मेरी दादी : जीवन कथा- आठ

राधा भट्ट

मेरी दादी बहुत कर्मठ और प्रेमल थीं। मैं जब अपनी किशोरावस्था में थी, तब वे रामगढ़ (जिला नैनीताल) आई थीं। मैंने उन्हें देखा था। वे हल्के-फुल्के शरीर और मध्यम कद-काठी की बड़ी फुर्तीली महिला थीं। खेती के हर काम में वे कुशल थीं। धुरका और छाना दोनों जगहों में मडुवा-मादिरा, कौंणी, धान, भट-गहत, उड़द की फसलों को बोने से लेकर लवाने-चूटने, फटकने व सुखा-तताकर भकार में रखने तक की हर क्रिया में वे कुशल ही नहीं स्मार्ट थीं। उनकी कार्यशैली की सुघड़ता और तेजी को कोई नहीं छू सकता था। उसके साथ-साथ वे एक सफल मैनेजर भी थीं। घर के भीतर बच्चों व बड़ों को क्या खिलाना, क्या पहनना और कब किसको कहाँ भेजना, बड़े परिवार में काम का बँटवारा कैसे करना यह उनका रोज का काम था, वे इसे प्रतिदिन सहज भाव से करती थीं। उनके घर की ऊपरी मंजिल में बारह लोगों का परिवार एक चूल्हे पर भोजन करता था और निचली मंजिल यानी गोठ में दो-तीन गायें, बैलों की जोड़ी और भैंस तथा बछिया, बछड़े व थोरियां और आठ-दस बकरियाँ होती थीं। मेरी दादी गोठ वाले इन पशुओं को भी वैसा ही प्यार करती थीं जैसा पाण (ऊपरी मंजिल) के मानवों को करती थीं। हमारे दो बैल थे, एक ग्यॉव तथा दूसरा हॅसिया। हॅसिया मारने आता था। हम सब उससे डरते थे किन्तु मेरी दादी उसकी गर्दन में दोनों बाँहें डालकर झूल जाती थीं और मरखना हँसिया अपनी गर्दन दे देता था।

फसलों को समेटने और जाड़ों की फसल बो देने के बाद दादी का मुख्य काम होता था- गाय, बैलों व बकरियों को चुगाने ले जाना और दिनभर उनके पीछे-पीछे घूमते जाना। वह कभी कभार ही उनको हाँकती या लकड़ी से मारती थी। उनके हाथ की लकड़ी भी तो चौलाई की हरी डंडी होती थी, हम बच्चे उस समय बहुत खुश होकर गोठ की ओर चले जाते थे, जब गोधूलि बेला में गाय-बैल-बकरियाँ जंगल में दिनभर चुगने के बाद घर वापस आती थीं। वे साग-सब्जी के बाड़े में मुँह न डालें, इसकी पहरेदारी में हम डंडे लेकर खड़े हो जाते थे। हँसिया से बचते हुए उनको गोठ की ओर हाँकते हुए हम किसी गाय की पीठ पर डंडा भी जमा देते थे। तब पशुओं की कतार में सबसे पीछे आ रही दादी वहीं से हमें बरजती हुई चिल्लाती, हां, हां… नहीं मारो, नहीं मारो। उनको भी तुम्हारी जैसी चोट लगती है।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

दादी के पशु प्रेम की एक बड़ी आनन्ददायी कथा है। गांव का एक परिवार अपने रिश्ते में एक शादी में शामिल होने चार-पाँच दिनों के लिए धुरका से बाहर गया। उनकी दो-तीन बकरियाँ थीं। उन्होंने दादी को पूछा, काखी, चार-पांच दिनों के लिए मेरी बकरियों को भी अपनी बकरियों के साथ रख लोगी। गांव में दादी की पहचान ही यह थी कि वे सबकी मदद प्रेम से करती थीं, दादी ने उत्साह से कहा, क्यों नहीं, किसनुवा तेरी बकरियों को भी मैं अपने पशुओं के साथ छाना ले जाऊंगी, वहाँ खूब घास-पात चरने को मिलेगी, तेरी बकरियाँ दुबलायेंगी नहीं।

