धर्मान्तरण विरोधी अध्यादेश-2018

Ordinance on Unlawful Conversions
-सुनीता पाण्डे

हाल ही में धर्म परिवर्तन कर एक मुस्लिम युवक से शादी करने वाली एक बीस वर्षीय महिला समेत उसके पति, चाचा काजी के विरुद्ध शादी के करीब तीन माह बाद उत्तराखण्ड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018 के प्रावधानों के उल्लंघन के तहत देहरादून के पटेलनगर थाने में कुमदमा दर्ज हुआ है, जो कि इस कानून के आने के बाद पहला दर्ज मुकदमा है। पुलिस की उक्त कार्यवाही पर धर्म परिवर्तन करने वाली महिला का कथन है कि इस मुकदमे से उसकी निजता का हनन हुआ है। शादी दो लोगों का एकदम निजी फैसला है। हम दोनों ने अपनी इच्छा से शादी की, अब बेवजह बदनामी से हम सब परेशान हैं जिसका विपरीत असर मेरी हर चीज पर पड़ रहा है। कहीं न कहीं इस कानून को बनाने की मंशा पर सवाल खड़ा करता है। (Ordinance on Unlawful Conversions)

दरअसल हमारे समाज में प्राचीन समय से जड़ जमाए मनुवादी विचारधारा का इस्तेमाल आरएसएस और उसके बिरादारान हिन्दूवादी संगठन जनता के संवैधानिक अधिकारों  को कुचलने के लिये समय-समय पर करते चले आये हैं। धर्म को खतरे में बताकर जनता के बुनियादी मुद्दों को हाशिये पर रख वह हिन्दू राष्ट्र निर्माण वाले एजेण्डे को तेजी से बढ़ाने की दिशा में गैर जरूरी कानूनों को स्थापित कर रहे हैं। धर्मान्तरण विरोधी कानून पारित होने से पहले ही ‘लव जेहाद’ शब्द का नामकरण कर मुहब्बत और पसन्द के चुनाव पर तीखे हमले संघीय मानसिकता को उजागर करते रहे हैं, जहां भिन्न धर्म के दो व्यक्तियों के कानून सम्मत फैसलों पर उन्मादी भीड़ों द्वारा अवरोध उत्पन्न करने का क्रम आज भी जारी है।

उत्तराखण्ड और फिर उत्तर प्रदेश के भाजपा शासित राज्य में धर्मान्तरण सम्बन्धी कानून पारित हुए हैं, जिसमें उत्तराखण्ड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018 व उत्तर प्रदेश गैर कानूनी धर्मान्तरण निषेध अध्यादेश 2020 है, जिसका उद्देश्य जबरन धर्मान्तरण जिसे लव जेहाद कहा जाता रहा है को रोकना बताया गया है। उत्तराखण्ड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018 के अनुसार जो व्यक्ति अपने धर्म को परिर्वितत करने की इच्छा रखता है वह जिला मजिस्ट्रेट या विशेष रूप से प्राधिकृत मजिस्ट्रेट को कम से कम एक माह पहले निर्धारित प्रारूप में घोषणा देगा कि वह अपना धर्म परिवर्तन स्वतंत्र सहमति पर बिना बल, जबरदस्ती, अनुचित प्रभाव या खरीद के बिना करना चाहता है।
(Ordinance on Unlawful Conversions)

धार्मिक पुजारी को भी इस कानून के तहत व्यक्ति का दूसरे धर्म में परिर्वितत कराने के लये एक माह पूर्व अग्रिम नोटिस जिला मजिस्ट्रेट का अन्य सम्बन्धी अधिकारी को देगा। जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस ऐसे आवेदन पत्रों की जांच के माध्यम से धर्म परिवर्तन के वास्तविक इरादे उद्देश्य और उस प्रस्तावित धर्म परिवर्तन के बारे में जांच करेंगे। प्रावधानों का उल्लंघन पाये जाने पर आरोपित व्यक्ति को एक साल से पांच साल तक की सजा और-जुर्माना लगेगा। कोई अवयस्क महिला या अनुसूचित जाति-जनजाति के धर्म परिवर्तन गैर कानूनी ढंग से कराने पर दो साल से सात वर्ष तक जेल की सजा व जुर्माने का प्रावधान है। ऐसे धर्म परिवर्तन में लिप्त संस्थानों का रजिस्ट्रेशन निरस्त होगा। सबूत का भार आरोपित पक्षकार पर होगा।

