सामानांतर स्त्री कविता : सन्दर्भ और संघर्ष

श्री रंग      

शताब्दी के अंतिम दो दशकों में लगभग सन् 80 के आसपास समकालीन हिन्दी कविता में तत्कालीन प्रचलित सर्वस्वीकृत कविता के मुकाबले नयी-नयी सामने आयी कवयित्रियों ने बिल्कुल अलग तरह की कविताएँ लिखीं, जो अपने तेवर और कलेवर में ही भिन्न नहीं थी, उनकी संवेदना और भावभंगिमा भी नए समय और समाज की चिन्ताओं को अभिव्यक्त कर रही थी। यह बदलते समय की प्रामाणिक अभिव्यक्तियाँ थीं। यह कविता स्त्रियों द्वारा स्त्री की कविता थी, जिसमें स्त्री के जीवन के नवीनतम संदर्भ और स्त्री संघर्ष की बेलौस अभिव्यक्तियाँ थीं।

समानान्तर हिन्दी कविता में जितनी बड़ी संख्या में स्त्री कवयित्रियों की भागीदारी दर्ज की गई, वह कविता में पहले कभी दर्ज नहीं की गई थी। कात्यायनी, अनामिका, अनीता वर्मा, नीलेश रघुवंशी, निर्मला गर्ग, वसुन्धरा पाण्डे, किरण अग्रवाल, प्रीति चौधरी, प्रगति सक्सेना, सविता सिंह, रेनू शुक्ला, चित्रा सिंह, प्रियंका पंडित, रेखा चमोली, स्वाति मेलकानी, मधु बी. जोशी, ज्योति चावला, विनीता जोशी, प्रज्ञा रावत, संध्या, नवोदिता, लीना मल्होत्रा राव, रेखा आदि कवयित्रियों ने समानान्तर हिन्दी कविता का ऐसा प्रतिरोध परिदृश्य खड़ा कर दिया, जो अपनी प्रगतिशीलता में बेजोड़ था।

लिजलिजी भावुकता, कोरी कल्पना और आत्मसुख-दुखवाद के समानान्तर यह कविता स्त्री जीवन के संघर्षशील पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती थी। इसमें स्त्री की निजता का उद्घाटन तो था, उसके जीवन का कुरूप तो था, पर यह सब नए सौन्दर्यबोध के तहत था, जीवन को और बेहतर बनाने के लिए, मनुष्यता के लिए। बलात्कार, यौन-हिंसा, प्रताड़ना, अपमान के प्रश्न अपनी मजबूत शक्ल में यहाँ दर्ज थे। यह स्त्री की हकीकत की तहकीकात थी। कानून पर प्रश्न था, जिसके तहत बलात्कारी और यौन हिंसक को छूट मिलती थी, जो मर्जी से सम्बन्ध को बलात्कार नहीं मानता। जिसकी निगाह में वेश्यावृत्ति स्त्री की मर्जी से होती है। जहाँ यह नहीं देखा जाता कि यह मर्जी किन मजबूरियों के तहत होती है। गरीबी, असुरक्षा के कारणों की जहाँ अनदेखी होती है। ग्राहक को निपटाने में उसकी मर्जी स्वतंत्र नहीं होती। यहाँ पति-पत्नी के उन सम्बन्धों पर भी प्रश्न उठाया गया जो बलात्कार से कम बीभत्स नहीं थे। समानान्तर कविता में औरत को महिमामण्डित करने वाले पारम्परिक सोच के मुकाबले रिश्तों, सम्बन्धों और जीवन की सच्चाइयों को जगह देने वाली सोच थी।

समानान्तर स्त्री कविता की इन कवयित्रियों ने स्त्री अस्मिता के सवाल को उठाया। उसमें विभिन्न पहलुओं को केन्द्र में रखा। स्त्री देह, नारी की मुक्ति, मुक्त नारी और उसके समाज से सम्बन्ध के विषय को समझा। इसमें जुझारू स्त्री के चित्र सामने आए। ऐसी स्त्रियाँ जो जीवन, समाज संसार के अस्तित्व के लिए पर्यावरण के संकट से जूझ रही थीं। अपनी स्वायत्तता के सवाल को उठा रही थीं। चुनौतियों भरी परेशानियों को दर्ज कर रही थीं। जैविक अधिकार और तकनीकी हस्तक्षेप के सवाल पर संघर्ष कर रही थीं, वह चाहे नार्को टेस्ट हो, अल्ट्रासाउण्ड या कौमार्य परीक्षण। यह स्त्री अवमानना के विरुद्ध प्रतिरोधी स्वर था। स्त्रियों के प्रति अपनाए जा रहे दोहरे मानदण्डों के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर। यहाँ अनेकानेक गोपन प्रश्नों का खुलासा था। यह स्त्री का इस्तगासा था। इसमें नई मंजिलों के नए आयाम दर्ज हुए। यह वास्तविक परिप्रेक्ष्य था। स्त्री को स्त्री द्वारा समझने को संकल्प। समानान्तर कविता ने यह जोखिम भरा काम किया। प्रतिरोध का समानान्तर लोक रचा।
(Parallel women Poetry: Context and Conflict)