जाड़ों के दिन थे। मडुवा की सार परती छोड़ी गई थी। गधेरे के किनारे के उन्हीं खेतों में दादी गाय-बकरियों को चुगा रही थी, हाथ में छोटी सी चौलाई (चुवा) की डंडी लेकर दादी भीड़े (मेंड़) पर बैठी घाम ताप रही थी- तभी गधेरे से कुंज की झाड़ियों से निकल कर बाघ एक बकरी पर झपट पड़ा। दादी ने आव देखा न ताव, दौड़ी और चुवे की डंडी से बाघ को मारने लगी, ‘‘इसको मत खा। ये किसनुवा की बकरी है’’ कहते-कहते जोर से ह्वां ह्वां करके रोने भी लगी। चाचाजी कुछ ही दूरी पर थे उन्होंने यह भयंकर दृश्य देखा तो उन्होंने जोर से हाकाहाक लगाई तो बाघ बकरी को घसीट कर गधेरे में गायब हो गया। सारे पशु गाय-बकरियाँ पूंछ उठाकर घर की ओर भाग निकले पर दादी भीड़े में बैठकर रोने लगी, अब मैं किसनुवा से किस मुख से बात करूंगी, उसकी बकरी कहां से लाऊं? हाय, हाय, इस बाघ का मर जाये पालनिया। इसने किसनुवां की ही बकरी ले जानी थी, हमारी ले जाता। अब क्या कहेगा किसनुवां मुझसे? चाचाजी ने गायों को घर की ओर हांका और दादी का हाथ पकड़कर उठाया, ‘‘उठ, नहीं तो बाघ तुझे भी ले जायेगा। रोती क्या है, किसनुवां को हम अपनी एक बकरी दे देंगे। कुछ नहीं कहेगा वह तुझसे।’’
(My Grandmother by Radha Bhatt)

यह कथा मैंने अपने परिवार में विभिन्न लोगों से बार-बार सुनी थी। लोग हंसते-हंसते इस अकल्पनीय कथा को कहते थे। यदि मेरे पिताजी इसका वर्णन करते तो वे अन्त में कहते, ऐसी थी मेरी इजा। उस छोटी-सी उम्र में मेरा मन सवाल करता था, बाघ भी क्या प्रेमल दादी को जानता था? वह उस पर झपटा क्यों नहीं?। दादी की कहानियां क्या कहूं? जब मेरे पिताजी मथुरा में अपनी फौजी यूनिट के साथ नियुक्त थे, तब उन्होंने गांव के कई सयानों को मथुरा-वृन्दावन की तीर्थ यात्रा करने का विचार दिया था। उनमें से कोई भी बस और रेल की यात्रा का अनुभवी नहीं था पर पिताजी ने अल्मोड़ा तथा काठगोदाम में अपने परिचितों को जिम्मा दिया था कि उन्हें बस व रेल में चढ़ा दें। यह 8-10 लोगों का तीर्थ यात्री दल मथुरा स्टेशन पर उतर आया। ठंडी रात थी। वे सब अकड़ूं करके प्लेटफार्म के फर्श पर बैठ गये। उनके बीच मेरी दादी भी एक तीर्थ यात्री थीं। पिताजी अपनी ड्यूटी से निकलकर अपनी सैनिक वर्दी में ही उन्हें लेने रेलवे स्टेशन पहुंचे। जैसे-जैसे वे उस झुण्ड के निकट जाते, झुण्ड के लोग डरकर एक-दूसरे पर और भी चिपकते जाते थे। ये पुलिस वाला अब हमको पकड़ता है। वे डर से कांप रहे थे। तभी मेरी दादी झुण्ड में से उठी, ये तो मेरा कमलू है। कहकर दौड़ी व पिताजी को गले से लगा लिया।