इसी तर्ज पर बनाया गया योगी सरकार का उप्र गैर कानूनी धर्मान्तरण निषेध अध्यादेश 2020 और भी सख्त और खतरनाक है। जिसमें विवाह के लिये ‘धर्म परिवर्तन’ नया शब्द जोड़ा गया है। जो पूर्व के कानूनों में नहीं दिखाई पड़ता। इस कानून में सामूहिक धर्म संपरिवर्तन, धर्म परिवर्तन के लिए कन्विंस उत्प्रेरित करने जैसे शब्द गड़े गये हैं। कोई व्यक्ति अपने पैतृक धर्म में वापस आकर ‘घर वापसी’ कर ले तो उसे धर्म परिवर्तन नहीं माना जायेगा। इस कानून में शिकायत दर्ज कराने वालों को एक बड़े दायरे में रखते हुए रक्त, शादी या दत्तक द्वारा जुड़े लोगों को भी धर्म परिवर्तन की शिकायत करने की खुली छूट दी है। प्रावधानों से लेकर पांच साल तक की सजा और अधिकतम 15000 रुपये जुर्माना, अव….., अनुसूचित जाति, जनजाति के धर्म परिवर्तन गैर कानूनी ढंग से कराने की दशा में 2 साल से लेकर 10 साल तक की अधिकतम 25000 रुपये का जुर्माना एवं गैर कानूनी सामूहिक धर्म परिवर्तन की दशा में तीन से दस वर्ष तक की सजा और कम से कम 50000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। धर्म परिवर्तन की पीड़िता को अभियुक्त से पांच लाख रुपया बगौर मुख…. दिलाये जाने का प्रावधान है जिसकी कोई वजह नहीं दी गई है।

उत्तराखण्ड और उप्र में पारित इन दोनों कानूनों को उच्चत्तम न्यायालय दिल्ली में सामाजिक संस्थाओं और अधिवक्तागणों द्वार चुनौती इस आधार पर दी गई है कि ये दोनों कानून संविधान के अनुसूची 21 और अनुसूची 15 का उल्लंघन करते हैं। यह कानून संविधान के मूल ढांचे में हस्तक्षेप करते हैं। संसद संविधान के भाग तीन के तहत निहित मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति रखती है। यह भी विधि के नियम के खिलाफ है कि विवाहित जोड़े को इस बाबत प्रमाणपत्र देना है कि यह विवाह धर्मान्तरण नहीं है। उन पर अतिरिक्त दबाव डालने जैसा होगा। इन कानूनों के तहत कठोर सजा को भी चुनौती दी गई है। हालांकि उच्चत्तम न्यायालय ने कानूनों के विवादास्पद प्रावधानों पर तुरन्त कोई रोक न लगाकर दोनों राज्यों को नोटिस जारी किये हैं। यह दोनों कानून व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अपनी इच्छा के धर्मपालन की स्वतंत्रता को दबाते हैं।
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देश में पहले से ही मौजूद विशेष विवाह अधिनियम 1954 की दोनों कानून बनाकर जबरन अनदेखी ही की गई है। जिसके तहत धर्म परिवर्तन के बगैर भिन्न जाति और धर्मों के दो वयस्क अपनी-अपनी पहचान के साथ विवाह का पंजीकरण करा सकते हैं। जो आज भी प्रचलित और मान्य कानून है। धर्मान्तरण विरोधी इन कानूनों में पक्षकारों को यह सफाई देने की बाध्यता कि यह जबरन धर्मान्तरण नहीं है उन पर दबाव डालना है। शिकायत कर्ताओं का बड़ा दायरा भी पक्षकारों को आजीवन इस भय और आशंका में जीने को विवश करेगा कि कब कौन व्यक्ति ब्लैकमेल कर उनके स्वतंत्र फैसलों के विरुद्ध शिकायत दर्ज करा दे। अपराधबोध कराकर, ज्यादती कर जबरन पैतृक धर्म की ओर वापसी कराने वाले तत्वों/संगठनों को यह कानून अपराधी नहीं बनाता है। न्यायालय ने पूर्व में एक मामले में न्यायमूर्ति के सुझाव भी ऐसे कानून की मंशा साफ कर चुके हैं।

उत्तराखण्ड उच्चन्यायालय के न्यायमूर्ति राजीव शर्मा ने 1968 के मध्यप्रदेश और 2006 के हिमाचल के धर्मान्तरण विरोधी कानूनों का हवाला देते हुए कहा कि कभी-कभी एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन केवल विवाह के लिए किये जाते हैं। दोनों राज्यों के कानून धर्मान्तरण को रोकते हैं। इसी तर्ज पर कानून बनाने की अपेक्षा की। साथ ही यह भी कहा कि कानून बनाते समय नागरिकों की धार्मिक भावनाओं पर भी पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। व्यवस्था की संकीर्ण मानसिकता को दुरुस्त किये बिना अपने राजनीतिक एजेण्डे को धार्मिक करने की नियत से पारित इन कानूनों का उद्देश्य उन्हें ढाल के रूप में इस्तेमाल कर हिन्दुत्व के मनुवादी चरित्र पर हिन्दू राष्ट्र को खड़ा करना दिखाई देता है। धर्म विवाह जैसी संस्थाओं पर पहले ही इस मानसिकता का पहरा है। एक स्त्री के अपनी पसंद और अन्तर्जातीय विवाह के फैसलों पर स्वीकार्यता आज तक भी नपाने में उन्हें जायज नहीं ठहराया जाता। लंबे संघर्षों से हासिल संवैधानिक अधिकारों को पाने में कई गतिरोध विद्यमान हैं। ऐसे में किसी महिला का अपनी स्वेच्छा से धर्मपरिर्वितत करने या दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह के फैसलों पर अब कानून का कड़ा पहरा उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर और भी घातक हमला है। उसे मनुवादी प्रवृत्तियों की तरफ धकेलने का प्रयास है।
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