उपन्यास अंश: हे ब्वारी!

त्रेपन सिंह चौहान

”भाइयो, भैनो! अगर हम चुप बैठ गए तो वह दिन कतै दूर नि छ जब हमारे ये आदमी लोग अपने पितरों को तर्पण भी दारू से देंगे। बथेरे लोग तो घर में मड़ा (शव) होने पर भी पैले दारू पीते हैं, उसके बाद मड़ा जलाने घाट पर जाते हैं। ये तो भौत अन्याय की बात कर री है ये सरकार। इस दारू के दैंत को अपने गौं में आने से पहले रोकणा ही होगा।” यमुना की आवाज में जोश और दर्द एक साथ घुल आया था। महिलाओं ने जोर से तालियाँ पीटी। लड़कों ने नारा लगाया।

रोटी की जगह दारू दे जो
वो सरकार भ्रष्ट है
जो सरकार भ्रष्ट है
वो सरकार बदलनी है

नारे रुके तो यमुना ने पुन: बोलना शुरू किया, ”हमुन लड़ै लड़ी थै ये राज का खातिर कि ये हमारे लोगों को रोजकार देगा, हमारा वण (वन) हमें देगा, हमारे यां इस्पताल खुलवायेगा, कोलेज खुलवायेगा, इस सरकार ने वो सब काम तो नी किया। हाँ हमारे गौं में दारू की दुकान सबसे पैली खुलवा दी। हमारे बच्चों को रोजकार देने से पहले इनके हाथों में दारू की बोतल पकड़ा दी।” सभा स्थल फिर तालियों से गूँज उठा। यमुना को तालियाँ बंद होने का इंतजार करना पड़ा।

”मैं कै री थी जब बड़ा राज था उत्तर परदेश, हम कैते थे कि वां की सरकार हमारी भासा नी समझती है। हमारे दु:ख-दरद को नी जानती है। अब हमारा राज हो गया है बल। इस राज के लिए हमने अपना सब कुछ खराब किया।” यमुना का गला भर आया था। सभा में एक दर्द तैर उठा। उसने अपने आप को सम्भाला और कहने लगी, ”हमने इस राज को पाने के लिए अपने भौत लोगों को पुलिस के हाथों मरवाए। खटीमा, मंसूरी, मुजफ्फरनगर में हमारे भौत लोग मरे। वे दिन जब याद आते हैं तो जुकड़ी (दिल) पर आरी चलने लगती है।” यमुना का गला पुन: भर आया और आँखों के कोर पर दो बूंद आँसू आकर अटक गए। उसने जल्दी से अपनी आँखें साफ की और कहना शुरू किया। ”तब की बात अलग थी। हम मानते थे कि वह परदेशी सरकार है। देशी लोग निर्दय होते हैं। हम तो पाड़ी लोग हैं। देहरादून की कुरसी में जो भी नेता बैठा है, उसकी ब्वै (माँ) ने तो जरूर भेला पाखों में घास काटा होगा। डांडे से लकड़ी सारी होगी। अपने गौं में लोगों के साथ अडियाल-पडियाल (सामूहिकता से काम करना) की होगी। वह तो इतना जरूरी जानता होगा कि हमारे देवता दारू से घिरणा करते हैं। दारू गौं को बिगाड़ देती है। फिर भी वह दारू की दुकान खोल रा है। हमारे दु:खों को नी समझ रा है। अपनी माँ बैणियों की तकलीफ को नी समझ रा है। हमारे छोरों के हाथों में काम की जगह दारू की बोतल पकड़ा रा है तो मैं उसके ब्वै-बाबू के लिए घात खेती हूँ, जिसने ऐसे पिथाने वाले कुओलाद को पैदा किया।” यमुना का दिल रोने का कर रहा था। वह बिना औपचारिकता निभाए नम आँखों से नीचे बैठ गई। उसे लगा कि वह ज्यादा बोलेगी तो रो पड़ेगी। उस राज की दुर्दशा पर या अपनी उस वेदना पर…? सभा में एक तरह का सन्नाटा पसर गया। किसी ने ताली नहीं बजाई।