मथुरा-वृन्दावन की उस पूरी यात्रा में अधिकांश सफर तांगे पर करना होता था। दादी ने तांगे वाले की चाबुक देखी और साथ ही घोड़े की पीठ पर चाबुक के दाग भी देखे। चाबुक फटकार खाते हुए घोड़े को चलाते वे देख नहीं सकीं, उनका करुणाद्र्र हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने तांगे पर बैठने से इंकार कर दिया। दादाजी की मान-मनावन पर भी नहीं मानी। सारा दल तांगे पर बैठकर मजे से हिचकोले लेते यात्रा करता और मेरी दयालु दादी उस डामर की कड़ी सड़क पर तांगे के पीछे नंगे पांव दौड़ती जाती। तांगे की गति अधिक तेज नहीं रही होगी। इसलिए वह अपने दल से अलग नहीं पड़ी थी।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

मुझे दादी के जीवन का जो उत्तम अंश महसूस होता है वह था उनका अपने छोटे से गांव के हर परिवार के प्रति सार्वभौम प्रेम। हमारे परिवार में शाम का भोजन एक क्रम से खिलाया जाता था। खाना तैयार हो जाने पर सर्वप्रथम बच्चों को खिलाया जाता था। उसके बाद घर के पुरुष खाना खाते थे और अन्त में खाना पकाने वाली बहुएं और दादी या कोई अन्य स्त्री, बुआ आदि। जब महिलाओं की थालियां परोसी जाने लगतीं तो दादी घर के आंगन की सपील (छोटी-नीची दीवार) पर खड़ी होकर पूरे गांव को धात (आवाज) लगाकर कहती, ‘‘सबने खा लिया?’’ जब दादी गांव में होती, तो यह उनका प्रतिदिन का नियम था। यह बात सारा गांव जानता था, एक सिरे से दूसरे छोर तक हर घर से कोई बाहर निकलता, कोई महिला, कोई पुरुष या कोई बच्चा और कोई कहता, हां खा लिया जेडज़ा, कोई कहता खा लिया ओ ज्यू और कोई कहता आमा खाना बन रहा है अभी खाते हैं। हो होई, तो अब मैं भी खाती हूं। दादी सारे गांव के खाने की चिन्ता से अपने खाने के पूर्व निश्चिन्त हो जातीं।

धुरका एक पहाड़ी की गोल सी चोटी पर बसा हुआ गांव है। उनके गांव से और भी ऊंची चोटी पर जंगल के बीच दुर्गा देवी का मन्दिर है। सभी गांव वाले इस मन्दिर के पुजारी हैं। परिवार के अनुसार वे मन्दिर की पूजा-अर्चना बारी-बारी से करते हैं और इस पहाड़ी पर बसे संकरे खेतों में असिंचित खेती भी करते हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी खेती की जमीन किसी परिवार के पास अपर्याप्त भी होती थी। ऐसे परिवार अगली फसल आने के पूर्व कुछ सप्ताहों के लिए अन्न रहित भी हो जाते थे। तब ऐसे लोग दादी के पास आते। हमारे लिए खाने का इन्तजाम कर दे जेडज़ा या काखी। दादी जानती थीं कि गांव में किसके भकार में अभी भी पर्याप्त अन्न होगा। वे उनकी भूमि का रकबा भी जानती थीं और पिछली फसल में उनकी उपज क्या हुई, यह भी जानती थीं, मांगने वाले को उसी घर में ले जाकर कहतीं, इसको अमुक नाली मडुवा दे दे, अमुक नाली मादिरा दे दे, अगली फसल होने पर ये तुमको वापस दे देगा। दादी का वचन उनके जीवन में सबके लिए सदा-सर्वदा प्रस्तुत प्रेम व सहयोग से भीगा वचन होता था। उसे कौन नहीं मानता? मेरी दादी उस गांव की जीवन शक्ति थीं।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

