एक-एक कदम परिवर्तन की दिशा में

 कमल कुमार

वीमन स्टडी सेंटर’की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार कानून, पुलिस, समाज और दी गई व्यवस्था औरतों के प्रति संवेदनशील नहीं है। संस्थाएँ, सत्ता और सामाजिक व्यवस्था स्थितियों को औरत की दृष्टि से नहीं देखतीं। न ही उनकी तरह सोचती हैं।

औरतों का क्षेत्र ‘घर की केयर इकोनॉमी’है। उसे घर गृहस्थी, पति बच्चों और घरवालों की देखभाल का काम करना है। इसलिए जन्म से लेकर मरने तक वह लिंगभेद की नीतियों का शिकार होती है। इसका एक कारण और बड़ा कारण पितृसत्ता के पूर्वाग्रहों की गहरी और जटिल परतें हैं जो हमारे सोच को अंधा बनाती हैं। इसलिए विकास कार्य यदि स्त्री को दो कदम आगे बढ़ाता है तो पितृसत्तात्मक सोच उसे चार कदम पीछे धकेल देता है। न्यायपालिका और कानून तक निष्पक्ष नहीं हैं। औरतों के हित की योजनाएँ और नीतियाँ फाइलों में बंद हैं। इसलिए जो भी प्रयत्न किए जाते हैं, निष्फल जैसे रहते हैं। तो भी आज हजारों औरतें, संस्थाएँ, एन.जी.ओ. और सार्वजनिक हित के मंच परिवर्तन की दिशा में कटिबद्ध हैं। इनका नारा है- चींटियाँ छोटी ही सही/दुर्बल ही सही/मासूम ही सही/पर जड़ों में पैठकर भीतर कहीं/अनहोना कर जाती हैं/एक दूजे के कानों में फूंकती हैं बीज मंत्र/बहुत ऊँचे चढ़ जाती हैं।

सर्वे रिपोर्ट में कहा गया था, सकारात्मक परिवर्तन के लिए सशक्त कार्रवाई की जरूरत है। परिवर्तन की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है पितृसत्ता का सामंतवादी सोच। सन् 1975-80 के बीच कई एन.जी.ओ. ‘वीमेन एडवोकेसी ग्रुप’के रूप में सामने आए। सबने माना कि औरत के सशक्तीकरण के लिए शिक्षा अनिवार्य है। साक्षरता अभियान की गति तीव्र की गई। सन् 1972 में उच्च शिक्षा के लिए नान-कॉलेजिएट शिक्षा प्रारंभ की गई। इस शिक्षा अभियान से औरतों की ग्रामीण लीडरशिप में सुधार हुआ। चुनावों में औरतों की भागीदारी बढ़ी। पंचायतों में औरतों ने सराहनीय कार्य किया। माइक्रो क्रेडिट योजना 20 रुपये में शुरू की गई। यह औरतों के र्आिथक सशक्तीकरण की शुरूआत थी। जिससे इनकी अपनी पहचान बनी।

समझा गया कि अब जरूरी है कि औरतें फैसला लेने वाली और नीतियाँ निर्धारित करने वाली समितियों में हों।

नवीं पंचवर्षीय योजना में पहली बार जैंडर जस्टिस जैसे विचारों का समावेश किया गया। समझा गया कि जैसे भी हो विकास योजनाओं का लाभ औरतों को अवश्य मिले। साथ ही औरतों के लिए अलग धनराशि हो। सरकारी योजनाओं में औरतों को प्रतिनिधित्व मिले।

दसवीं पंचवर्षीय योजना में औरतों ही को सामाजिक परिवर्तन का उत्तरदायित्व दिया गया। महिलाओं के कल्याण से ही उनके विकास का कार्य आगे बढ़ेगा। उसके बाद ही जैंडर जस्टिस की बात हो सकेगी। सन् 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना हुई और राज्यों के स्तर पर भी महिला आयोग बने। इनके माध्यम से औरतों के हित में अनेक अधिनियम लागू किए गए। कई संशोधन हुए। इनका मुख्य उद्देश्य था औरतों को मुख्यधारा में लाना ताकि वे फैसले ले सकें, नीतियाँ निर्धारित कर सकें। इस तरह जमीनी सच्चाई और नीतियों के बीच पुल बन सके।
One step at a time towards change

आत्मरक्षा और हिंसा के खिलाफ अभियान चलाया गया, कुछ कार्यशालाएँ आयोजित की गईं जहाँ जेण्डर पर आधारित हिंसा का औरतें प्रतिकार करना सीख सकें और उन्हें सबक भी सिखा सकें। एक 16 दिन का हिंसा विरोधी अभियान भी चलाया गया।

सन् 1991 में ‘सेंटर फॉर वीमन ग्लोबल लीडरशिप’ के द्वारा राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर स्त्रियों के अधिकारों को मानवीय अधिकार माना गया।

सन् 1995 में चौथा विश्व महिला सम्मेलन बीजिंग (चीन) में आयोजित किया गया।

सन् 1998 में ‘स्वयं समूह और मैत्रेयी’द्वारा ‘द गोल्डन गर्ल’का मंचन हुआ। औरतें सार्वजनिक जगहों पर कभी भी जा सकें, इस अधिकार के लिए रात में औरतों ने मशाल जुलूस निकाला। सन् 1998 में विश्वभर में औरतों के प्रति हिंसा विरोधी अभियान शुरू हुआ।

2002 में नुक्कड़ नाटकों के द्वारा सभी शहरों, कस्बों, गाँवों, सार्वजनिक जगहों पर स्त्रियों के प्रति हो रही हिंसा और यौन हिंसा के खिलाफ लोगों को जानकारी दी गई। उन्हें इस हिंसा के प्रति संवेदनशील और जागृत करने की भी कोशिश हुई। अब कितने ही कदम एक साथ आगे बढ़ रहे हैं, नई दिशाओं की तलाश में। यह मार्च भी आगे बढ़ेगा और तलाश भी।
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