भौं गाँव का एक नौजवान बिक्रम उठा और आगे आ गया। उसने अपना गला साफ किया और कांपती आवाज में बोला, ”मैं आज ही इस मीटिंग में अपनी माँ की कसम खाता हूँ कि अब कभी दारू नहीं पिऊंगा। सुरी देवी की कसम खाता हूँ कि न किसी को पिलाऊंगा…”

तालियों का एक सामूहिक शोर सभा स्थल से उठा और आसपास की पहाड़ियों से टकराकर विलीन हो गया। यमुना की आँखों से जहाँ आँसू छलक पड़े वहीं उसके ओठों पर एक मुस्कान खिंच आई। …शायद एक विजय मुस्कान।
Novel excerpt: Hey Bwari!

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यमुना घर के अंदर जाने वाली थी, किड़ू ने कहा, ”दिशा तुमने कुछ सुना?”

”क्या…?” यमुना रुकी और मुड़ी। असमंजस से भरी प्रश्नसूचक नजरों से वह किडू़ को देखने लगी।

”हमारे ठांगधार में दारू का ठेका खुल रा है।” किडू़ ने अपनी आवाज को थोड़ा धीमा किया। जैसे वह इस रहस्य को सिर्फ  यमुना को ही बताना चाह रहा हो।

यमुना के लिए वैसे भी यह बड़े रहस्य वाला समाचार था। वह चौंक पड़ी। वह किडू़ के करीब आकर बोली, ”क्या कै रा किड़ू तू”

”हाँ दिशा। मैं ठीक बोल रा हूँ।” किड़ू की बातों में विश्वास झलक रहा था। बोला,”ब्याली शाम जगत राम प्रधान और जटाधार बामण की बात हो रही थी। जब वे दोनों होटल से घर आ रे थे।” किडू़ विश्वास दिलाने के लिए अपना सर जोर-जोर से हिला रहा था। ”वे लोग ऐसे ही बोल रहे थे दिशा।”

”कब खुल रहा है ठेका?” यमुना के चेहरे का रंग बदलने लगा था। उसके अंदर एक सनसनाती हुई बेचैन हवा चली तो वह अब तूफान का रूप लेने लगी थी। अरे इस किड़ू ने आज सो संगरांदी के दिन क्या खबर सुना दी रे? उसे किडू़ की बातों पर विश्वास करना मुश्किल होता जा रहा था।

”ये तो मैं नी बता सकता।” किड़ू ने कहा। ”जगत राम प्रधान बता सकता है।”… और किडू़ ने ढोल के तणके कसे, उसके कोनों में दो-तीन चोटें मारी फिर ढोल को बजाते हुए वहाँ से दीगर के घरों में चला गया, संगरांद बजाने।

यमुना का मन अब रसोई में जाने का नहीं कर रहा था। सच तो यह है कि उसके हाथों ने कोई भी काम करने के लिए इनकार कर दिया था।

यमुना रसोई में गई, बौंड़ गई, भैंसों के पास गई, सगवाड़े गई, क्यों…? यमुना को खुद ही मालूम नहीं था कि वह बेवजह ऐसे क्यों भटक रही है।… बेचैनी से या आने वाली पीढ़ियों के भविष्य पर तबाही के हस्ताक्षर होते देख रही थी वह। अपनी बेचैनी को कम करने के लिए यमुना पुन: रसोई में जा रही थी, मनोज ट्यूशन से घर लौट आया। उसने कुछ जल्दी में मनोज से कहा, ”तू दौड़ी जा, प्रधान ससुर तैं देखी ओ, वे घर ही छ कि नी।”

”कु प्रधान जी…?” मनोज ने माँ से पूछा। गाँव में तो तीन पूर्व प्रधान भी हैं। सभी को गाँव के लोग प्रधान ही कहते हैं। किसके पास जाएगा मनोज?