ऐसी मेरी दादी मेरे जन्म पर मेरे प्रति निर्दय हो गई थीं, भला हो हमारे पारिवारिक पुरोहित का कि उन्होंने सबके मनों में बैठ गये भ्रम को दूर कर दिया। पर कहते हैं दादी ने हमारे पुरोहित की गणना को बुद्धि व श्रद्धा के साथ मान तो लिया पर अपने प्राण प्यारे पुत्र के प्रति उनके अन्तर्मन में बैठा भय पूरी तरह से घटा नहीं था, मेरी मां खेतों में काम पर जाने से पूर्व अपनी मात्र कुछ सप्ताह आयु की बेटी की मालिश करके, नहला कर, दूध पिला कर चंवर (बड़ी टोकरी) में साफ बिस्तर पर सुला जातीं। कुछ समय बीतता, शायद 2-3 घंटे कि बेटी जग जाती। कुछ देर में भूख से रोने लगती, किन्तु दादी मां को बुलाती नहीं कि आकर दूध पिला जाये। रोते-रोते गला सूख जाता, फिर से बेटी सो जाती, अपने ही मल-मूत्र से लिपटकर। खेत का काम पूरा होता, मां घर आती, तब सफाई करती और पाती कि बच्ची का स्वर रोने के कारण घिस गया है। पर वह बहू थी और उस पर भी लाटी ब्वारी। वह चुप रह जाती।

इस नाटक का शिखर बिन्दु तब आया जब मेरे जन्म के 6 माह बाद मेरे पिताजी छुट्टी पर घर आये। हमेशा की तरह पूरे गांव के पुरुष पहले व बाद में महिलाएं भी हमारे घर में घिर आईं। पिताजी ने सभी को गोला, मिश्री व चना भेंट में दिया। कुछ वृद्घों को तम्बाकू की पिण्डी, कुछ बच्चों को गट्टे दिये। हर बार की तरह दादी ने, आ गया मेरा पोथिला (बच्चा) कहकर पिताजी को अपनी गोद में खींच लिया। पिताजी, इजा छोड़, क्या कर रही है, कहकर उनकी बगल में ही बैठ गये- दादी उनके सिर को सहलाती रहीं। कुशल बात पूछने का क्रम पूरा हुआ नहीं कि पिताजी ने नि:संकोच पूछ लिया, मेरी बेटी कहां है?

वह समय ऐसा था कि युवा पिता औसत में अपने बच्चों के बारे में सबके सामने बोलते तक नहीं थे, परन्तु पिताजी उस विशेष बेटी को देखने के लिए उतावले हुए थे, जिस पर उनकी दृष्टि पड़ते ही उनका प्राणान्त होने की भविष्यवाणी की गई थी। उनका उतावलापन और दूसरी ओर दादी के अन्तर्मन में छिपा भय पिताजी का हाथ पकड़कर उन्हें बिठाते वे बोल उठीं रहने दे उस कुलच्छिनी को, क्या देखना है उसको? चिहड़ी (छोरी) ही तो है। पर पिताजी ने अपनी ममतामयी मां की बात नहीं मानी वे उठे और भीतर के कमरे में गये, वहां मेरी इजा का मन दादी की तरह ही कांप रहा था। कहीं बच्ची की आवाज सुनकर ही उनके पति को कुछ न हो जाय। अत: चंवर में सोई बच्ची के ऊपर उन्होंने कई कम्बल, चादरें व कपड़े डाल दिये थे ताकि उसकी आवाज बाहर तक न जा सके।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

