रेखा चित्र : पगली

ज्योति जोशी

मेरा उससे पहला परिचय 2005 की जाड़ों की छुट्टियों में हुआ। जब मेरी सहायिका सुनीता दो महीनों की जाड़ों की छुट्टियों में अपने गाँव जा रही थी। मेरी बेटी की दसवीं की बोर्ड परीक्षा होने के कारण हमने जाड़ें की छुट्टियों में नैनीताल में ही रहने का निश्चय किया था। ऐसे में सुनीता अपने विकल्प के रूप में उसे मेरे पास लेकर आयी थी।

सुनीता ने कहा था- दीदी उसे रुपयों की जरूरत है फिर वह जाड़ों में घर भी नहीं जाती। थोड़ी पगली है पर आपको तो काम निकालना है। वैसे ईमानदार है मैंने सुनीता को शाम को उसे घर लाने के लिए कहा, शाम को सुनीता उसे ले आयी। मैंने उससे पूछा तो उसने तत्काल उत्तर दिया, ‘आपको काम से मतलब है या नाम से। काम बताओ, क्या करना है?’ मुझे इतने सूखे उत्तर की आशा नहीं थी इसलिए थोड़ा अटपटा लगा फिर मैंने सोचा ठीक ही तो कह रही है। मैंने उससे प्रेम पूर्वक कहा, सुनीता दो महीने के लिए घर जा रही हैं आप उसके स्थान पर काम कर दो, जो काम वह करती है, वही आप भी कर देना तो तपाक से बोली, हाँ, तभी तो आई हूँ पर रुपये कितने दोगी? मैंने कहा जो सुनीता को दूती हूँ वही आपको भी  दे दूंगी उसने दबंग स्वर में कहा, नहीं। मैं उससे 200 रुपये अधिक लूंगी क्योंकि मैं उसकी एवजी में आई हूँ फिर इन दो महीनों में ठंड भी बहुत पड़ती है सोच लो। बता देना, और वह चली गई। उसके जाते ही मैंने सुनीता से कहा, ‘‘तेरे को कोई दूसरी नहीं मिली क्या?’’ ये तो बहुत ही बद्मिजाज है। बोलने में बहुत ही रुखी है। सुनीता बोली, दीदी थोड़ी दिमाग से हल्की है, कब दिमाग फिर जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। कभी अपने पति का कोट-पेंट पहनकर बीड़ी पीती है तो कभी-कभी गालियाँ भी देती है, पर दीदी काम अच्छा करती है और ईमानदार भी है। आप देख लो, दूसरी कोई तो इस समय मिलेगी भी नहीं।

सुनीता के जाने के बाद भी मैं उसके रुखपने से आहत ही थी। मैंने अपनी बेटी से मंत्रणा की तो उसने प्रेम पूर्वक मुझे समझाया- माँ, आपको उसके साथ दोस्ती थोड़ी करनी है आपको तो काम से मतलब है, काम करेगी चली जायेगी। शायद मुझे उस समय ऐसी ही राय की आवश्यकता थी। दूसरे दिन वह आई पर फिर एक शर्त मेरे सामने रख दी, ‘‘देखो! मैं सुबह आठ बजे नहीं आ सकती। फिर जाड़ों में सात बजे तो आँख ही खुलती है चाय पीती हूँ ऊिर नहाती हूँँ नारायण को याद करती हूँ…. इसलिए नौ बजे तक ही आ पाऊंगी सोच लो।’’

एक बार तो सोचा जाड़ों की छुट्टियाँ है खुद ही झाड़े पोछा-बर्तन कर लूंगी पर यह सोच टिका नहीं। मैंने भी थोड़ी रौब से कहा, चलो ठीक है आजकल छुट्टियाँ हैं पर नौ बजे आ ही जाना।

