मेरे शिक्षक: जीवन कथा- आठ

My Teacher Memoir by Radha Bhatt
फोटो : Pinterest से साभार.

-राधा भट्ट

प्रायमरी पाठशाला के प्रधानाचार्य बहादुर राम आर्य के बारे में मैंने पूर्व में लिखा है, जिन्हें मैं अपने प्रिय शिक्षक की तरह जीवन की इस संध्या में भी याद करती हूँ। यहाँ कुछ अन्य शिक्षकों के बारे में लिखने का मन है, जिनकी स्नेहपूर्ण सदाशयता ने मेरे जीवन को समृद्घ किया था। नारायण स्वामी हाईस्कूल के प्रथम प्रधानाचार्य विद्यासागर दीक्षित जी के गरिमापूर्ण, गम्भीर व्यक्तित्व ने श्री नारायण स्वामी हाईस्कूल के उन प्रारम्भिक वर्षों में एक ईमानदार व नीति सम्पन्न वातावरण की बुनियाद डाली थी, जिसमें विद्याध्ययन ही मुख्य उद्देश्य था। उनके विद्यालयी कार्यकाल में उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क करने के लिए मैं बहुत छोटी थी। उम्र में ही नहीं, पहुँच में भी। परन्तु विद्यार्थी जीवन के दशकों बाद दीक्षित जी के एक पुराने छात्र श्री श्रीपाल प्रवीण ने उनके जीवन पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने के निमित्त से नारायण स्वामी विद्यालय में उनके कार्यकाल में पढ़ने वाले छात्रों से सम्पर्क किया था।
(My Teacher Memoir by Radha Bhatt)

यह 1996 से बाद की बात होगी। मैं तब कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की महामंत्री के रूप में इन्दौर (मध्य प्रदेश) में व्यस्त थी। इन्हीं सज्जन श्रीपाल प्रवीण ने अपने एक पत्र में दीक्षित जी का मेरे नाम एक सन्देश लिख भेजा, ‘‘तुम समाज के उत्थान के लिए जो काम कर रही हो, उससे मुझे गर्व होता है कि तुम मेरी छात्रा रही हो।’’ इसके बाद मेरा दीक्षित जी को पत्र लिखना स्वाभाविक था, और उत्तर में उन्होंने एक सारर्गिभत विस्तृत पत्र भेजा। अगले कुछ वर्षों तक हमारा पत्र व्यवहार चलता रहा। तब तक जबकि उनकी आँखों से दिखाई देना कम नहीं हो गया। उनके उन्हीं पत्रों में उन्होंने मुझे लिखा था, राधा को कृष्ण की प्रेयसी बताने वाले भक्तगण गलत संदेश देते हैं। राधा वास्तव में कृष्ण के उस अभियान की प्रधान सेनापति थी जो वह कंस के अत्याचारों के विरुद्घ चला रहे थे। तुम्हारे द्वारा चलाये गये आन्दोलन, जो समाज पर हो रहे अन्याय के विरुद्घ तुम्हारा संघर्ष है, समाचार जब मुझे मिलते हैं तो मुझे कृष्ण काल की वह साहसी व प्रगल्भ राधा याद हो आती है, इसे पाकर लगा था कि यह उनका मेरे जीवन कार्य के लिए अमूल्य आशीर्वाद था। एक बार उनकी वृद्घावस्था में मैं उनके दर्शनों के लिए मेरठ गई थी। वही मेरे लिए उनके अन्तिम दर्शन थे।

दूसरे मेरे प्रिय शिक्षक हमारे कला शिक्षक श्री राजपाल सिंह ‘करुण’ थे। वे हमेशा शुद्घ खादी का सफेद कुर्ता और पायजामा पहना करते थे जो कोट-पैन्ट-शर्ट वाले उस माहौल में एक बहुत ही भिन्न व सादगीपूर्ण लगता था। यह सादगी ही उनकी उज्ज्वल पहचान थी। वे कवि भी थे, चित्रकार तो थे ही। उनकी कविताएँ आत्मिक भावों, कुछ आध्यात्मिकता की छवि लिए हुए बड़ी झंकृत शब्दावली में लिखी होती थीं। मैं अपनी हर रचना उन्हें दिखा देती, वे उसमें कुछ सुधार कर देते व मुझे कहते, ‘‘इसे बालसभा में सुनाना,’’ जब सातवीं कक्षा में मैंने, ‘‘तुम जान न पाये मैं क्या हूँ पहचान न पाये।’’ कविता की रचना करके उन्हें पढ़ने व सुधारने को दी तो पढ़ने के बाद वे खुशी से उछल से पड़े और बोले, ‘‘तू’’ तो मँजी हुई कवयित्री बन गई राधा, क्या ओजपूर्ण भाव है इस कविता का? मैं आज भी सोचती हूँ, यह कैसा अद्भुत प्रोत्साहन था उनका, अपने विद्र्यािथयों के प्रति। शायद बिरले ही शिक्षक होंगे जो छात्रों की सुप्त प्रतिभा को इसी प्रकार खोलते होंगे।
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काव्य के अतिरिक्त वे हमें वाक् प्रतियोगिताओं के लिए भी तैयार करते थे, कभी-कभी पूरा भाषण लिखकर देते थे कि तुम उसे याद कर लो। कभी हमें कुछ मुद्दे बताते ताकि हम इन्हें अपनी भाषा में प्रस्तुत कर सकें और सबसे बड़ी बात यह कि वे हमें ऐसी युक्तियाँ सिखाते जिससे हम बड़ी सभा देखकर घबरा न जायें। उनकी बताई युक्ति को याद करके ही मैं एक ग्रामीण बालिका होने के बावजूद अल्मोड़ा के नगरीय छात्र-छात्राओं व शहरी जनता की विशाल सभा में धड़ल्ले से बोल पाई थी।