कहां है बेटी, पिताजी का स्वर मां के कानों में गया तो उनके मुंह से बोल भी नहीं फूटा। मां ने हाथ की उंगुली चंवर की ओर फैला दी। पिताजी ने कम्बल हटाये, कपड़े व चादरें हटाईं और यह कहते हुए सोई बेटी को गोद में ले लिया, तुमने इतनी छोटी बच्ची के ऊपर इतने भारी कपड़े, कम्बल डाल दिये कि उसका दम ही घुट जाता। क्या हो तुम लोग भी। बेटी को गोद में लेकर वे सबके बीच आये, बच्ची भी जाग गई उसने टुकुर-टुकुर अपने पिता को देखा।

पिताजी ने सबकी ओर मुखातिब होकर कहा, देखो इसने मुझे देखा और मैंने इसको देख लिया। क्या मुझे कुछ हुआ? आप लोग कैसी-कैसी बातों पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेते हो? दादाजी ने कहा, तुम ठीक कहते हो। हमने अंधे होकर उस ब्राह्मण की बात पर एकदम विश्वास कर लिया था। अपनी बुद्धि-विवेक कुछ भी नहीं लगाई थी। पिताजी पूरे दो माह की छुट्टी में आये थे। आने के दूसरे ही दिन से उन्होंने प्रतिदिन बेटी की मालिश करना, स्नान कराना और रोई नहीं कि मां को बुलाना ताकि दूध पिलाये, को अपनी दिनचर्या का स्थायी अंग बना लिया और बेटी के दिन फिर गये, वह घर की बड़ी बेटी का मान पाने लगी।

हां, तो दादी रामगढ़ आई थी, जहां पिताजी ने जमीन खरीदी थी और मकान बनवाया था ताकि हम सभी भाई-बहन वहां रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकें, और वे बगीचा लगाने का अपना चिर प्रतीक्षित शौक पूरा कर सकें। हमारे परिवार के साथ हमारे दादाजी रहते थे। अभी पिताजी ने फौज से पूर्ण अवकाश नहीं लिया था। वे अपनी वार्षिक छुट्टियों में दो-दो महीना घर में रहकर गजब का शरीर श्रम करके स्वयं ही उस ऊबड़-खाबड़ भूमि को खोदते, सम्भालते और समतल छोटी संकरी क्यारियों का निर्माण करके उन पर विभिन्न प्रजाति के सेब, आड़ू, प्लम, खुबानी के पौधे लगाते। मेहल के पेड़ों पर नाशपाती की ग्राफ्टिंग करते थे। कांटों की झाड़ियों को काटते व जलाते थे और एक सुन्दर फल-बाग धीरे-धीरे उभर आया था। उस पत्थरों से भरे तीखे ढलान पर कभी ऐसा बाग लहरा उठेगा, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर पाते थे परन्तु धुन के पक्के और अथक श्रम करने वाले मेरे पिताजी ने यह कर दिखाया था। अभी फलों के वृक्ष छोटे थे अत: उनके साथ-साथ आलू बोये गये थे। पूरा ढलान आलू के श्यामल रंग के पौधों की गहरी हरियाली से ढका हुआ था। दादी यह सब देखकर खुश हो गई। उनका मन रम गया इस बाग में।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

दादाजी ने कहा, तू रह जा न यहां। यहां भी तेरे नाती-पोते हैं। खाने को दूध-दही, घी सब है केवल अनाज तो बाजार का है। पर दादी तो स्पष्ट मन-मस्तिष्क वाली थीं। झट से बोली, ना, ना, ना मैं यहां रहूंगी तो वहां का क्या होगा? धुरका और छाना दो जगहों की खेती का कारबार गोपाल (चाचाजी) नहीं सम्भाल पायेगा।

