स्मृति नहीं, कृति

रमेश चन्द्र शाह

‘स्मृति होते-होते’। यही नाम दिया था उसने अपनी हाल ही में प्रकाशित संस्मरणों की किताब को! मैं क्या नाम दूँ उसे, जो मेरे लिए कभी स्मृति नहीं बन सकती….. जो शुरू दिन  से आज अभी तक मेरे लिए ‘कृति’ ही बनी रही….. एक सदा अपूर्वानुमेय और सदा असमाप्य कृति, जिसमें निरन्तर, नित नई-नई कोंपलें फूटती रहती हैं, … जो यूँ है तो मुझसे अलग और स्वतंत्र, किन्तु जो जाने क्यां और कैसे मुझे शुरू दिन से ही नितान्त मेरी अपनी कृति, नितान्त मेरी अपनी कल्पना-सृष्टि ही लगती रही हर दृश्य और श्रव्य यथार्थ को चाँपकर उस पर अन्तत: हावी हो जाती कल्पना-सृष्टि। मानो कल्पना ही एकमात्र टिकाऊ सच हो और वही अपने बस का हो- बाकी सब कुछ हमारे नियंत्रण से बाहर परिस्थिति का खेल महज़- जिसका हमारी असलियत से कोई सम्बन्ध नहीं। क्या इसी को ‘रोमांटिक जुनून’ कहा जाता है? कैसा रोमान है यह, जो समूचे जीवन के आर-पार अपनी अटल अनिवार्य सत्ता में कायम रहे आता है: काल-गति को मुँह चिढ़ाता।

उससे मेरी पहली मुलाकात ही उसकी कविता के जरिये हुई। यदि वह कविता मेरे सामने नहीं पड़ती तो शायद हम एक-दूसरे के अस्तित्व से भी बेखबर रहे आए होते। कविता की बजाए यदि मैं पहले साक्षात् उससे मिला होता तो भी शायद वैसा कुछ घटित नहीं होता। बहुत ज्यादा देर भी नहीं लगी थी उस घटना के बाद सचमुच उसके जीवंत संपर्क में आने में। पर हर बार जब भी मैं उससे मिलता, मानो उससे नहीं, उसकी कविता से ही मिलकर लौटता। कविता ही क्यों, उसकी चिट्ठियाँ भी मेरे लिए उसकी दैहिक उपस्थिति और उसकी आवाज से भी कहीं ज्यादा बहुत ज्यादा जीती-जागती और कहीं ज्यादा प्रत्यक्ष हुआ करतीं।

जब हर दिशा में/अन्धकार गहराये थे
तब मेरी पुतलियों के/कंदील जल उठे थे
मूक आलोक छिटक गया था
क्योंकि तुम जा रहे थे…
आज/अनन्त के हर कोने में/दीप जल उठे हैं
आँखों के छलकते ताल में
पुतलियों के दो कमल/काँपकर खिल गये हैं
क्या,/सच ही तुम लौट आए हो?

वह ‘ज्ञानोदय’ का ‘नवोदित लेखिका विशेषांक’ था जिसमें उसकी यह कविता और कुछ अन्य कविताएँ भी छपी थीं, कविताओं के अन्त में छपे पते पर तो मेरा तब ध्यान ही नहीं गया था: कैसी मोहनी माया थी वह, किस कदर मेरे मन-प्राण को मथ डालने वाली! कि मैं छटपटा उठा कवयित्री को तुरन्त तत्काल पुकार लगाने को। और जब अकस्मात उस पते पर निगाह पड़ी, तो मैं विस्मय अवाक् रह गया। इस पते पर तो मैं जाने कितनी चिठ्ठियाँ पठा चुका हूँ। बेशक किसी अन्य को। पर उसे भी तो पता होगा न? अरे, यह कैसा संयोग, कि वयस्क जीवन में जिस पहले ही साहित्यकार को मैंने अपने  इतना निकट पाया और पत्राचार के माध्यम से जिसके निकटतर आता जा रहा था, उन्हीं की पुत्री निकल आई यह तो!डरते-डरते पहले तो वीरेन भाई को  ही अपनी ‘डिस्कवरी’ का विस्मय उल्लास जताया, तो उनकी प्रेरणा से एक दिन स्वयं कवयित्री के हाथ की लिखावट का प्रसाद क्या सुलभ हुआ, सीधे उसी के साथ प्रत्यक्ष पत्र-संवाद का राजमार्ग ही खुल गया! जल्द ही हम मिले भी और बार-बार मिलते रहे, किन्तु वह मिलना अक्षर-कुंजों में मिलने के अनुभव से हर बार जाने कुछ अलग ही छिटका रहता: कभी भी उसके समकक्ष नहीं उठ पाता। नियति का यह कैसा संकेत था जिसे पाकर सारा जीवन ही मानो उसी एक दुर्दम्य और उदग्र उत्कण्ठा में सिमट आया था….. उसी एक प्रतीक्षा और उसी एक आहट को समर्पित, उसी से एकजान…
not a memory but a work