स्त्री घर का काम करने में अपनी शर्मिन्दगी नहीं मानती लेकिन वह चाहती है कि घर के काम को भी पुरुष के काम की तरह उत्पादक, इज्जतदार और महत्वपूर्ण समझा जाए। कात्यायनी ने इस संघर्ष को नयी जमीन दी। चूंकि स्त्री घर को घर बनाती है, निष्प्राण में प्राण फूंकती है, लेकिन जब घर के लिए सबसे ज्यादा काम करने वाली वही स्त्री बाहर निकाली जाती है या जब घर उसे अपना नहीं लगता और बाहर छटपटा कर मरने का भय है। यहाँ मुक्ति का प्रश्न है, भेदभावपूर्ण नीति का प्रश्न और थोपी गई पाबंदियों का प्रश्न। इन प्रश्नों के समानान्तर स्त्री कवयित्रियाँ टकराईं हैं। अतिसंवेदनशील क्षणों के अनुभवों को अभिव्यक्ति दी है। गर्भधारण, प्रसवपीड़ा, स्तनपान जैसे अति एकांतिक अनुभवों को सार्वजनिक किया है। जीवन के मामूली से मामूली सवालों को उठाया है-

गई रात मेरे मन में/ कोई पटककर पोछे का कपड़ा धोता है/ और फिर निचोड़ता है आँखों में/ सर्फ मिले पानी-सी चाँदनी/ फेन गढ़े मोती-सा यह चाँद/ मिलकर भी/ रातों के दामन का दाग/ नहीं धो पाते।  (अनामिका)

दुनिया कितनी भी क्यों न बदल गई हो, स्त्री की स्थिति कुछ खास नहीं बदली। घर, दफ्तर, परिवार और सम्बन्धों की चक्की में पिसती स्त्री की जिन्दगी दोहरी ही हुई है। घर-परिवार की प्राथमिकता अभी भी उसके लिए ज्यादा मायने रखती है। संस्कार और स्वतंत्र जीवन का द्वंद्व चलता ही रहता है।

समानान्तर स्त्री कविता में स्त्री जीवन की यह दोहरी मार दर्ज है। समानान्तर स्त्री कविता में आत्मनिर्भर और साहसी स्त्री की महत्वाकांक्षाएँ भी दर्ज हैं।

एक बार फिर/ ऊँची नाक वाली अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएँ/ करेंगी जुलूस का नेतृत्व/ और प्रतिनिधित्व के नाम पर/ मंचासीन होंगी सामने/ एक बार फिर/ किसी विशाल बैनर तले/ मंच से खड़ी माइक पर चीखेंगी/ व्यवस्था के विरुद्ध/ और हमारी तालियाँ बटोरेंगी/ हाथ उठाकर देंगी/ साथ होने का भरम। (निर्मला पुतुल)

इसमें कोई संदेह नहीं कि कल के मुकाबले आज की स्त्री की स्थिति बदली है। लेकिन इस बदलाव ने एक भटकाव भी दिया है। स्त्री विमर्श देह विमर्श में सिमटा है। नारी अस्मिता और स्वाभिमान सम्मान का मामला आज भी जस का तस ही है। स्त्री-स्त्री के बीच भी जमीन-आसमान का अन्तर है। खाई-पिई अघाई औरतें हैं तो तिल-तिल मरती गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण झेलती गरीब औरतें हैं। औरत-औरत में भी अंतर है।

एक तड़पती है सम्मान के लिए/दूसरी तिरस्कृत है/भूख और अपमान से/प्रसव पीड़ा झेलती फिर भी एक सी/जन्मती है एक नाले के किनारे/दूसरी अस्पताल में/एक पायलेट है/दूसरी शिक्षा से वंचित है/एक सत्तासीन है/दूसरी निर्वस्त्र घुमाई जाती है/औरत-औरत में भी अन्तर है। (राजतिलक)