आलुओं में उकेर लगाने (मिट्टी चढ़ाने) का समय था। मां घर के भीतर तथा गाय-भैंस के कामों को निपटा कर प्रतिदिन कुछ घंटों के लिए उकेर लगाने का काम करती थीं। स्कूल से वापस आने पर मैं भी खेत में काम करती थी। दादी को लगा, इस धीमी गति से काम कब पूरा होगा? उसने पहुंचने के तीसरे दिन से ही इस काम को उठा लिया। वह सुबह ही कुटली हाथ में लेकर कमर में बंधी धोती का दूसरा सिरा सिर पर बांधकर और घाघरे की गुनी बनाते हुए  पिण्डलियों तक ऊंचा चढ़ाकर खेत में पहुंच जाती और दोपहर के भोजन तक कमर झुकाये निरन्तर काम करती रहतीं। न उन्हें घाम का ताप रोक पाता, न ही वर्षा का पानी। दोपहर के भोजन के लिए धात (पुकार) लगाई जाती तब आतीं।

मैं स्कूल से लौटने के बाद शाम को दादी के साथ आलू के खेत में काम करने लगभग रोज ही जाती थी। एक दिन दादी कहने लगीं, तू स्कूल की पढ़ाई में बहुत होशियार है बल, लिक्चर भी देती है बल, तेरे स्कूल के मास्टर तेरी बहुत बढ़ाई करते हैं बल। तेरे जन्म पर मैंने तेरे लिए बहुत बुरा किया, क्या-क्या नहीं बोला। पोथी, तू मुझको माफ कर देना। हम लोगों की अकल इतनी ही हुई। दादी कुछ देर के लिए पास के एक पत्थर पर बैठ गई थी। फिर से बोलीं, तू ब्याह करने के लिए मना करती है सुना। यह तो महा अपशकुन होता है। ऐसे बचन तो दुश्मन भी न बोले। दादी ने मुझे अपने नजदीक बुला लिया और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, बता पोथी, तू ही बता, तुझे कैसी जगह ब्याह करना पसन्द है? जहां आलू और फल-फूल के बगीचे होते हैं या जहां धान, गेहूं होते हैं? मडुआ मादिरा के मुलुक तो हम अपनी ऐसी अच्छी नातनी को देंगे नहीं।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

शुकर कि मैंने हमेशा की तरह तड़ाक से नहीं कहा, मैं तो शादी ही नहीं करने वाली हूं। जगह की बात ही कहां उठती है? अपने शब्दों को होंठों के बीच कैद करके ही मैं चुप रही।

दादी ने एक महीने का काम दस दिन में पूरा कर दिया। शाम को दादाजी व मेरी मां को वे यह बता ही रही थीं कि आलू उकेर का काम पूरा हो गया। तभी धुरका से एक मेहमान ने घर में कदम रखा। दादाजी धुरका से आने वालों की सदा ही प्रतीक्षा में रहते थे। उनका अच्छा स्वागत होता था। आशल-कुशल चल रही थी कि उन्होंने बताया, चाचाजी दो-चार दिनों से बीमार पड़े हैं। दादी के तो प्राण ही चाचा जी के लिए तड़प उठे। गोपाल, गोपी, कैसा होगा मेरा बेटा, की रट लगा दी। मेहमान दूसरी सुबह ही वापस धुरका जाने वाले थे पर आम रास्ते से नहीं, किसी अपेक्षाकृत छोटे रास्ते से ताकि वे उस दिशा में पड़ने वाले एक गांव में एक संदेश भी दे दें व रात तक अपने घर पर भी पहुंच जायें। दादी उनके साथ जाने को तैयार हो गईं।