2.
ज्योत्सना की पैदाहश और परवरिश मुम्बई में हुई थी: मुम्बई- जिसे उसी की एक कविता ने- उसकी छोटी से छोटी कविताओं में भी सर्वाधिक छोटी कविता ने अजर-अमर बना दिया है:

पैदा होने के दिन से
हरदम कूदने को
झुका शहर
समुद्र पर

मुम्बई भारत का सर्वाधिक ‘कॉस्मोपोलिटन’ महानगर है। वह कॉस्मोपोलिटन संस्कार ज्योत्सना मिलन के भीतर कहीं गहरे भिदा हुआ था। गुजराती उसके लिए मातृभाषा की तरह थी, गुजराती के बड़े से बड़े लेखकों के ‘इनर सर्किल’ का हिस्सा थी वह। हिन्दी से भी पहले उसने गुजराती में अपनी पहचान बनाई थी। मराठी भी उसके लिए उतनी ही सहज थी। शायद इसी कॉस्मोपोलिटन संस्कार के चलते भी उसमें तमाम तरह के लोगों को ही नहीं, तमाम तरह की परिस्थितियों-परिवेशों को भी पचा और अपना लेने की अद्भुत सामथ्र्य विकसित हुई थी। इसका असंदिग्ध और भरपूर प्रमाण तब मिला, जब विवाहोपरान्त उसका साबका एक ऐसे वातावरण और परिवेश से पड़ा जो उसके जन्मसिद्ध परिवेश का सौ फीसदी विलोम था। सीधी- जहाँ मैं उन दिनों प्राध्यापिकी कर रहा था- विंध्यप्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा कस्बा था: अक्षरश: अन्दमान, जहाँ पार्क या थियेटर या सिनेमाघर की तो कौन कहे, कायदे का बाजार और एक होटल तक नहीं था। हमारा निवास भी एक के भीतर एक धँसे तीन डिब्बानुमा कमरों का था जहाँ सुबह-शाम चूल्हा सुलगते ही पड़ोसी घरों का सारा धुँआ भीतर भर आता था। बुरादे की अंगीठी से ही अक्सर काम चलाना होता था। ऐसे माहौल में अपनी नई-नई गिरस्ती की शुरूआत करना…. और अपनी युवावस्था के पूरे आठ बरस उसी में झोंक देना! इससे अधिक कुंठाधारी परिवेश भला और क्या होगा! हमारे सामने-सामने ही बीसियों मेरे सहकर्मी आए और एक-डेढ़ बरस के भीतर ही उस अण्डमान से अपनी रिहाई करवाके चले गए। हमीं एकमात्र अपवाद थे जो किना किसी आशा या संभावना तक को टोह लिए अपने उस ‘अरण्यकाण्ड’ में मस्त रहे आए: उसी को अपना राज्याभिषेक मानते रहे। सुबह तीन किमी. चलके एक टेकरी पर चढ़के ‘शोणभद्र’ के दर्शन करना,…. शाम बेटी को कंधे पर बिठाए सूनी सड़कों की सैर…., घर में सप्ताह में एक बार उस इलाके के गवैयों की बैठक जमाना….. साल में तीनेक बार दो सौ मील की कमरतोड़ बस-यात्रा करके अपने साहित्य-तीर्थ इलाहाबाद के चक्कर लगा आना, – अपने प्रिय लेखक-अंग्रेजों के सत्संग का सुख लूट लाना….! भला क्या कसर रह गई थी हमारे लग्न-जीवन के उस उष:काल को स्मरणीय और सार्थक बनाने में!