समानान्तर कविता ने इस औरत-औरत के अन्तर को भी समझा और दोनों के सच को जाहिर किया, यह औरत द्वारा औरत को समझने का पहला प्रयास था समानान्तर स्त्री कविता में समाज, प्रकृति, पर्यावरण सरंक्षण के विचार प्रमुखता से आए और कविता लोकधर्मी बन गयी। पानी, समुद्र, बारिश और पेड़, नदी,जंगल और पहाड़, आदिवासियों का जनजीवन कविता की जद में आ गया। प्रकृति, पानी और पेड़ के प्रति कृतज्ञता भाव दिया-

पानी ओ पानी/ भला हुआ  तू चांदी का झरना न बना/ न बना पिघले सोने की चादर/ पानी ओ पानी/ भला हुआ तू पानी ही रहा/ नदियों में बहता/ कुंओं में ठहरा।  (मधु बी. जोशी)

लंबे ऊँचे पेड़ के/ कंधे पर/ सिर टकराकर/ रोते हैं बादल/ हल्के होकर चले जाते हैं/ पेड़ बाद में रोता है/ बहुत देर तक अकेला    (मधु बी. जोशी)
(Parallel women Poetry: Context and Conflict)

दरअसल महिला लेखन को हमेशा हाशिए पर रखा गया। लेकिन सुखद है कि समानान्तर कविता का जन्म इसी हाशिए की कविता की कवयित्रियों द्वारा होता है। ये स्त्रियाँ जो दलितों से बदतर थीं, यदि दलित हुईं तो दोहरी दलित। एक स्त्री होने के नाते दूसरे स्वयं दलित होने के नाते। जिनके जीवन में गाली खाना उनका कत्र्तव्य था-

वैसे तो रहती हैं शाश्वत डार्यंटग पर स्त्रियाँ

पर गालियाँ खाने में उनका नहीं जवाब  (अनामिका)

वैज्ञानिकता ने वैसे तो मनुष्य के जीवन स्तर को काफी सुख-सुविधा सम्पन्न बनाया किन्तु यह वैज्ञानिक उन्नति स्त्रियों के मामले में विपरीत रही। क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों का उनके विरुद्ध इस्तेमाल किया गया। अल्ट्रासाउण्ड, भ्रूण परीक्षण, कौमार्य परीक्षण ने देह के स्तर पर तकनीकी द्वारा स्त्री को उसके प्राकृतिक-जैविक अधिकारों से वंचित किया। उसकी स्वतंत्रता को अपहृत किया। देह को कलंकित कर उसे भी नष्ट किया और आत्मा को भी-

पुनर्जन्म को न भी मानें तो/ इसी जन्म में सत्य हो सकती है देह/ जब यह स्फुरित हो/ कोमल हो जाये/ पंखुरियों की तरह/ प्रक्षेपित हो कहीं समूची/ उसी क्षण यह जन्म लेती है/ और/ उसी क्षण होती है इसकी मृत्यु (अनीता वर्मा)

यद्यपि शरीर जन्य शुचिता के, परम्परागत-सामाजिक-नैतिक संदर्भ वर्तमान में गौण हुए, किन्तु मानसिकता के मामले में जहाँ तक स्त्री देह का संदर्भ है, वह यथास्थिति ही है। क्योंकि आज भी मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में स्त्री का सम्मान यौन-शुचिता, अखण्ड कौमार्य और शील से ही है। नार्को टेस्ट से देह की सुरक्षा असंभव हो चुकी है।

बाजारवादी आधुनिक समय में भविष्य या कैरियर से जुड़े तमाम कारक हममें जुड़ते गए हैं। कंपनियाँ नौकरी देती हैं तो देह भी उसका कारक होता है। देह सौन्दर्य और वाक्चातुर्य। कैरियर में देह का योगदान बढ़ा है। पर्सनेलिटि टेस्ट, बॉस के साथ पार्टी, डेटिंग, लिव इन रिलेशन अब कारोबार से जुड़ गए हैं। स्त्री कैरियर और भविष्य के लिए बाजार के जाल में फंसने को मजबूर हुई है। मॉडल-हिरोइनें आत्महत्या कर रहीं हैं। बड़े-बड़े पदों पर पहुँचने के बाद भी स्त्रियाँ अवसाद से नहीं उबर पातीं। स्त्री एक ओर जहाँ पुरानी मानसिकता से लड़ रही है, वहीं नयी आधुनिकता का शिकार होने से बचने का भी रास्ता तलाश रही है। समानान्तर कविता में यह तलाश दिखती है।