दादाजी ने कहा, इस उम्र में एक दिन में इतना लम्बा रास्ता तेरे बस का नहीं है। बाद में किसी दूसरे के साथ जायेगी। जैसे दो दिन में यहां आई है, वैसे ही दो दिन में आराम से वापस चली जायेगी। उतना बड़ा गांव है। सब गोपाल की मदद करेंगे। वह अकेला नहीं है। अभी हाथ आया साथ छोड़ दूं और बाद में कौन आने वाला है, जिसके साथ मैं जाऊंगी? आज कि ख्यास भोलै कि आश, ऐसा मैं नहीं करती, दादी बोलीं। ना आमा, मेरे बराबर आप नहीं दौड़ सकेंगी। आप बाद में ही आइये तो ठीक रहेगा। नवयुवक मेहमान ने कहा। दादी तब कितनी उम्र की रही होंगी, मुझे ठीक से नहीं मालूम, तो भी पैसठ-सत्तर वर्ष के आस-पास होंगी। जो भी हो, दूसरी सुबह अंधेरे में ही दादी उस युवक के साथ निकल पड़ीं। वे दिनभर दौड़ती रहीं शाम भी ढल गई। धीरे-धीरे अन्धकार छाने लगा। अभी घर लगभग एक मील दूर था। गधेरे के पत्थरों के बीच से राह खोजनी थी क्योंकि वहां कोई चालू पगडंडी तो थी ही नहीं। एक बड़े पत्थर से दूसरे पत्थर पर कूदते हुए पैर फिसला और दादी दो बड़े भारी-भरकम गोल पत्थरों के बीच फंस गई। चोट तो लगी ही होगी पर दादी उसके कारण रुकने वालों में नहीं थी। किसी प्रकार वहां से निकलीं और घर पहुंच गईं।

दूसरे दिन वे बिस्तर से नहीं उठ पाईं। लोगों ने कहा गधेरे में गिरी थीं, वहां का छल लग गया होगा। मंत्र-बभूत भी किया पर फर्क नहीं हुआ। वास्तव में दादी ने अपनी प्राण शक्ति को ही थकाकर शून्य कर दिया था। अपनी शारीरिक ऊर्जा को अन्तिम बिन्दु तक खींच लिया था। वे कुछ दिन उसी प्रकार बिस्तर में पड़ी रहीं और एक दिन ऐसे देश को चल दीं जहां से कितना ही दौड़ें पर घर वापस नहीं आ सकतीं थीं, अपने बेटे गोपाल के पास।
(My Grandmother by Radha Bhatt)

दादी के इहलोक से चले जाने के बाद मुझे दादी की बहुत याद आती, विशेषत: जब जाड़ों की ठंडी रातों में हम आग जलाकर उसे घेरकर बैठ जाते थे व कुछ आण व कथा-बाथा करते हुए अपने हाथों को आग के ऊपर सेंकते रहते थे। दादी आग के ऊपर हाथ सेंकने से मना करती थी। पर उनके साथ इसी तरह आग के चारों ओर बैठकर कहते थे, आमा अब कथा कह, मैं, दाज्यू, कान्ति (बहन), लछिमा (चाचा की बेटी) और कुछ पड़ोस के हमउम्र बच्चे दादी से कथा सुनते। दादी के घुटने से सटकर बैठने की हम लोगों में होड़ लगती। दादी महाभारत और रामायण की कथाएं सुनाती। कुंवारी कुन्ती की कहानी, कुन्ती नहा रही थी, इतने में सूर्योदय हो गया। उसकी किरणें कुन्ती के नंगे बदन पर पड़ गईं और कुन्ती गर्भवती हो गई। उसका सूरज जैसा गोर-फनार बेटा हो गया। उसने उसको गंगज्यू को सौंप दिया। इस तरह उनकी कहानी बढ़ती जाती। साथ ही वे हमें हिदायत भी देती कुंवारी लड़कियों को सूर्योदय के समय नंगे बदन नहीं नहाना चाहिए। वे राजकुमार की कहानी भी कहतीं जो सच्चा-ईमानदार व चतुर विवेकी और वीर भी होता था। सभी षड्यंत्रों से वह अपने को बचा लेता था। आज की दृष्टि से यह जासूसी कहानी की श्रेणी में रखी जा सकती है। काफल पाको मील नि चाखो, पुरै पोथी पुरै पुरै पुरै, जूंहो, जूंहो कथायें भी हमने उनसे सुनी थीं। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न मेरी दादी नहीं रही थी, परिवार उदास हो गया था।
क्रमश:
(My Grandmother by Radha Bhatt)
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