हमारी बेजी

निर्मला सूरी

रिक्शे में बैठी मैं सोच रही थी, बाजार से मुझे क्या-क्या लेना है। कहीं कुछ छूट न जाय, पहले क्या लूं, अन्त में क्या लूँ? समय कम है। घर भी जल्दी लौटना है। तभी एक ऊँची आवाज ने मेरा तारतम्य तोड़ दिया। एक ऑटो वाला चौराहे पर, रिक्शे वाले पर बरस पड़ा- देखता नहीं, अन्धा है क्या? साले बिहारी, भूखे यहाँ चले आते हैं। मुझे बिजली का सा एक झटका लगा। रिक्शा उसके ऑटो से जरा छू भर गया था। मैंने कहा, भाई, बिहारी क्या दूसरे देश से है, यह भी हमारे ही देश का है। किसी तरह उसे शान्त कर हम आगे बढ़े पर मेरी मन:स्थिति उसी विवाद में उलझी रही बड़ी देर तक।

इंसान इंसान से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है? कहाँ तो हम वसुधैव कुटुम्बकम् की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और कहाँ अपने देश के भाई-बहनों को कुछ भी बोल देते हैं। अपने घरों को छोड़कर बिहार क्या और जगहों, प्रदेश के लोग पुराने समय से दूसरी जगहों पर रोजी-रोटी के लिये जाते रहे हैं। इसी दु:ख को परदेश जाने का दु:ख कहकर लोकगीतों में गाया जाता रहा है।
(My Grandmother)

सोचते-सोचते मैं अपने बचपन में कहीं खो गई। मुझे बेजी याद आ गईं। बेजी यानी मेरी माँ। ईजा, आई, अम्मा की तरह ‘बेजी’ पंजाबी में माँ के लिये एक सम्बोधन है। वह भी बात-बात पर कहती थी, हम तो यहाँ परदेशी हैं। मैं छोटी थी, तब समझ नहीं पाती थी कि वह ऐसा क्यों कहती है? मुझे तो यहाँ बहुत अच्छा लगता है, अपना घर, तालाब, पहाड़, जंगल, अपने साथी सभी कुछ। पर बड़े होने पर मुझे उनके हृदय की टीस समझ में आई कि वह ऐसा क्यों कहती हैं। अपनी जड़ों से अलग होने का दु:ख कितना बड़ा होता है, इसका अहसास मुझे उनकी बातों से होता था।

बेजी अक्सर हमें अपने बचपन की बातें व कैसे उन्हें अपना घर छोड़कर बच्चों के साथ निकलना पड़ा, बताया करतीं और बताते-बताते वह रो पड़ती। हम भी उनके साथ सिसकने लगते। अपने माता-पिता के अलावा उनमें अक्सर अपनी सहेलियों कौशल्या, रेशमा, विद्या, सलमा आदि का जिक्र होता था। भारत-पाकिस्तान के विभाजन का दु:ख कितना भयंकर था। सब कुछ छोड़कर दूसरी जगह चले आना, कुछ अपने लोग छूटे, कुछ मारे गए, कुछ बिछुड़ गए। ऊपरी जख्म तो समय के साथ भर गये परन्तु मानसिक जख्म व हृदय की पीड़ा भरने में बहुत समय लगा। किसी प्रकार से बेजी और पापाजी ने अपनी नयी जिन्दगी शुरू की। सोना-चाँदी जो थोड़ा-सा ला सके, वह भी शरणार्थी कैम्प में चोर उठाकर ले गये। रिश्तेदारों से थोड़ा उधार लेकर उन्होंने राशन की एक दुकान खोल ली। दुकान क्या थी, छोटे से कस्बे में सब्जी, राशन, फल सब एक साथ बेचते थे।
(My Grandmother)

धीरे-धीरे जीवन की रफ्तार सामान्य होने लगी। आस-पास के लोगों से भी धीरे-धीरे घुल-मिल गये। शरणार्थी हैं, पाकिस्तान से भागकर आये हैं। कभी-कभार यह भी सम्बोधन सुनने को मिलते थे, जो धीरे-धीरे समाप्त होते गये। बेजी पढ़ी-लिखी न थीं पर पढ़ने का उन्हें शौक था। अपने अनपढ़ रहने का उन्हें बहुत दु:ख था। हमेशा हमें पढ़ने को कहतीं। पापाजी भी बहुत परिश्रमी थे। बहुत सन्तोषी प्रवृत्ति थी उनकी। अक्सर कहते हम क्या लेकर आये थे यहाँ? कुछ भी तो नहीं था हमारे पास। हम पाँच बहनें थीं। बेजी कभी-कभी पुत्र न होने का दु:ख बयाँ कर कहने लगतीं- हमारा श्राद्ध कौन करेगा? कुल कैसे तरेगा? बड़े होने पर हम उनकी इन बातों पर हँसने लगते। पर उन्हें वास्तव में इसकी बड़ी चिन्ता रहती। फिर भी हमारी परवरिश में उन्होंने कभी कोई कमी न की।