दूसरे दिन ठीक नौ बजे वह आ गई। मैंने उसे बताना चाहा कि क्या काम करना है, मेरा यह बताना उसे नागवार लगा। उसने तुनक कर कहा, ‘‘देखो तुम पढ़ाती हो, मैं तुम्हें नहीं बता सकती कि कैसे पढ़ाना चाहिए, इसलिए तुम भी मुझे यह मत बताओ कि मुझे काम कैसे करना है? उसके काम करने के बाद मैंने पाया कि बर्तनों में एक नई चमक थी और घर की सफाई भी अलग से दिख रही थी। उसके अपने कर्य की दक्षता ने उसे अति आत्मविश्वासी बना दिया था जो कभी सीमाएँ पार कर उसे दम्भी भी बना देता था।’’
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खैर! जाड़ों के दो महीनों में वह निरन्तर काम पर आई। कभी-कभी मौसम के ज्यादा खराब होने पर भी वह समय आकर काम कर जाती थी। उसका काम करते-करते गाना-गाना, बुदबुदाना अपने आप से बातें करना, कभी-कभी विचित्र लगता था परन्तु धीरे-धीरे मुझे इनका अभ्यास हो गया। कभी काम करते-करते मुझसे कोई प्रश्न पूछती फिर जब मैं उसका उत्तर देती तो उसका विश्लेषण बड़ी बारीकी से करती। कभी मेरे उत्तर के प्रतिरोध में अपना तर्क भी देती। उसके इन प्रश्नों में जीवन के बड़े अर्थ छुपे होते थे जिन्हें शायद अच्छे खासे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पाते, तो उसके वर्ग में तो इसे उसका पागलपन ही करार दिया जाता होगा। इस बीच हमारे बीच अच्छा सामंजस्य हो गया। जाड़ों की छुट्टियों के बीतने के बाद सुनीता गाँव से वापस नहीं आई। ऐसे में उसने मुझसे कहा, ‘‘दीदी अगर आप चाहो तो मैं ही आपके यहाँ काम करती रहूंगी, मुझे आपके यहाँ काम करना अच्छा लग रहा है। फिर मुझे पैसों की जरूरत भी है। मैंने कहा क्यों तेरे दो बेटे दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं, बेटी की शादी हो गई है। तुझे पैसों की ऐसी क्या जरूरत है।’’

बोली, तुम्हें पता भी है मैं कितनी मुसीबत में हूँ। पति का कमाना न कमाना बराबर ही है दीदी, सारा पैसा खाने-पीने और जुए में उड़ा देता है। बैंक से लोन भी लिया है।  उसकी किश्त तनख्वाह से ही कट जाती है। फण्ड से भी सारा पैसा निकाल चुका है। घर के खर्चे के लिए पैसा देने में आनाकानी करता है। कुछ कहो तो मारता-पीटता तथा गाली-गलौच करता है।  बड़े लड़के का अपना परिवार है, छोटे बेटे की शादी करनी है। इन्हीं परेशानियों के कारण मैंने काम करना शुरू किया, वह भी उसे पहले अच्छा नहीं लगता था। मेरे चरित्र पर गलत आरोप लगाता था। पर अब तो मैं उल्टा जवाब दे देती हूँ। रोज घर में कलह होता है। छोटा नाती है, मैं उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ उसकी कहानी सुनकर मुझे लगा कि मैं इससे ही काम करवाती रहूंगी, यद्यपि कभी-कभी उसकी कुछ हरकतें अटपटी व असह्य भी लगती थी।

इस बीच हमारी दोस्ती और ज्यादा प्रगाढ़ होती गई। उसके प्रश्न पूछने का क्रम निरन्तर जारी रहा। उसके प्रश्नों का उत्तर देखकर मैंने उससे एक दिन पूछ ही डाला, तुमने पढ़ाई क्यों नहीं की? इतना पूछते ही वह बोली दीदी, छठी कक्षा तक ही पढ़ पाई। वैसे मैं कक्षा में अव्वल आती थी।

मेरा गाँव गरुड़ सोमेश्वर में है। पिता जी की तीसरी संतान होने के कारण उन्होंने 13 वर्ष में ही मेरा विवाह कौसानी के एक गाँव में निश्चित कर दिया। मैंने विरोध भी किया कि मैं पढ़ना चाहती हूँ, परन्तु उनका सीधा-सा जवाब होता कि पढ़-लिखकर लाट साहब बनेगी? मेरे पिता जी राज मिस्त्री का काम करते थे। खेती-बाड़ी व गाय घर में होने के कारण खाने-पीने की कोई समस्या नहीं थी। पर पिताजी को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी थी इसलिए उन्होंने तत्काल विवाह के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परन्तु कुछ ही महीनों बाद उन्हें दूसरे गाँव से आया रिश्ता ज्यादा उचित लगा। दीदी हमारे यहाँ पहले लड़की का पिता शादी का खर्चा-पानी लेता था। जब मुझे पता चला कि मेरा विवाह अब दूसरी जगह हो रहा है तो मैंने उसका विरोध किया। दीदी बताओ तो वचनदान दे दिया तो आधा दान तो वैसे ही हो गया ना।