पर इस उत्सवधर्मिता का सारा श्रेय मेरी इस निरीह निर्लज्ज काठी को नहीं, उसकी सर्व-स्वीकारी और सर्वोश्लेषी अन्तरात्मा या कि अन्त:करण को था। कैसी पाटी होगी उसने मुम्बई और सीधी के बीच की वे दुर्लघ्य खाइयाँ! किस बूते? मुझे अपने वेतन का एक तिहाई हिस्सा अपने माता-पिता को भेजना होता और उस तंगहाली के चलते कभी-कभी वह नौकरी ढूँढने की जिद करती। मैं अड़ जाता: ‘क्या घर चलाने की आठों-याम की नौकरी कम है जो तुम अपने सिर पर एक और बोझ लादना चाहती हो? थोड़ी सी जो मोहलत तुम्हें नसीब है, अपनी अन्तरात्मिकचर्या को जीने की- क्यों उसे भी गँवा देने पर तुली हो? तुम्हें पता नहीं, नौकरी होती क्या है?’ फिर भी जब वह बहुत पीछे पड़ी तो निजी तौर पर एम.ए. (अंग्रेजी) करा देने का चक्कर चलाया। पहला ही परचा करके आई तो बेहद खुश। पता चला, सेंट झेवियर्स कॉलेज में ‘क्वालिटी असेसमेंट’ हुआ करता था; तो उसी मुगालते में पाँच की बजाय तीन ही प्रश्नों का सत्कार करके चली आई हैं। मैंने सिर पीट लिया: ‘अरे पागल! यह मुम्बई नहीं, रीवा है। पाँचों सवाल करने होते हैं। अब तुझे सौ में से नहीं, सिर्फ साठ में से नम्बर मिलेंगे। तू जरूर अपनी समझ से फस्र्ट डिविजन लाई होगी। मगर जो मार्कशीट तुझे मिलेगी- वह थर्ड डिवीजन की होगी- समझी?’ मगर वह अपनी जिद पर अड़ी रही और कभी भी उसने पाँच के पाँच प्रश्न हल नहीं किये। नतीजा जो होना था, वही हुआ।

इस घटना के बीस बरस बाद, जब हम स्थानांतरित होकर वापस भोपाल पहुँच चुके थे- तब अकस्मात् हमारे जीवन में वह सुदिन भी आया जब ‘सेवा’ संस्था की संस्थापक और विश्वप्रसिद्ध समाजकर्मी इलाबहन भट्ट भोपाल पधारीं और उन्होंने ‘ज्योत्सनाबेन’ के सामने अपने पाक्षिक मुखपत्र ‘अनसूया’ का हिन्दी अवतार संभव करने का प्रस्ताव रखा। यह उसकी नहीं, स्वयं मेरी भी मुँहमाँगी मुराद पूरी होने की घड़ी थी। तब से अट्ठाइस बरस बीत गए, ‘अनसूया’ ज्योत्सना के जीवन में उतने ही महत्व की जगह घेरे रही, जितनी उसकी कविता और कथा। स्व रोजगारी स्त्रियों को समर्पित यह भारत ही क्या, विश्व भर की इकलौती अनूठी संस्था और उसकी गतिविधियाँ उसके लिए अनिवार्य बनी रही। वह नौकरी नहीं, सच्चे अर्थों में ‘सेवा’ थी: उसकी सर्जक वृत्ति की सगी और संपूरक गति-विधि। जिसने उसके लिए निरन्तर सार्थक आत्मदान का- ‘फुलफिलमेंट’ जिसे कहते हैं, उसका मार्ग खोला। स्वयं इलाबेन का व्यक्तित्व और कृतित्व उसके लिए सदैव एक अचूक और अजस्र प्रेरणास्रोत बना रहा। रेनानाबेन से भी उसका उतना ही अंतरंग और उपजाऊ  सम्बन्ध बना। और इंदौर, लखनऊ, भागलपुर इत्यादि तमाम ‘सेवा’ के केन्द्रों में कार्यरत स्त्री-शक्ति की प्रतिनिधियों से भी।
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3
ज्योत्सना मूलत: कवि थी; जन्मजात, सहजिया कवि। ऐसी प्रतिभा और स्वभाव के लिए कैसी भी विचारधारा से जुड़ने की एक सुस्पष्ट सीमा-रेखा होती है, जिसका उल्लंघन सृजनात्मकता के लिए आधारभूत ‘स्वातंत्र्य’ के मूल्य-बोध को ही घपले में डाल दे सकता है। ज्योत्सना इस विडम्बना से सर्वथा मुक्त रही आई। उसका नारीवाद भी किसी ‘आइडियोलॉजी’ का बंधक नहीं बन सकता था: वह उन्हीं अर्थों में ‘फेमिनिस्ट’ थी, जिस अर्थ में वर्जीनिया वुल्फ और एमिली डिकिंसन सरीखी कवि-कथाकार प्रतिभाएँ ‘फेमिनिस्ट’ कहला सकती है; यानी जीवन-जगत को एक सच्ची और भरी-पूरी स्त्री की आँखों से देख और दिखा सकने की विलक्षण क्षमता, जिसका कोई विकल्प नहीं है, और जो बेहद जरूरी है: सृष्टि की अर्थव्यवस्था को उसकी धुरी पर कायम रखने के लिए।