मुझे याद आता है, बेजी ने गाय भी पाली थी। उसका सारा कार्य भी वह करतीं। दुकान के लिये एक बोरी मूंगफली वह हर दसवें दिन भून डालतीं। गाय के गोठ में एक चूल्हा बना था जहाँ तसले में रेता डालकर हम भी मूंगफली भूनने में सहयोग करते। पर वह बड़ा कठिन काम था। लकड़ी के धुंए से आँखें लाल हो जाती थी। अपने काम के अलावा उनमें समाज के प्रति भी कुछ करने का जज्बा था। आस-पड़ोस में कोई बीमार हो वह सबसे पहले पहुँचती। हाल-चाल पूछने मात्र से उनके काम की इतिश्री नहीं होती थी, वह उनके कार्यों में भी मदद करती। किसी के घर शादी-ब्याह में वह दिल से उनके कार्य में सहयोग करतीं। अपने घर की सफाई के अलावा आस-पास की सफाई का भी उन्हें ध्यान रहता।

हम लोग सरकारी प्रायमरी स्कूल में पढ़ने जाते थे। लगभग आधा मील की चढ़ाई पर स्कूल था। बरसात के दिनों में स्कूल का रास्ता बिच्छू-घास से पट जाता था। बेजी एक डंडा और एक दरांती लेकर जाती और रास्ते की सब घास काट आतीं ताकि बच्चे साफ रास्ते से स्कूल जा सकें, उन्हें कोई साँप-कीड़े न काटें। हम लोग वहाँ से पढ़कर बडे़, स्कूल में चले गये, तब भी वह इस कार्य को नियमित करती थीं, कहती थीं और बच्चे भी तो जाते हैं वहाँ से। इसे करने के लिये वह किसी से कहती तक न थीं और न ही किसी की मदद का इन्तजार करती थीं।
(My Grandmother)

पड़ोस में एक ज्यड़जा रहती थीं। ज्यड़जा के पति अध्यापक थे। उन्होंने हमारे परिवार की बड़ी मदद की थी। कई बार तो वह खाना भी खिलाते थे। वह हमारे परिवार से बड़ी हमदर्दी रखते थे। किसी बीमारी के कारण उनकी अचानक मृत्यु हो गई। ज्यड़जा का जीवन दो छोटे बेटों के साथ बड़ी कठिनाई से भर गया। वह खेती-बाड़ी करके, लकड़ी बेचकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करने लगीं। वह हमारे घर की सदस्य जैसी थीं। बेझिझक आना-जाना था। एक बार बेजी का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। कई दिनों तक बोलचाल बन्द रही। एक शाम मैंने देखा बेजी बर्तन में कुछ लेकर उनकी रसोई की तरफ जा रही हैं। वह उनकी रसोई में जाकर चुपके से आटा उनकी थाली में पलट कर आ गईं। उस दिन उनके घर में खाना नहीं था। माँ-बेटे भूखे थे।

धीरे-धीरे आपसी सुख-दुख साझे हो गये। एक बार बैजी अचानक बीमार हो गई। मैं दूसरी जगह पढ़ती थी। घर पर कोई न था। आस-पास के लोग उन्हें हाथों में उठाकर अस्पताल ले गये। हमारे घर लौटने तक वह कुछ ठीक हो गईं। ज्यड़जा तो उनके सिराहने से हिलती भी न थी। सभी ने उनकी बड़ी सेवा की। वह काफी कमजोर हो गई थीं। सब लोग उन्हें देखने आते। जीवन्ती मौसी के बेटे की शादी भी थी। बेजी को चिन्ता थी कि वह चढ़ाई चढ़कर उनके घर न जा सकेंगी। सभी को बुरा लग रहा था। बेजी अस्वस्थता के कारण शादी में शामिल नहीं हो सकीं। दूसरे दिन दुल्हन लेकर बारात लौटी तो देखा मौसी दुल्हन को डोली से उतारकर बेटे-बहू को आशीर्वाद लेने सबसे पहले बेजी के पास लाईं। फिर अपने घर ले गयीं। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। हमारे माता-पिता को गुजरे भी वर्षों हो गये। हमारा मायका अब भी वहाँ बसता है। उनके सुख-दु:ख, निमंत्रण सब में हम दिल से शामिल होते हैं। वहाँ से हमें अब भी भरपूर स्नेह, प्यार, सम्मान मिलता है, जहाँ हम कभी शरणार्थी बनकर बसे थे। बेजी के ‘परदेसी’ शब्द की टीस व पापाजी के सहज दार्शनिक विचार ‘हम क्या लेकर यहाँ आये थे’, आज भी मुझे पग-पग पर रास्ता दिखाते हैं।
(My Grandmother)
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