दीदी शादी के बाद ससुराल आई तो घर-बार सब अच्छा था। ससुर फौज से रिटायर हो चुके थे। दो ननदों का विवाह हो चुका था। गाय, भैंस, जमीन सभी कुछ था। पति व्यवसाय की खोज में अपने चाचा के पास दिल्ली में रहने चला गया था। देवर फौज में भर्ती हो चुका था। मैं सास-ससुर के साथ गाँव में रहती थी। पति कभी-कभी ही गाँव आ पाता था। जब पहली बार घर आया तो मेरे लिए एक साड़ी लेकर आया। मुझे तो बहुत ही शर्म आ गई। दीदी इधर मैं जंगल से घास, लकड़ी लाती, खेतों में निराई, रुपाई का काम करना पड़ता था पर दीदी इतना काम करने के बाद भी सास पेटभर खाना नहीं देती थी। फिर हम चोरी करके खाते थे। काम करते-करते कब सुबह हो जाती थी पता नहीं चलता था फिर थककर नींद आ जाती थी। 16वें साल में मेरी बेटी हुई। घर में कोई खास खुशी नहीं मनाई गई क्योंकि लड़की पैदा हुई थी।  मैंने लड़झगड़कर उसका नामकरण करवाया। इस बीच मेरे फौजी देवर का विवाह भी समीपवर्ती गाँव में हो गया। मुझे बहुत खुशी हुई कि चलो मेरा सुख-दुख और काम बाँटने के लिए कोई हमउम्र आ जायेगा। मैंने उसे बहुत स्नेह दिया और पहले-पहले सब ठीक भी चला पर बाद में मेरी देवरानी का स्वभाव मेरे प्रति अच्छा नहीं रहा। मेरा देवर साल में दो-तीन बार ही घर आ पाता था। एक दिन मैंने अपने ससुरा व देवरानी को साथ सोते हुए देख लिया। अपनी चोरी पकड़ी जाने पर दोनों ही बहुत खिसिया गये परन्तु उनका यह व्यवहार बदला नहीं बल्कि मेरे प्रति दोनों का ही व्यवहार अधिक क्रूर होता चला गया। मेरे पूछने पर कि सास को इस बारे में पता नहीं था क्या? उसने उत्तर दिया, ‘‘क्यों नहीं, दीदी सास सब जानकर भी चुप रहती थी। बेचारी क्या कर सकती थी? इस दु:ख से वह शीघ्र ही चल बसी। सास के मरने के बाद तो दोनों ही मुझे और भी ज्यादा परेशान करने लगे। इस बीच में एक-एक साल के अन्तर में मेरे दो बेटे हो गये। मैं तो काम के बोझ तले जैसे दब ही गयी। घर, जंगल, बच्चे सब मेरी जिम्मेदारी हो गये। इतना सब करने के बाद भी मेरी देवरानी मेरे बच्चों को दूध नहीं देती थी। घर में उसी का रौब चलता था। मैं कभी-कभी बहुत दु:खी होकर अपना हक माँगती तो ससुर पीटता था। मैं कब तक सहती। एक दिन मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मेरे व्यवहार से वह बौखला ही गया। मुझे घर से निकलने की धमकी देने लगा। मुझे थोड़ी सी जमीन देकर संयुक्त सम्पत्ति से अलग कर दिया। पहले तो मैं बहुत दुखी हुई पर बाद में लगा चलो मेहनत करके अपना व अपने बच्चों को पेटभर खाना तो खिलाऊंगी। पति इस बीच नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में काम करने लगा था। साल में एक-दो बार ही छुट्टियों में आता था। जब घर आया तो बहुत ही गुस्सा हो गया कि तू मेरे घरवालों से अलग क्यों हो गई। मुझे बहुत क्रोध आया कि बिना जाने-समझे वह मुझ पर आरोप लगा रहा था। ’’
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मेरे तीन बच्चे हो चुके थे। मुझे लगा कि अब हमें और बच्चों की जरूरत नहीं है। पति ने ऑपरेशन करवाने से साफ मना कर दिया। पति के ड्यूटी जाने के बाद जब सोमेश्वर में कैंप लगा तो मैंने हिम्मत करके उस कैम्प में जाकर ऑपरेशन करवा लिया। घर पहुँची तो ससुर ने कोहराम मचा रखा था। कहना न कहना सब कहा। मेरे चरित्र पर भी आक्षेप लगाया।

