सरला देवी चौधुरानी : व्यक्तित्व

मधु जोशी

1872 में कलकत्ता में जन्मी सरला देवी ने 1890 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। कुछ समय बाद उन्होंने कलकत्ता छोड़कर सुदूर दक्षिण भारत में मैसूर जाकर रहने का निर्णय किया। उनकी आत्मकथा तथा अन्य स्रोतों से यह तो पता नहीं चलता है कि उन्होंने मैसूर शहर का चुनाव क्यों किया था, किन्तु उनका निर्णय निश्चित तौर से यह अवश्य दर्शाता है कि पढ़ी-लिखी और दृढ़-निश्चयी सरला देवी कितनी प्रगतिशील और आत्मनिर्भर थीं। यद्यपि उस दौर में भारतीय महिलाओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेना और घर की चहारदीवारी से बाहर निकलना आरम्भ कर दिया था, फिर भी सरला देवी के इस क्रान्तिकारी कदम को किसी भी दृष्टि से साधारण अथवा उस दौर की सामाजिक परिस्थितियों के लिहाज से सामान्य नहीं कहा जा सकता है। इस बात की प्रामाणिक जानकारी भी नहीं मिल पाती है कि आरम्भिक विरोध के बावजूद उनके माता-पिता और अन्य परिवारजन सरला देवी को मैसूर भेजने के लिए तैयार कैसे हो गये। कुछ इतिहासकार इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि स्वयं सरला देवी घर छोड़कर इसलिए जाना चाहती थीं क्योंकि वह शीघ्र विवाह करने को लेकर लगातार पड़ने वाले दबाव से मुक्त होकर, अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीकर, अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पंख देना चाहती थीं। कुछ लेखक इस ओर भी इशारा करते हैं कि वह इतने खुले विचारों की थीं कि उनके परिवार को इस बात का डर था कि कहीं उनकी जीवन-शैली के कारण कोई ऐसी घटना न घट जाये जिससे परिवार की बदनामी हो। सच्चाई चाहे जो भी हो, यह बात निश्चित है कि सरला देवी ने एक वर्ष तक मैसूर में रहकर अध्यापन-कार्य किया और उसके बाद खराब स्वास्थ्य और कटु निजी अनुभव के कारण वह कलकत्ता वापस लौट आयीं।
(Personality of Sarla Devi Chaudhrani)

सरला देवी के पिता जानकीनाथ घोषाल मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत थे। वह बंगाल कांग्रेस के सचिव भी थे। उनकी माँ स्वर्णकुमारी देवी महाऋषि देवेन्द्रनाथ टैगोर की पुत्री और कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं। स्वर्णकुमारी देवी शिक्षित विदुषी थीं जो एक सफल लेखिका भी थीं। सरला देवी के बाल्यकाल में उनके पिता काफी समय तक लंदन में रहे। अत: उनकी आरम्भिक परवरिश टैगोर परिवार के निवास जोरासांको में हुई। स्नातक परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण सरला देवी को पद्मावती स्वर्णपदक से सम्मानित किया गया। वह अपने समय की चन्द महिला स्नातकों में से एक थीं क्योंकि उस दौर में महिलाओं को कॉलेज भेजने का चलन नहीं था। अंग्रेजी साहित्य में स्नातक उपाधि धारक होने के अलावा वह भौतिक शास्त्र, फारसी, फ्रैंच और संस्कृत में भी निपुण थीं। उनकी विद्वत्ता और उनके स्वावलम्बन से प्रभावित होकर स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें अपने साथ पश्चिमी देशों की यात्रा पर चलने का आमंत्रण दिया था और उन्हें अपनी सभी पुस्तकों की प्रतियाँ भेंट की थीं।

9 सितम्बर 1872 को जन्मी सरला देवी तैतीस साल की आयु तक अविवाहित थीं। अन्तत:, 1905 में उनके परिवार, विशेषकर उनकी माताजी और बहन ने उन पर भावनात्मक रूप से दबाव डालकर उनका विवाह पंजाब निवासी वकील और पत्रकार पंडित रामभज दत्त चौधरी से करवा दिया। रामभज दत्त चौधरी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे। विवाहोपरान्त सरलादेवी चौधुरानी पंजाब आ गयीं और साप्ताहिक उर्दू समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ के सम्पादन में अपने पति का हाथ बँटाने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने इस समाचार पत्र का अंग्रेजी संस्करण भी निकाला। इससे पूर्व कलकत्ता में वह रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरिन्द्रनाथ टैगोर द्वारा आरम्भ की गई पत्रिका ‘भारती’ का सम्पादन करती थीं।
(Personality of Sarla Devi Chaudhrani)

सरला देवी चौधुरानी ने इलाहाबाद में भारत के प्रथम महिला संगठन ‘भारत स्त्री महामंडल’ की स्थापना की। इसका प्रमुख उद्देश्य महिला साक्षरता और शिक्षा को प्रोत्साहित करके महिलाओं की प्रगति के अवसर प्रदान करना था। यह संस्था विभिन्न नस्ल, वर्ग और दलों की महिलाओं को संगठित करके उनकी उन्नति और कल्याण हेतु कार्यरत थीं। जल्द ही इसकी शाखाएँ लाहौर, हजारीबाग, दिल्ली, कराची, कानपुर, कलकत्ता, हैदराबाद, अमृतसर, बांकुड़ा और मिदनापुर में भी खुल गयीं। इसके अलावा सरला देवी ने कलकत्ता में बालिकाओं के लिए ”भारतीय स्त्री शिक्षा सदन” नामक विद्यालय की भी स्थापना की। सरला देवी को साहित्य, संगीत और कला में भी महारत हासिल थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वह स्वलिखित प्रेरक गीत गाकर आम लोगों में देशभक्ति की भावना का संचार करने का प्रयास करती थीं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ”वन्दे मातरम” गीत की प्रथम दो पंक्तियों को संगीतबद्ध करने के उपरान्त बाकी पंक्तियों को संगीतबद्ध करने की जिम्मेदारी सरला देवी को सौंपी थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा रचित इस गीत को प्रतिबन्धित करने के बावजूद, सरला देवी ने बनारस में कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान इसे गाया।