मैं सातवीं कक्षा में थी, तभी एक दिन उन्होंने गोदान (सम्पूर्ण) की छोटी पुस्तक मेरे हाथों में रख दी, बोले। ‘‘इसको पढ़ना’’ मैंने आश्चर्य से कहा, ‘‘प्रेमचंद की गोदान? मैं इसे समझ भी पाऊंगी?’’ ‘‘अपने को कम मत आँको, तुम खूब अच्छी तरह इसे पढ़ोगी और समझोगी भी।’’ उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा था। शायद वे मुझे भविष्य में एक साहित्यकार बनाना चाहते थे। मैं उस मोटे ग्रन्थ को घर ले गई और पढ़ना शुरू किया। उस उपन्यास ने मुझे मानो पकड़ लिया। मैं हर शाम के कार्य बँटवारे में कहती, ‘‘ईजा, आप लोग बाहर के कामों में जाओ, मैं घर के काम निपटाऊंगी।’’ और जल्दी-जल्दी घर की सफाई-बर्तन धोना व शाम के भोजन के लिए सब्जियाँ काटकर तैयारी करना आदि पूरा कर देती। बस, तब बैठकर गोदान पढ़ने लगती। ईजा के घर पहुँचने व गोठ-पात करने तक अंधेरा घिर आता। मैं उस अंधेरे में आँखें गढ़ाये पढ़ती रहती थी। सम्भव है, एक या डेढ़ माह में मैंने उसे पूरा पढ़ डाला। पूरी पढ़ने के बाद मैंने उस ग्रन्थ को अपने मास्साब को लौटाया होगा। मुझे याद नहीं कि उन्होंने उस समय क्या कहा था पर मैंने उनका विश्वास पूरा किया, इसकी खुशी उन्होंने अवश्य जताई होगी।

उन दिनों हमें पत्र लिखने का बड़ा शौक था पर किसे लिखें पत्र? जब बाबूजी फौज में थे, उन्हें पत्र लिखते थे। पर शायद एक साहित्यिक पत्र लिखने का मन किया होगा तो ‘आदरणीय गुरुजी’ सम्बोधन से मास्साब को ही पत्र लिख दिया। वह सर्दियों की छुट्टियों का समय था। एक किसी प्रश्न का निमित्त लेकर ही पत्र लिखा था, पर उसमें रामगढ़ की प्रकृति का साहित्यिक वर्णन भी किया था। वे बड़े थे और मैं बच्ची थी, पर उन्होंने मेरे पत्र का उत्तर दिया था, और ऐसा नहीं किस किस बच्ची को लिखा हो, वरन मानो अपने हम उम्र किसी मित्र को पत्र का उत्तर दिया हो। ऐसे भाव से लिखा था।
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कुछ दशक के अन्तराल के बाद मुझे अपनी एक सहपाठी के द्वारा पता चला कि मास्साब अरविन्द आश्रम के साधक बन गये थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चरथावल में अरविन्द आश्रम का एक छोटा आश्रम था, वे वहीं रहकर साधना करते थे। मैं अपनी सहपाठी व सहेली वीरबाला रस्तोगी के साथ चरथावल में उन्हें मिलने गई थी। मास्साब के साथ मेरा पत्र-व्यवहार जानकारी मिलते ही चल पड़ा था। उनके आध्यात्मिक विचारों से सम्पुष्ट वे पत्र संग्रहणीय थे किन्तु तब तक मेरी जिन्दगी बहुत भाग-दौड़ में व्यस्त हो गई थी। वे पत्र एक बार नहीं दो-दो बार पढ़े गये और फिर किसी-किसी फाइल में गुम हो गये।