वह सौ टंच समतावादी थी; दैनंदिन जीवन में अक्षरश: आचरित मूल्यबोध और व्यवहार के सच्चे अर्थों में। उसके पिता स्व. वीरेन्द्रकुमार जैन, जिनसे मेरी पहचान ज्योत्सना को देखने-मिलने से भी काफी पहले हो चुकी थी- श्री अरविन्द के ‘विजन’ के सर्वाधिक निकट थे- हालांकि अपने स्वप्नद्रष्टा स्वभाव के चलते उनकी यूटोपियन आस्था में माक्र्स के लिए भी थोड़ी-बहुत गुंजाइश निकल ही आती थी। परन्तु मैं यहाँ ‘आइडियोलॉजी’ की नहीं, वास्तविक जीवन में जिये जा रहे मूल्यों की बात कर रहा हूँ और उसी नाते कहता हूँ कि मैंने अपने समूचे जीवन में अपने श्वसुर महोदय और उनकी सबसे ज्येष्ठ संतान ज्योत्सना मिलन सरीखे समतावादी यानी समता के मूल्य को अक्षरश: अपने जीवन में चरितार्थ करने वाले व्यक्ति बहुत कम देखे हैं। ऊँच-नीच का भेदभाव तो दूर, जिसे ‘हायरार्किकल सेंस’ कहा जाता है वह भी उस घर में सर्वथा अनुपस्थित था। मैं कह सकता हूँ कि समता के आदर्श या बोध को जीने के लिए किसी भी आइडियोलॉजी की आड़ कदापि-कदापि अनिवार्य नहीं। वह जैन धर्मावलम्बी परिवार की उपज थी, और मैं ठेठ हिन्दू ‘हायरार्किकल’ जीवन-व्यवस्था और परम्परा की। कुछ तो मत-वैभिन्य और टकराव ऐसे में स्वाभाविक ही था और वह कभी-कभार सतह पर भी उभर आता। विवाहोपरान्त जब वह मेरे अल्मोड़िया घर-परिवेश में दाखिल हुई, तो उसे वहाँ बहुत कुछ अनभ्यस्त और विचित्र लगा होगा। चूँकि वैसे भी मेरे घर के लोग- विशेषकर मेरी माँ इस विवाह के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे-  मुझे तीनेक वर्ष इस विरोध को शमित और अपने पक्ष में अनुकूलित करने में लग गए थे- इसलिए नई बहू का यह तेवर उनके लिए सर्वथा अनपेक्षित था। तब फिर आखिर कैसे क्या जादू हुआ कि देखते-देखते एक डेढ़ हफ्ते के भीतर-भीतर ही वह क्या छोटे, क्या बड़े सबकी स्नेहभाजन बन गई? यहाँ तक, कि उसे बड़े कुटुम्ब के रसोईघर में भी उसे सीधी पैठ हासिल हो गई और बूढ़े-बच्चे सब कोई उसकी सरलता और आत्मीयता के ही नहीं, उसकी व्यावहारिक सूझ-बूझ के और पाकशास्त्रीय निपुणता के भी कायल हो गए। सबने एक स्वर से माना और घोषित किया कि ऐसी सुन्दर सुडौल और सुकुमार-स्वादिष्ट रोटियाँ तो उन्होंने कभी देखी-चखी ही नहीं थीं।

यहाँ तक, कि वही माँ- जिसे सर्वाधिक सदमा- ऐसा सदमा-पहुँचा था इस विवाह से, कि हमारे आगमन के अगले ही दिन से उसने खाट पकड़ ली थी- वही मेरी माँ उसी बहू के गुणों पर इस कदर निछावर हो गई कि हर साल जाड़ों में उसका सामीप्य पाने की ललक मन में सँजोए वह अपनी कमजोर हालत को भी दरकिनार करते हुए भोपाल के चक्कर लगाती रही। इतना ही नहीं, उसके भीतर छुपी अदम्य जिजीविषा, बच्चों सरीखा कौतूहल और ऊर्जा का भी एक नया ही संस्करण प्रगट हो आया। पिता- जिन्हें वह बाबू कहके बुलाती, वे भी देखते-देखते इस ‘अजनबी आत्मीय’ के ऐसे कायल हुए कि बस कुछ पूछो मत।