1919 में ब्रिटिश सरकार द्वारा रोलैट एक्ट लागू करने का पूरे देश में व्यापक विरोध होने लगा और इसकी परिणति जलियाँवाला बाग नरसंहार के रूप में हुई। सरला देवी और उनके पति ने अपने समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ में इसकी पुरजोर आलोचना की। फलस्वरूप रामभजदत्त चौधरी को गिरफ्तार कर लिया गया। कहा जाता है कि सरला देवी को भी गिरफ्तार करने की योजना थी, किन्तु बाद में इस निर्णय को बदल दिया गया। क्योंकि सरकार को डर था कि एक महिला की गिरफ्तारी के कारण स्थिति बिगड़ जायेगी। जलियाँवाला बाग नरसंहार का विरोध करने के लिए जब महात्मा गाँधी लाहौर आये, तब वह सरला देवी के घर में रहे। इससे पहले 1901 में महात्मा गाँधी ने सरला देवी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए विशेष रूप से लिखित गीत को बजा रहे वादक दल का संचालन करते हुए देखा था। महात्मा गाँधी और सरला देवी के सम्बन्धों की वास्तविकता को लेकर इतिहासकारों के मध्य काफी चर्चा होती रही है। उनके बीच हुए पत्राचार से मालूम चलता है कि सरला देवी गाँधी जी को अपना ”… नीति निर्धारक” (law giver) कहती थीं और गाँधी जी उन्हें ”महान शक्ति” और अपनी ”आध्यात्मिक पत्नी” मानते थे। महात्मा गाँधी के पौत्र राजमोहन गाँधी ने भी अपनी पुस्तक में इस रिश्ते का जिक्र किया है। स्पष्टत: महात्मा गाँधी सरला देवी की विद्वत्ता, अद्वितीय प्रतिभा, वाक् पटुता और आत्मविश्वास से बहुत प्रभावित थे। 1920 के बाद सामाजिक और पारिवारिक विरोध के फलस्वरूप महात्मा गाँधी और सरला देवी के बीच प्रगाढ़ता कम हो गई।
(Personality of Sarla Devi Chaudhrani)

सरला देवी युवाओं को देश सेवा के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से अनेक कार्यक्रम आयोजित करती थीं। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन वह वीर अष्टमी उत्सव का आयोजन करती थीं। जिसमें जननायकों की वीर गाथाओं का स्मरण करके उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये जाते थे। उन्होंने बढ़-चढ़कर स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया और अन्य महिलाओं को भी इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया। खादी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने महात्मा गाँधी के साथ पूरे देश में यात्रा की। उन्होंने नवबर्षेर स्वप्न, बनालीर मित्रधर तथा शतगान नामक पुस्तक लिखीं। उनकी आत्मकथा ‘जीबनेर साड़ पात’ इस अनूठी महिला के प्रेरणादायक जीवन का विहंगम चित्र प्रस्तुत करती है। 1935 में संन्यासी के रूप में शांति की तलाश में उन्होंने हिमालय की तरफ प्रस्थान किया और 8 अगस्त 1945 को उनका निधन हो गया।

सरला देवी ऐसी आत्मनिर्भर, निडर, प्रखर-बुद्धि महिला थीं जिनका स्त्री चेतना, स्त्री-स्वतंत्रता और स्त्री-सशक्तीकरण के क्षेत्र में किया गया योगदान अविस्मरणीय है। उन्हें युवावस्था में अकेले स्वामी विवेकानन्द के आश्रम में रहकर वेदों और भगवत गीता का अध्ययन करने और एक युवा पुरुष सहयात्री के साथ कैलास मानसरोवर और तिब्बत-यात्रा का कार्यक्रम बनाने में कोई गुरेज नहीं था और न ही उन्हें जेल में बन्द पति की अनुपस्थिति में महात्मा गाँधी का अपने घर में आतिथ्य-सत्कार करने में कोई हिचकिचाहट हुई थी। वह ऐसी आत्मविश्वास से लवरेज, उदारचेतना, प्रगतिशील और आजाद ख्यालों वाली महिला थी जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अपनी शर्तों पर जिया। उनके आचरण और उनकी जीवन-शैली को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अपने विचारों और अपने आचरण में अपने युग से बहुत आगे थीं। उनके असाधारण व्यक्तित्व को परिभाषित करते हुए ‘माय एक्सपैरिमेंट विद गाँधी’ के लेखक प्रमोद कपूर ने ‘आउटलुक’ पत्रिका में लिखा, ”सरला देवी स्वतंत्र विचारों वाली, असाधारण विदुषी थीं,जो अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न, विद्वान, ऊर्जावान और अभिप्रेरित थीं।” इन्हीं उत्कृष्ट गुणों के कारण सरला देवी चौधुरानी ने सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी और अपने समय की धारा को चिरस्थायी रूप से प्रभावित किया।
(Personality of Sarla Devi Chaudhrani)

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