिसमें महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुरुष शिकार के लिये दूर-दूर जाने लगे और स्त्रियाँ घर-खेत सम्भालने लगीं। समय के साथ ही लिंग आधारित काम का बंटवारा हुआ और धीरे-धीरे आगे चलकर व्यक्तिगत सम्पत्ति की धारणा बनी। पहले मनुष्य ने पशुओं और दासों को इकट्ठा कर व्यक्तिगत सम्पत्ति को जोड़ना शुरू किया और फिर वह यह भी चाहने लगा कि यह सम्पत्ति केवल उनके बच्चों को मिले। इसके लिये विवाह संस्था को स्थापित किया गया। औरतें चहारदीवारी में घिर गईं। उनका उपयोग दासी के रूप में होने लगा। वे बच्चा पैदा करने का साधन बन गईं।
औरतों को इस पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से जकड़ने के लिये रीति-रिवाज और कानून बनाये गये, जो पूरी तरह से पुरुषों के हितों को मजबूत करते हैं और औरतों को कमजोर स्थापित करते हैं। व्रत एवं त्यौहार, जो भी बनाये गये, उनमें स्त्रियों को सिर्फ उनके कर्तव्य बताये गये हंै, अधिकार नहीं, अधिकार सिर्फ पुरुषों तक सीमित हैं, क्योंकि हजारों सालों से ये संस्कार हमें दिये जा रहे हैं इसलिये हम आँख बंद कर इनको मानते हैं, चाहे रक्षाबन्धन हो या करवाचौथ। विवाह के समय कन्यादान की प्रक्रिया, भाईदूज, होलिका दहन आदि ये सारे त्यौहार महिलाओं को दासी के रूप में स्थापित करते हैं और समाज में पितृसत्तात्मक मूल्यों को मजबूत कर गैरबराबरी का सन्देश देते हैं। परिवार के ढांचे में महिला का व्यक्तिगत तथा मां तथा पत्नी के रूप में भी उत्पीड़न होता है। इसके साथ ही जो गालियां स्थापित की गयी हैं वह मां या बहन की होती हैं।
धर्म में देवी या दासी के रूप में स्थापित कर उसके ऊपर धर्म के द्वारा भी हिंसा की जाती है। कोई भी धर्म, चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम या ईसाई धर्म ही क्यों न हो, महिलाओं के प्रति संवेदनशील नहीं रहा है। इन सभी धर्मों में महिला की स्थिति दोयम दर्जे की निर्धारित की गयी है। हिन्दू धर्म में माहवारी, जो औरतों की प्रजनन शक्ति व उसकी सृजन करने की ताकत को दर्शाती है, और यह ताकत पुरुषों में नहीं है, को महिला की कमजोरी बना दिया गया और तमाम वर्जनायें उस दौरान बना दी जाती हैं ताकि औरत खुद से ही अपनी ताकत को ताकत नहीं बल्कि कमजोरी समझे।
समाज के विकास में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज पढ़ा-लिखा महिला वर्ग ही इन रूढियों और परम्पराआें को ज्यादा मान रहा है, जो हमें इस समाज से विरासत में मिले हैं। इन धार्मिक पाखण्डों से ही अंधविश्वास को अधिक बढ़ावा मिल रहा है। मन्दिर में महिला को देवी के रूप में स्थापित किया गया लेकिन वास्तविक जिन्दगी में उसे समान दर्जा नहीं दिया जा रहा है और वह आज भी अपने अधिकारों की लड़ाई के लिये संघर्ष कर रही है।
समाज के विकास के लिये आवश्यक है कि हम लोग इन पुरानी परम्पराओं का भी विश्लेषण करें क्योंकि इन धार्मिक पाखण्डों का शिकार सबसे अधिक महिलाएँ ही होती हैं। और हम समाज में अपने विकास के लिये नये रास्तों का निर्माण हम स्वयं करें।
(Pitrsatta)
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