मेरा आसमान

आशा जैरा

शीर्षक पढ़कर आपको अटपटा-सा लगा होगा। आसमान तो एक ही है और सभी का है लेकिन अपने-अपने हिस्से का अपना अलग से भी तो है, यही तो जया का (काल्पनिक नाम) मानना रहा है।

मैं उस कन्या को लगभग 6 वर्ष की आयु से जानती हूँ। एक प्राइवेट विद्यालय में अध्यापिका के पद पर नियुक्ति के समय पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली जया सामान्य छात्रा थी। हाँ, मानना होगा उसमें कुछ तो  क्रियाशीलता रही होगी तभी तो  कक्षा 2 में चित्रकला प्रतियोगिता में उसकी कलाकृति राज्य स्तर पर पहुँची (यद्यपि 6 वर्ष का बालक शायद प्रतियोगिता का अर्थ उतनी गहनता से नहीं समझता होगा)।

जया कुछ अर्थों में कहा जाए तो शर्मीली स्वभाव की एक सामान्य-सी लड़की थी। लगभग आठवीं-नवीं कक्षा में आते-आते (हो सकता है पहले भी रहा हो परन्तु मेरे संज्ञान में नहीं है) उसका झुकाव मेरे प्रति एक आदर्श अध्यापिका के तौर पर होने लगा। मेरे जन्मदिन पर बधाई पत्र, छोटे-छोटे उपहार वह देने लगी। एक संयोग था कि मेरा जन्मदिन उसके जन्मदिन के ठीक पाँच दिन बाद उसी महीने में आता है। मैं एक विद्यार्थी से उपहार लेने में संकोच अनुभव करती थी अत: मैं भी उसके जन्मदिन पर अधिक राशि के उपहार देने लगी। इसमें मेरे पति का विशेष सुझाव था और वही बढ़चढ़कर जया को उपहार दिलाने लगे।

जया ने धीरे-धीरे मेरे घर पर आना जाना आरम्भ कर दिया। वह शर्मीली थी। अपने पिताजी की मोटर साइकिल (90 के दशकमें) चलाकर आती थी। सर झुकाकर दो-चार वाक्य बोलती जो भी नाश्ता सामने रखते चुपचाप गुरु आज्ञा मानकर खा लेती। इस बीच मेरे पति एवं उसके पिता सामान्य विषयों पर बात करते रहते। धीरे-धीरे वह अपनी माँ के हाथों की बनी बाजरे की खिचड़ी या कभी राबड़ी लाती। मैं सभी प्रकार के भोजन को स्वाद से खाती थी। इसी से उसे प्रसन्नता होती। मैं भी बदले में होली में गुजिया व दीपावली र्में ंसगल बनाकर उसे खिलाती थी एवं माँ के लिए घर पर भेज देती।

जया की कलात्मकता का भान मुझे तब और हुआ जब उसने जिद करके मेरे लिए एक बैडकवर पर पेटिंग की। मैंने कुछ कलर एवं कलर के नाम पर पचास रुपए उसे दिए जो उसने मुश्किल से लिए। एक अन्य मौके पर उसने एक सुन्दर-सी वाल पेटिंग भी उपहार में मुझे दी। विद्यालय से दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् भी वह मेरे से मिलती रही। इसी बीच अपने चाचाजी एवं बाद में छोटे भाई के विवाह में मुझे आमंत्रित किया। अब वह थोड़ा-सा मुखर होने लगी थी। बोलती कम थी परन्तु बोलने तो लगी थी।
my sky

जया ने स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। बीच-बीच में वह बतलाती थी कि आजकल वह पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने का काम कर रही है। राजस्थान की राजपूत परिवार की कन्या यह सब करे तो थोड़ा-सा अचरज होता है। वह बतलाती है उसने कुछ केंप भी अटेण्ड किये जिसमें केवल महिलाएँ 4-5 दिन तक टैण्ट में रहतीं और प्राचीन राजपूती परिपाटी को जीवित रखने के लिए रात्रि के समय 4-4 घंटे नंगी तलवार लिए बारी-बारी पहरेदारी करती थीं। जया ने कुछ संस्मरण सुनाए। मैं विस्मित थी कि एक सामान्य-शर्मीली लड़की एकाएक सामान्य से कहीं हटकर कार्य कर रही है। मेरा विस्मय तब और भी बढ़ गया जब मुझे मालूम हुआ कि जया का रुझान धीरे-धीरे  आध्यात्म की ओर अधिक होने लगा है। वह एक आश्रम में प्राय: जाकर सेवा कार्य करने लगी। जया के पिता ने इसका विरोध किया परन्तु माँ का साथ एवं रजामंदी होने के कारण वह आश्रम में रहने लगी परन्तु लोक निन्दा से बचने के लिए प्रारम्भ में उसकी माँ उसके साथ रहती थी और बाद में उसका छोटा भाई एवं भाभी उसके साथ रहने लगे।

आश्रम में महंत महाराज उनके गुरु थे जो अत्यन्त नेक एवं समाज सेवी व्यक्ति थे। उनकी बात को जिलाधीश तक नहीं टालते थे क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से कार्य करते थे।

जया से मेरा मिलना-मिलाना अभी भी बदस्तूर जारी है। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उनकी माँ धार्मिक प्रवृत्ति की थी उनके सहयोग से ही वह भी इस राह पर चल पड़ी।