”अरे सरीता का ससुर जी।” यमुना ने कहा।

”सुबेर-सुबेर…?” मनोज ने सवालिया निगाह से माँ को देखा। बोला, ”कोई पूजा-पाठ करना है या मेरे लिए किसी लड़की की जन्मपत्री आ रखी है, उसे जुड़ाना है तुझे…?” मनोज मुस्कराने लगा।

”तू जाता है की…?” यमुना को थोड़ा राहत मिली मनोज के मजाक से। वह भी जन्मपत्री के नाम से मुस्कुरा उठी थी। उसने डंडा उठाया था मनोज को डराने के लिए।

मनोज गया तो यमुना को लगा बेटा बड़ा हो गया है। जन्मपत्री की बात करने लगा है। ब्वारी आने की कल्पना से ही यमुना के अंदर मीठेपन का अहसास होने लगा था। उसे थोड़ा सुख का अनुभव भी हुआ।

मनोज लौट के आया तो उसने बताया,”प्रधान जी घर ही हैं। वे कहीं भैर जाने की तैयारी कर रहे हैं।” यमुना ने जल्दी से मनोज से कहा, ”तू घर पर रा। मैं अभी उनको मिलकर आती हूँ।” वह तेजी से पूर्व प्रधान जगतराम के घर की ओर दौड़ पड़ी।

जगतराम कपड़े  बदलकर कमरे से बाहर निकला। अपने आँगन में असमय यमुना को खड़ा देखा तो वह सकपका गया। वह समझने की कोशिश कर रहा था कि यमुना को ऐसा कौन-सा काम आ निकला है जो सुबेरे उसे मेरे घर आना पड़ा? यमुना ने पांव लागो गुरुजी कहा और जगतराम के करीब चली गई। अपनी सीधी बात पर आकर बोली, ”मैं यां दसलिए आई हूँ कि अबी थोड़ी देरे पैले किड़ू आया था संगरांद बजाने हमारे घर पर। वो कै रा था कि ठांगधार में दारू की दुकान खुल री है। ऐसा तुमसे सुना किड़ू ने। क्या सच बात है या?” यमुना के चेहरे पर हल्के गुस्से के डोरे तैरने लगे थे।
Novel excerpt: Hey Bwari!

”अरे हाँ।” जगतराम ने जूते उठाए। दांदे में बैठकर जूते पहनने लगा। बोला,”कल खुली है रुद्रप्रयाग में ठेके की लौटरी। सरकार ने तीन-चार ठेके नये खोले हैं बल। बता रे हैं कि एक ठेका ठांगधार में भी खुला है। यह ठेका किसी पौड़ी के चढ््ढा या ठट्ठा के नाम खुला है।” जगतराम बता रहा था। ”खुला तो उसके नाम,… पर दुकान चलाने के लिए उन्होंने दीपक को, फत्तू का लड़का किशोर को रख लिया है नौकर। यह बात मैंने भी ऐसे ही सुनी है, पक्का तो आज श्याम तक बता दूंगा तुझे।”

”इस राज्य की सरकार विकास कार्य नी कर री है,…. पैले दारू का ठेका ही खोल री है?” यमुना को गुस्सा आने लगा था। दारू की दुकान की बात सुनकर पंडितानी रसोई से बाहर निकल आई थी।

”अभी राज बने दो साल भी पूरे नी हुए। जब राज बना था तब मैंने सोचा चलो, इतनी बरबादी के बाद कैने को अपना राज तो मिला। अभी संभालने में टेम लगेगा। कभी-न-कभी हमारी कुरबानी की कीमत हमारी सरकार हमारे छोरों को या हमारे लोगों को छोटी-मोटी नौकरी दे के चुका देगी। या सरकार तो हमारी कुरबानी की कीमत दारू की भट्टी खोलकर दे री है।” वह क्षोभ भरे शब्दों में बोली, ”कनु बज्र पड़ी यार। राज यांक बनाया हमने कि ये सरकार नौकरी देने की बजै हमरो छोरों को दारू दे। बिजोक पड़ने का समय आ गया रे।”