समानान्तर स्त्री कविता अपनी विवेक क्षमता को नए सिरे से परखने का विवेक देती है। प्रतिकार के स्थान पर नए उपकार को अस्त्र बनाने का हुनर सिखाती है। प्रर्तिंहसा के बदले र्अंहसात्मक एकजुटता का रास्ता सिखाती है। सामूहिक रूप से अन्याय का प्रतिरोध करने का बीजमंत्र देती है।

आज स्त्री अस्मिता के संदर्भ नयी चुनौतियाँ, नयी मंजिलें, नये आयाम गढ़ रहे हैं। स्त्रियों के कामकाज की परिस्थितियाँ बदली हैं। उसकी पुरानी छवि मिटी है, किन्तु उसकी पीड़ा नहीं बदली। उसके प्रति दृष्टि नहीं बदली। समानान्तर स्त्री कविता ने इसे दर्ज किया है-

शब्दों में फूलों की गंध आती है/ उसके तकियों में आसुओं की गंध। (प्रगति सक्सेना)

समानान्तर स्त्री कविता ने स्त्री के भीतर-बाहर के हाहाकार को पहचाना है। आवरण हटाकर सच को उजागर किया है। वेदना को छुपाने वाली वेदना को व्यक्त किया है। स्त्री की जुबान पर लगे अदृश्य पहरे को महसूस किया है। नरक  के विरोध में चुप्पी तोड़ी है। स्त्री के तथाकथित आदर्श के अन्तर्विरोध को दर्शाया है। यातना से भरे दृश्य की गांठें खोली हैं। स्त्री को उसकी नियति से बचाने की कोशिश वाली मनुष्यता की राह को चुना है। समानान्तर कविता की भाषा तर्कपूर्ण है। विचलित करने और तमाचा मारने वाली भी-

तुम मुझे गुड़िया कहते हो/ ठीक ही कहते हो/ खेलने वाले सब हाथों को/ मैं गुड़िया ही लगती हूँ। (परवीन शाकिर)

स्वामी जहाँ नहीं होते थे/ होते थे उनके वहाँ पंजे/ मुहर, तौलिए, डंडे/ स्टैम्प पेपर, चप्पल-जूते/ हिचकियाँ, डकारे, खर्राटे/ और त्यौरियाँ, धमकियाँ, गालियाँ, खचाखच (अनामिका)

यही लोग पंचायत में सिर मुंडवा/नचा देते नंगा/कर देते मुँह पर पेशाब/ठूँस देते मैला/ (निर्मला पुतुल)

समानान्तर स्त्री कविता ने पुरुष की क्रूरता,  उसके अवसरवाद तक की लंपटता, उसकी बेहया को, उसकी अमानवीयता को पूरे दमखम से उजागर किया। पुरुष भी पितृसत्तात्मक समाज का शिकार होता रहा है। स्त्री की गरिमा को पुरुष गिराता है तो उसकी गरिमा भी गिरती ही है। समानान्तर स्त्री कविता ने मनुष्यता को स्थापित करने की कोशिश की। पुरुष मानसिकता को औरत की सूक्ष्म दृष्टि द्वारा पकड़ने की जो कोशिश समानान्तर स्त्री कविता ने की है वह दुर्लभ है-

एक वजूदवाली औरत को/प्यार करने का/ उस पर काबू पाने का/मजा ही कुछ और है  (कात्यायनी)

2000 के बाद की समानान्तर स्त्री कविता में बदलते समाज की आहटें बहुत साफ देखी-सुनी जा सकती हैं। इसमें यौन हिंसा, बलात्कार के मामलों की प्रमुखता है। बदलते परिवेश में स्त्री की विडम्बनाएँ हैं। उसकी आकांक्षाएँ और महत्वाकांक्षाएँ हैं। उसके स्वप्न हैं, जिजिविषा है, उसका संघर्ष है, उसका प्रतिरोध है। पंखुरी सिन्हा, स्वाति मेलकानी आदि इसका प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

समानान्तर स्त्री कविता में रिश्तों की उष्मा की पुर्नस्थापना है, नई उम्मीद, नई आस्था, नया विश्वास है और मनुष्यता को कायम करने का जज्बा है। इसमें मनुष्य के भीतर बची मनुष्यता को संरक्षित करने, अपनेपन को समेटने का सार्थक प्रयास दिखता है। समानान्तर स्त्री कविता अपने समय की बेचैनियों को दर्ज कर रही है। समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में निरन्तर गहराते घटाटोप में समानान्तर कविता का उजास कविता की विश्वसनीयता को बचाने का उपक्रम है। निरन्तर अर्थहीन, प्रभावहीन, दुहराऊ होती कविता के लिए यह समानान्तर स्त्री कविता संजीवनी है।
(Parallel women Poetry: Context and Conflict)
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