ज्योत्सना कभी-कभी  ‘इम्पल्सिव’ और ‘मूडी’ हो जाती थी और अपने इस पक्ष को भी बगैर किसी संकोच के तुरन्त-तत्काल अभिव्यक्त होने देती थी। किन्तु उसके अन्तर्मन में या कहें स्वभाव में, एक ऐसी जबर्दस्त उछाल थी कि वह पलक मारते कैसी भी प्रतिक्रिया से उबर आ सकती थी। बिलकुल अल्मोड़े के आसमान की तरह: जो अभी एकदम नीला-निरभ्र होता और अभी एकदम बादलों से घिर आता और मिनटों के भीतर तड़ातड़ बरसकर फिर उसी पारदर्शी निर्मलता में जगमगा उठता। अन्याय- चाहे वह जिसका भी, जिसके भी प्रति क्यों न हो, उसे कत्तई नागवार था और उसकी अनदेखी करना या तटस्थ भाव ओढ़ लेना असंभव था उसके लिए। साफ दीखने वाला अन्याय या संवेदनहीनता ही नहीं, किसी भी तरह की उदासीनता या टाल-मटूल या चूक पर वह तुरन्त और तत्काल अपनी मुखर प्रतिक्रिया जाहिर किये बिना रह नहीं सकती थी। मन में उठने वाली किसी भी बात को छुपाना या मन ही मन मे रखना तो वह जानती ही नहीं थी। मैं उससे कहता था- ‘‘जीवन में सत्यवादिता का ऐसा अक्षरश: आग्रह कुछ पुसाता नहीं। जीने के लिए थोड़ी नाटकीयता, कवच, मुखौटा आदि भी जरूरी है। मात्रा ज्ञान यानी ‘सेंस ऑव प्रपोशन’। अपनी स्वतंत्रा की रक्षा के लिए भी औरों से तथा स्वयं अपने आपसे थोड़ी दूरी बनाए रखना आवश्यक है।’’ परन्तु यह बात उसे हजम नहीं होती थी। इसके बावजूद सचाई यह थी कि मैं खुद जितनी जल्दी और जितनी देर तक आत्मावसाद में गर्क हो जा सकता था, उसकी तुलना में वह बहुत जल्द ही अपने उद्वेग से उबर आती थी। वही लचीलापन, वही स्वाभाविक उछाल उसकी तबीयत की उसे हर नकारात्मक प्रतिक्रिया से, हर आत्मावसाद से उबार लेती थी। मेरी बहुविध व्यस्तताओं के बावजूद वह मुझे मूलत: कवि ही मानती थी, और उसे शिकायत थी कि मैंने अपने स्वभावसिद्ध दायरे से छिटक कर क्यों इतनी जगह अपने को उलझ जाने दिया।
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‘सेवा’ और ‘अनसूया’ से जुड़ने के बाद ज्योत्सना के स्वभाव का जो बहिर्मुखी सामाजिक पक्ष था, वह उत्तरोत्तर उभरता और निखरता चला गया। वह भी उसकी आत्माभिव्यक्ति का उतना ही अनिवार्य माध्यम बन गया जितना उसकी काव्यात्मक और कथात्मक रचनाशीलता।

यह अनुभव स्वयं उसकी ‘क्रियेटिविटी’ के लिए भी पोषक साबित हुआ। कितनी त्रासद विडम्बना है यह, कि अब जब सचमुच इन दोनों प्रवृत्तियों का मणिकांचन संयोग अपने चरमोत्कर्ष को छूने-छूने को था, उनका अधिष्ठान- वह स्वयं ही आकाश-मार्ग से जाने कहाँ अन्तर्धान हो गई।

महाभारत में कहीं पढ़ा था कि जीवन ‘सहस्रमुख भय और शोक का स्थान’ है। मगर उसके साथ ही अन्यत्र कहीं यह भी, कि ‘जीवन अखण्ड सौभाग्य और अलभ्य वरदान है।’ क्या इन दोनों उक्तियों के बीच कहीं कोई संगति बैठती है? फिर वे क्यों हमारे समूचे वाङ्मय में इकट्ठे ही रची- बसी हैं?

भोपाल के ‘चिरायु’ अस्पताल में- (क्या इससे भी अधिक वाहियात और विडम्बनापूर्ण नाम भी किसी अस्पताल का हो सकता है?) हाँ, उसी अस्पताल में तीन दिन, तीन रात चली उसकी अचेतन जीवन-यात्रा के अंतिम छोर पर मेरी बेटी राजुला ने मुझसे कहा- ‘पापा, उठो, खेल खत्म हो गया। यह शोक का नहीं, मुक्ति का क्षण है। माँ को जो ‘आकाश’ अपने सारे सगों से ज्यादा सगा लगता था, स्वयं जीवन का ही पर्याय, बल्कि परमार्थ, माँ अब उसी में मुक्त हो गई है। आकाश को आकाश होने से अब कोई नहीं रोक सकता।’
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