”अगर इतनी बात छ त फिर एक और झलोस उठाने की जरूरत छ। उठा झलोस। इस गौं के उगटने के दिन ऐगे समझो।” चिंता की गाढ़ी रेखा पंडितानी के चेहरे पर भी खिंच आई थी। वह यमुना की चिंता में शरीक होकर बोली थी।

”क्या फरक पड़ता है।” जगतराम जोने को हुआ। जाते-जाते बोल गया। ”आज के छोरे नेपालियों की चुंआई दारू पी रहे हैं। भट्ठी खुलेगी तो ठीक दारू तो पीने को मिलेगी लोगों को।” उसने जोर देकर कहा। ”मेरे हिसाब से सरकार ठीक काम कर रही है।” वह हँसता हुआ ठांगधार के लिए निकल गया।

यमुना की समझ में नहीं आया कि यह बात पंडित ने मजाक से कही है या दारू की भट्ठी के समर्थन में कही है? वह कुछ निष्कर्ष पर पहुँचती उससे पहले पंडितानी बोल पड़ी, ”इनकी भीजेपी की सरकार कैसी है। इनको ये सरकार सोने के ढिड़के दे रही है। ये सरकार कुछ भी अनियाय करे इनके लिए तो जैसे सभी ठीक है।” पंडितानी के चेहरे पर गुस्से की लालिमा चढ़ आई थी। यमुना के पास आती हुई बोली, ”ब्वारी उठा झलोस। हम भी बैठेंगे हड़ताल पर तेरे साथ।”

”यू दीपक त हमारा गाँव पर गरण जनू लैगी सासू जी।” गुस्से से यमुना की नसें तनने लगी थीं। उसको गाली देती हुई बोली,”ये माता की ज्वानी नी टूटण कभी। मन कर रा है कि साबला ले जाऊं और उस साले का कुडा (मकान) तोड़ दूं।” वह व्यथित हो उठी थी। अब तो इस गाँव को भगमान भी नी बचा सकता। ऐसे बुरे दिन आने वाले हैं इस नये राज में। छी…. क्यों मांगा होगा हमने यह राज? उसको दारू की दुकान को गांव से बाहर कैसे खदेड़ें इसी बात की चिंता सताने लगी थी। उसके दिमाग में कई सारे सवाल एक साथ रौला मचाने लगे थे।

यमुना भारी मन से वापस घर लौट आई। मनोज स्कूल जाने की तैयारी कर रहा था। बिंदू स्कूल चली गई थी। भैंस को प्यास बेचैन कर रही थी। प्यास के मारे वह ख्ँटे का चक्कर काटने लगी।

माँ को परेशान देख मनोज ने कमरे से ही आवाज दी, ”माँ! भौत परेशान दिख रही है। कुछ नया बखेड़ा होने वाला है क्या?” वह अब अपनी माँ को इसी तरह से चिढ़ाने की कोशिश करता है। लेकिन वह सब एक मजाक होता। यमुना के लिए भी और मनोज के लिए भी। जबर्कि बिंदू थोड़ा संजीदा किस्म की लड़की है। वह ज्यादा फालतू बातें नहीं करती। अपनी माँ के सभी कामों में हर संभव हाथ बंटाने की कोशिश करती है वह।

मनोज स्कूल के लिए निकल चुका था। यमुना कमला के घर जा पहुँची। फुरकी स्कूल को निकलने की तैयारी कर रही थी। यमुना ने फुरकी से पूछा, ”तेरी ब्वै कख गै रे आज, सुबेर-सुबेर?”
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फुरकी हँसी, ”त्वै सणी सुबेर नजर आ री क्या? चाची भी त….।” फुरकी ने बताया, ”माँ मोल (गोबर) ले गई है खेतों में।” उसने यमुना से पूछा, ”क्या काम पड़ा आज मेरी माँ के हाथों का?”