पति नैनीताल में यह सोचकर मस्त था कि मैं व बच्चे गाँव में आराम से हैं। वह हमारे लिये पैसे भी नहीं भेजता था। मेरा जीवन बहुत कठिन होता जा रहा था। मैं अपने बच्चों को लेकर उसके साथ नैनीताल आ गई। नैनीताल आकर मुझे पता चला कि मेरा आदमी गलत संगत में है। जुआ व शराब उसकी आदत बन चुके थे। उसे हमारा नैनीताल आना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। एक दिन घर में पुलिस आ गई और उसे पकड़कर ले गई। तो मुझे पता चला कि उसने बैंक से लोन भी तो ले रखा है, जिसकी किश्त वह नहीं देता है। उसके स्कूल के प्रधानाचार्य ने मुझे बुलाकर कहा कि वह अपने फंड का भी अधिकांश पैसा निकाल चुका है। ऐसे में मैंने प्रधानाचार्य से कहा कि सर, आप इसकी तनख्वाह से ही बैंक के लोन की किश्त कटवा दें। वैसे भी वह सारा पैसा जुए और शराब में ही गवा देता है। कम से कम बैंक का लोन तो उतर जायेगा। स्टाफ वालों ने चंदा करके उसे जेल से छुड़वा दिया था।

बच्चों का एडमिशन तो करवा दिया था पर उनकी फीस व कापी-किताब का खर्चा निकालना मुश्किल हो रहा था। खाना तो स्कूल से मिल ही जाता था। ऐसे में मैंने निश्चय किया कि मैं दो-चार घरों में बर्तन धोकर कुछ कमा लूंगी। कम से कम बच्चों की फीस व कापी-किताब का खर्चा तो निकल जायेगा। बहुत जल्द ही मुझे चार घरों में काम मिल गया पर दीदी मेरे आदमी को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। मैं जैसे ही घर पहुँचती वह मुझे कहना न कहना सब कहता। मेरे चरित्र की तो धज्जियाँ उड़ाकर रख देता। मैं सुनी की अनसुनी कर देती तो फिर मुझे पीटता। इन सब परेशानियों से मैं शारीरिक रूप से तो थक ही चुकी थी। इसका असर मेरी दिमागी हालत पर भी पड़ा। मैं पागल हो गई थी। घर से निकल जाती, अनाप-शनाप बोलती। बच्चों की तरफ भी ध्यान नहीं देती। मुहल्ले वालों से भी लड़ने-झगड़ने लग गई थी। ऐसी हालत में मेरा पति मुझे मायके छोड़ आया। मायके में भाईयों की अपनी गृहस्थी हो गई थी। पिताजी ने मुझे खेत देकर कहा जा कमा खा। यह कहकर उन्होंने भी हाथ झाड़ लिये। मैंने उस खेत में एक छोटी-सी झोपड़ी बना ली। कभी खाना बनाती कभी गाँव की कोई बुआ या काकी दया करके खाने को कुछ दे जाती। मेरी हालत बद से बदतर होती जा रही थी। फिर एक दिन मेरा भाई शहर से गाँव आया और मेरी हालत देखकर मुझे इलाज के लिए बरेली ले गया। जहाँ पूरे एक साल मेरा इलाज चला। इस बीच मेरा पति व बच्चे मुझसे मिलने भी नहीं आये। हाँ, इलाज के लिए थोड़े रुपये मेरे भाई को जरूर दिये। थोड़ा ठीक होने पर मैं नैनीताल आ गई। मेरे पड़ोसियों ने मेरा बहुत साथ दिया। फिर मेरी बीमारी के बारे में जानकर लोग मुझे काम पर रखने से भी कतराते थे।