एक और शिक्षक थे जिन्होंने मेरे पत्र का उत्तर दिया। वे कुछ महीनों के लिए हमारे विद्यालय में शिक्षिका के रूप में रहीं। उस समय वे एकमात्र महिला शिक्षिका थीं। मैदानी भाग की रहने वाली थी, इसलिए उनके लिए पहाड़ी क्षेत्र दुर्गम था। जाड़ों की छुट्टियों में जाते हुए उन्होंने स्वयं ही कहा था, मेरे लिए चिट्ठी लिखना और मेरे पत्र का भावनापूर्ण उत्तर भी दिया था। मेरा सौभाग्य था कि मुझे ऐसे सहृदय शिक्षकों का मार्गदर्शन मिला। जिन्होंने अपनी आत्मीयता देकर मेरी सुप्त शक्तियों को अंकुरित किया था।

मेरे मन ही नहीं, अन्तरात्मा को स्नेह-श्रद्धा के भावों से भर देने वाले ऐसे शिक्षकों में जोशी जी को भूलना नहीं हो सकता। वे अल्मोड़ा नगर के निवासी थे। नगर-निवासियों का नाजुकपन उनके व्यक्तित्व और बोलने व व्यवहार में स्पष्ट झलकता था। शालीनता व शिष्टाचार हम उनसे सीख सकते थे पर नगर की एक कमी भी उन्हें मिली थी। वे मद्यपान करते थे। उनकी इस कमी को लोग कान में खुशफुशा लेते थे पर कोई खुलकर कभी कहने की हिम्मत नहीं रखता था क्योंकि पीने के बाद वे कभी बाहर लोगों में नहीं देखे गये थे। पीकर वे अपने कमरे में बंद हो जाते थे। तब शराब की दुकान भवाली में हुआ करती थी। रामगढ़ में कहीं भी किसी प्रकार की शराब नहीं मिलती थी। अत: जोशी जी रविवार को भवाली की 20-22 किमी़ की पदयात्रा शराब की एक बोतल खरीदने के लिए करते थे। सुबह जाकर शाम वापस रामगढ़ आते थे।

उस दिन वे भवाली से लौट रहे थे। उनके कंधे में एक बैग था। शायद उसमें बोतल होगी। रविवार का दिन था। घर के किसी काम से ईजा ने मुझे तल्ला रामगढ़ भेजा था। मैं वापस लौट रही थी। सूर्यास्त हो गया था। साँझ घिरने लगी थी। मैं तेज कदमों से चढ़ाई चढ़ रही थी, तभी पैदल सड़क के एक घुमाव पर जोशी जी कुछ ढीले-ढाले कदमों से आते दिखाई पड़े। मैं ठिठक गई। मेरे हाथ नमस्कार के लिए जुड़ गए। वे मुझे देखकर खुश हो गए और अपनी लटपटाती आवाज में बोले, ‘‘अरे यहाँ?’’ और फिर तो बोलते रहे। मैं रास्ते के दाँये जाऊँ तो वे भी दाँये ओर और मैं बाईं ओर तो वे भी उधर ही लड़खड़ाते कदमों से चले जाते। क्या ये मेरा रास्ता रोक रहे हैं? मैं घबरा गई और जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि मुझे रास्ता मिल गया और मैं जान बचाकर भाग निकली। मेरे शिक्षक और वह भी सयाने, शिष्ट, समझदार के ऐसे हाल देखकर मेरा मन काँप गया था।

दूसरे दिन विद्यालय में अन्तिम वादन (पीरियड) में संगीत था। जोशी जी संगीत के शिक्षक थे। उनका मुख्य विषय तो अंग्रेजी साहित्य था। वे बड़ी कक्षाओं को अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। संगीत के लिए वे शान्ति से हमारी कक्षा में प्रविष्ट हुए। एक बालक से हारमोनियम मंगाया। उनकी उँगलियां उस पर घूमने लगी। तभी उन्होंने धीमी आवाज में मुझे ही सर्वप्रथम बुला लिया। ‘‘आओ, तुम गाओ। मैं हमेशा गाने के लिए उत्साह पूर्वक आगे बढ़ने वाली, उस दिन मन ही मन मना रही थी कि आज मेरी बारी न आये। पर.. मैं गई। उनकी उंगलियाँ धीरे-धीरे कोई मन्द-सी धुन बजा रही थी। उन्होंने धीरे से कहा, बेटा तुम मुझे माफ कर देना। कल मैंने तुम्हें डरा दिया। अपनी गलती पर बड़ी उम्र के मेरे गुरु मुझसे क्षमा मांग रहे थे। दूसरी ओर उस अनपेक्षित व्यवहार से मैं एक बार पुन: घबरा गई थीं। मेरा चेहरा लाल हो गया और आँखें डबडबा आईं पर उन्होंने शुरू किया एक भजन से- ‘‘हे दयामय… और मैंने गला साफ करके उस धुन में अपना स्वर मिलाने का प्रयास किया। पूरा गाया। कहाँ मेरे मन में जोशी जी मास्साब के लिए जो एक हेय भावना पैदा हो गई थी आज धुल गई और मन आदर से भर गया।’’
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क्रमश: …

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-राधा भट्ट, लक्ष्मी आश्रम, कौसानी

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