यमुना वापस घर के लिए मुड़ी। बोली, ”कोई खास नी।” यमुना ने घर आकर भैंस को पानी पिलाया। उसके खूंटे में घास की एक पुली डाली। वह जशोदा सास के घर जाने की सोच रही थी, रास्ते में उसे कमोली जंगल की तरफ जाती हुई मिल गई। खुशी की एक रेखा दोनों तरर्फ खिंच आई। यमुना ने पूछा, ”बण जा रही है क्या?”

”ना बण तो नी जा री हूँ। गोरू गए हैं उस ओर। सोचा एक बार उनको देख आऊं। कहीं उजाड़-उपाड़ न चले जाएं किसी के बाड़े में।” कमोली ने यमुना से पूछा, ”अरे तू अभी….?”

”अरे क्या बताएं।” यमुना ने कहा और अपनी बात शुरू करने से पहले सफाई देती हुई बोली, ”लोग कैंगे कि कोई काम-धात तो नी है। उठा ही रखा है इसका धंधा।” वह हँसी और फिर बोली, ”मंगसीरी का छोरा कु फिर मुर्दा मरीगी रे दीदी। अब यां दारू की दुकान खोलने का ठेका मिल ग्या उसको। हमारे ठांगधार में।”

”ये सच…?” कमोली चौंकी। यमुना कह रही है तो अविश्वास करने का कोई कारण भी नहीं हो सकता। इस तरह के जो भी गाँव और समाज को परेशान करने वाले समाचार हैं, वे सबसे पहले यमुना के पास ही पहुँचते हैं। फिर भी संतुष्टि के लिए कमोली ने पूछा, ”त्वै सणी कैन बताई?”

”सरिता के ससुर जी।” यमुना ने कहा। कमोली का हाथ पकड़ते हुए बोली, ”ये दैंत तैं इस गौं में मत घुसने देना रे दीदी, दारू कू यू दैंत हमारे बच्चों का भविष्य खाकर हमारे मवासे को बर्बाद कर देगा।” उसने कमोली का हाथ कसकर दबा दिया था। गुस्से की एक परत यमुना के चेहरे पर चढ़ने लगी थी।

”न…, कतै ना।” कमोली को गुस्सा आने लगा था। वह उत्तेजित होकर बोली, ”र्मिंटग बुलाओ आज ही। या तो वो मास्त (दीपक) यां रैगा या हम इस गौं में रैंगे।” कमोली मण भर के गाली रख गई दीपक के हिस्से। ”उसकी ब्वै ने पैदा होते ही इसको खाड (खड्डे) में क्यों नी रख दिया था।” वह दीपक को कोढ़ पैदा होने से लेकर कुड़ी खंडवार होने तक की बद्दुआ देने लगी।

”तू अपने गौरू (पशु) देख के आ। मैं गाँव की जनानियों के लिए कैं कर आती हूँ।” यमुना ने कमोली से कहा, ”आज ही ये बात कू फैसला होना चाए कि ठंगधार में हम किसी भी कीमत पर दारू की भट्टी नहीं खुलने देंगे।”

”मैं अबी आती हूँ।” कमोली ने कहा और वह जंगल की तरफ तेज-तेज कदम बढ़ाती हुई चली गई। थोड़ा दूर जाने के बाद मुड़ी और ऊँची आवाज में यमुना से बोली, ”गोरू देखकर आती हूँ। तेरे दगड़ तब मैं भी चलती हूँ गौं में। गौं की सारी जनानी को बुलाओ आज।”

”ठीक छ। तू घर त औ पैले।” कमोली के उत्साह ने यमुना के अंदर साहस भर दिया था। यमुना घर लौट आई। उसने जल्दी में नाश्ता किया। धूप तेज होने लगी थी। भैंस को अंदर गोट में बांधा। फिर गाँव-भर की सभी महिलाओं को बैठक में शामिल होने के लिए घर-घर जाकर कहने लगी थी वह। ठांगधार में शराब की भट्टी (दुकान) आ री है। जिस महिला ने भी सुना वह पहले चौंकी और फिर गुस्से से भरती चली गई।

हे ब्वारी से साभार
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