इस बीच फंड से बचा हुआ पैसा निकालकर व कुछ उधार लेकर लड़की की शादी कर दी। जवांई सरकारी नौकरी में था। लड़की मेरे घर का काम सम्भाल लेती थी। उसके जाने के बाद मैंने अपने को फिर अकेला पाया। बड़ा लड़का तो नवीं कक्षा के आगे पढ़ भी नहीं पाया। घर के माहौल का असर तो बच्चों पर पड़ता ही है। जब मैंने देखा कि दोनों ही लड़के पढ़ने में ठीक नहीं कर रहे हैं तो मैंने एक दिन साफ कह दिया कि यदि पढ़-लिख नहीं सकते तो जाकर पत्थर तोड़ो अपनी रोटी कमाओ। बड़ा लड़का भागकर दिल्ली चला गया। वहाँ प्राइवेट नौकरी करने लगा। थोड़े दिनों बाद मैंने छोटे बेटे को भी उसी के साथ भेज दिया। इस बीच मेरे साथ काम करते हुए उसके बेटों का विवाह हो गया, उसके नाती-नातिन भी हो गए थे। जिन्हें वह बहुत प्यार करती है। छोटे बेटे का विवाह भी उसने इस बीच कर दिया। मुझसे कुछ हजार रुपये उधार भी लिये जिसको उसने हर महीने की तनख्वाह से कटवा दिया। जब आखिरी किश्त दे रही थी तो मैंने कहा चल रहने दे, वह तपाक से बोली, नहीं दीदी, उधार तो उधार ही है। फिर अगली बार कैसे माँग पाऊंगी। इस बीच मुझे लगा कि अब उसकी मुसीबतें कम हो गई हैं। दो बहुएँ आ गयी हैं। सब ठीक चल रहा है पर अब उसके पति का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था शायद उसे सन्निपात हो गया था। उसे दिखाने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले हल्द्वानी दिखाया फिर इलाज के लिए बेटों के पास दिल्ली लेकर भी गई पर उसकी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो रहा था। शायद शराब की लत के कारण उसका शरीर भीतर से गल चुका था जिस कारण दवाईयों का भी उस पर कोई भी असर नहीं हो रहा था। फिर भी उसने आस नहीं छोड़ी। झाड़ फूँक से लेकर गाँव जाकर जागर भी लगवाया। जाड़ों की छुट्टियों के बाद जब मैं आई तो पता चला कि उसके पति का देहान्त हो गया है। वह मेरे यहाँ काम पर आने लगी। इस बीच स्कूल से मिला कमरा छोड़ना पड़ा। अपने नाती-नातिनों को अच्छी शिक्षा देने के कारण वह गाँव वापस नहीं जाना चाहती थी। बहुत प्रयत्न करने के पश्चात उसको स्नोव्यू वाली पहाड़ी में एक छोटा-सा कमरा किराये में मिला। पति फण्ड में भी कोई विशेष रुपया नहीं छोड़ गया था। जितना रुपया मिला उसे उसने बैंक में अपने व अपने बेटों के नाम से जमा करवा दिया। सारे संघर्षों से जूझते हुए वह बहुत कमजोर हो गई थी। पर फिर भी उसने हार नहीं मानी। रोज तीन किमी. पैदल चलकर वह दूसरे पहाड़ से काम पर आती व शाम को घर जाती थी। ऐसे में पति की मृत्यु के कारण उसने मेरे यहाँ नाश्ता करना भी बंद कर दिया था। केवल चाय पीती थी। एक दिन मैंने उससे कहा सुबह नौ बजे खाना खाने के बाद शाम 6-7 बजे घर पहुँचती है। दिन में कुछ भी नहीं खाती। तेरे स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वह बोली, दीदी वार्सी होने तक मैं बाहर का खाना नहीं खाऊंगी। जिद्दी तो वह थी ही इसलिए मैंने ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा। हाँ, मेरी सलाह का इतना असर जरूर हुआ कि अपने लिए दो रोटियाँ घर से लाती थी तथा चाय के साथ खा लेती थीँ

मैं निरन्तर अनुभव कर रही थी कि पति की बीमारी फिर मृत्यु ने उसे अन्दर ही अन्दर तोड़ दिया है। वह शारीरिक व मानसिक रूप से थक चुकी थी। इन 8 वर्षों मैं मैंने अनुभव किया कि वह बहुत बुद्धिमान, ईमानदार व स्पष्टवादी महिला थी। जो अंधे को अंधा कहने से नहीं हिचकिचाती थी, झूठ से कोसों दूर। यदि उसे छुट्टी की आवश्यकता पड़ती तो वह उसे वह अपना अधिकार मानकर लेती, न कि उसके लिए कोई बहाने बनाती। कठिन से कठिन समय में भी वह अपने का हर्जा नहीं करती थी। कर्म के प्रति निष्ठा उसके अंदर थी। कभी-कभी वह कहती भी थी कि दीदी, जो रोटी हम खाते हैं वह ईमानदारी की कमाई की होनी चाहिए। काम तो पूजा है, उसे श्रद्धा से करना चाहिए। कभी-कभी मानसिक उद्विग्नता उसके व्यवहार में अवश्य दिखाई देती थी जो कि कहीं न कहीं उसके जीवन की जटिल परिस्थितियों का परिणाम थी। उसके व्यक्तित्व की अमिट छाप मेरे मन में सदैव अंकित रहेगी  इस एहसास के साथ कि कैसे एक सामान्य बुद्धिमान, संघर्षशील, महत्वाकांक्षी महिला पगली बना दी जाती है।
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