एक दिन जया ने मेरी ही पूर्व छात्रा की लगभग चार पृष्ठ की एक चिट्ठी मुझे पढ़ने को दी और कहा कि आप पढ़कर उस लड़की को प्यार से समझा दें। चिट्ठी पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि जया की देखा-देखी वह भी इसी राह पर चलना चाहती है और इसके लिए जया का सहयोग चाहती है। (वह छात्रा एल.एल.बी. कर चुकी थी) जया का कहना था कि यह राह तो अत्यन्त दुष्कर है। जिसमें सर्वप्रथम अपने परिवार का विरोध झेलना होता है फिर रिश्तेदार एवं समाज की आलोचना एवं मन गढ़न्त संभावनाओं की कानाफूसी एवं तीखी नजरों का प्रहार झेलना होता है। तन-मन से दृढ़ होना पड़ता है तभी इस राह पर चल सकते हैं। बहरहाल उस छात्रा के भी मेरे पास कभी-कभी फोन आते रहते थे। उसको मैंने बिना यह आभास कराए कि मैंने उसका लिखा पत्र पढ़ा था उसे अपने ही तरीके से समझाया। पता नहीं इस कारण या दूसरी किसी वजह से उसने इस मार्ग पर चलने का विचार त्याग दिया, ऐसा मेरा मानना है।

जया आज महामण्डलेश्वर है एवं अपने आश्रम की ‘महन्त महाराज’हैं। पूर्व महन्त महाराज ने अपने ब्रह्मलीन होने से पूर्व, अनेक  विरोधों के पश्चात भी जया को महंत बना दिया। स्वयं बाबा के परिवार से उनका उत्तराधिकारी बनकर सामने आये एक व्यक्ति ने जया को इस पद से हटाने के लिए बवाल खड़ा कर दिया। अनेक दिनों तक पुलिस सुरक्षा के मध्य विवाद चलता रहा। बाबा एवं अब जया के भक्तों ने इस बात का एकजुट होकर विरोध व सामना किया कि वह व्यक्ति बाबा के घर छोड़कर आने से लेकर बीमारी के उपरान्त स्वर्गवास होने तक कहाँ था जो अब उनकी गद्दी पर अधिकार जताने आ गया है। बहरहाल अब जया जी सारे काम-काज संभाले हुए है। ट्रस्टीज की रजामंदी से आश्रम सुधार एवं जनहित के अनेक कार्य वह कर रही हैं। गौशाला, बीमार गरीब व्यक्तियों हेतु दवाइयों, वस्तुओं की व्यवस्था करवाना, बंद पड़े विद्यालयों को चलवाने की व्यवस्था करना आदि जनहित के अनेक कार्य वह समाज के व्यक्तियों से ही करवातीं। जब वह महंत नहीं बनी थी तब भी उन्होंने एक विद्यालय को लगभग डेढ़ लाख का फर्नीचर, दूसरे विद्यालय में निर्धन परिवार के बच्चों हेतु गणवेश ,पुस्तक, स्वेटर आदि का इंतजाम करवाया।

लगभग एक माह पूर्व मैं उनसे मिली थी। उस दिन हम दोनों ने अनेक विषयों पर लंबे समय तक बातचीत की। अपने अनुभव, समस्याएँ उन्होंने सुनाए। आजकल आश्रम पर होने वाले हमलों से भी वर्ह ंचतित थी कि हमले लूट और कभी-कभी अन्य नीयत से भी किये जाते हैं। स्थायी सुरक्षा गार्ड की नियुक्ति के मेरे सुझाव पर उनकी स्वीकृति बन रही थी।

जया जी शिवभक्त हैं एवं शिव कथाएँ सुनाने हेतु उन्हें अनेक राज्यों में भी आमंत्रित किया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व वह बद्रीनाथ यात्रा भी करने आई थी। राजस्थान के अनेक कस्बों एवं गाँवों में उनकी कथा के मध्य अचानक शिव जयकारे लगाने वाले या एक रिदम पर शरीर को डुलाने एवं नचाने वालों के बारे में वह मुस्करा कर मेरे विचारों पर हामी भरती हुई कहती हैं कि कुछ तो आह्लादित होकर स्वत: यह करने लगते हैं तो कुछ देखा-देखी अपनी ओर ध्यानाकर्षित करने के लिए भी करते हैं।

जया जी के आश्रम पर जब भी जाओ वह समयानुकूल नाश्या या भोजन के बिना नहीं आने देती। उनका कहना है बाबाजी कभी भी किसी को भी बिना प्रसाद लिए आश्रम से नहीं जाने देते थे। मैं भी उनकी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहती हूँ। उस शाम मैंने जया के मन को कुरेदने का बहुत प्रयास किया (क्योंकि हम दोनों लगभग दो-ढाई घंटे पहली बार अकेले थे) कि जया जी जो दिख रही हैं कह रही हैं बस उतना ही है या उनके अंदर कुछ और भी है जो वह बताना नहीं चाहती, यह तो स्पष्ट है कि मानव होने के नाते उनकी भी कुछ कुण्ठाएँ, समस्याएँ एवं चिन्ताएँ अवश्य होंगी। बहरहाल रात्रि के भोजन के पश्चात जब मैं विदा लेने के लिए उठी तो वह भी मुझे छोड़ने के लिए आने लगी। ड्राइवर के न होने से वह स्वयं कार से मेरे को अनेक बार घर पर छोड़ चुकी हैं परन्तु मैं अपना साधन स्वयं लेकर आई थी अत: मैंने उनसे विदा ली और समझ गई कि उन्होंने अपना पृथक आसमान का एक हिस्सा अपने लिए नियत कर लिया है, जिसकी छाँव में वह स्वेच्छा से निर्भीक होकर अपनी राह स्वयं तय कर चल रही हैं।
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