पंचायत के मेरे अनुभव

कादम्बरी

73वाँ संविधान लागू होने पर महिलाओं हेतु पंचायत में जो 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा गया था वह बना तो सही पर आज भी महिलाएँ पदों पर पूर्णत: अपना अधिकार नहीं समझती हैं। महिलाओं की स्थिति सुधरे, उनकी स्वयं की एक पहचान बने, वह भी सत्ताधारी बने, यह सोच रखते हुए महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण रखा गया। लेकिन आज भी देखा जाय तो स्थिति वहीं पर टिकी हुई है। उनको चुनाव लड़ाया जाता है, जब उनके परिवार के लोग। इस सम्बन्ध में उसकी स्वयं की इच्छा कभी नहीं पूछी जाती है। वह न चाहते हुए भी पंचायत चुनाव में आगे आती है। ऐसी स्थिति में अधिकतर देखा जाता है कि महिला केवल नाम की प्रधान होती है काम सारा उसके पति द्वारा किया जाता है लेकिन वहीं अगर कोई महिला स्वेच्छा से चुनाव लड़ती है, अपने काम स्वयं करती है तो समाज या परिवार उसे भी सही नजरों से नहीं देखता है। महिला की स्थिति हर स्तर पर एक डर के साथ बनी रहती है। वह स्वयं काम करे तो घर-परिवार और प्रधान पति काम करे तो अन्य लोग तानाकशी करते हैं। उसका उदाहरण मैं स्वयं हूँ। मैं एक अनुसूचित  वर्ग की महिला हूँ। गढ़वाल की रहने वाली हूँ। मैंने इस पंचवर्षीय पंचायती चुनाव 2008 में चुनाव लड़ा और हमें शायद ही कभी मौका मिलता, अगर यह आरक्षित पद न होता। 25-30 सालों से वहाँ पर ठाकुर जाति के लोग ही चुनाव लड़ते थे और उनके समुदाय में भी एक ही व्यक्ति था जो लगातार 20 सालों से प्रधान पद पर रहा। उस व्यक्ति ने इन 20 सालों में विकास कार्य तो किये लेकिन जिसमें उसका स्वयं का हित या उसके अपने पक्ष के लोगों का हित होता था- उसने रास्ते बनाये, वहाँ जहाँ उसके अपने समुदाय के लोगों के घर थे। टंकी बनाई, व्यक्तिगत प्रयोग को प्राथमिकता देते हुए जो भी काम करवाया उसमें एक स्वार्थ या पैसा कमाना था। बस नहरें बनाई वहाँ जहाँ पानी ही नहीं था। अन्य कार्यों में कोई भी काम उनके द्वारा नहीं किये गये। हमारे गाँव में वृद्ध, विकलांग, विधवा बहुत ऐसे गरीब लोग हैं जिन्हें पेन्शन, आर्थिक सहायता इस तरह की मदद की आवश्यकता थी। लोगों ने कई बार उनसे कहा भी लेकिन उन्होंने हमेशा कोई न कोई बहाना करके उन्हें टाल दिया। इन पूरे 20 सालों में पेन्शन लगवाई भी तो तीन लोगों की जिसमें एक उनकी बेटी थी और दो रिश्तेदार थे अन्य किसी की नहीं।

गाँव के जो सवाल उठाने वाले लोग होते उन्हें वह कभी पैसे कभी कुछ सामान देकर चुप करा लेता। गाँव में कोई उसके खिलाफ नहीं था।

20-30 साल बाद गाँव में अनु. महिला प्रधान की सीट आई थी। मैं गाँव में नहीं रहती थी। मैं बच्चों के साथ पौड़ी में रहती थी लेकिन गाँव में कोई हमारी जाति में पढ़ा-लिखा समझदार नहीं था जिसे पंचायत में उठाया जाय। इसलिए गाँव के कुछ लोगों द्वारा तय कर मुझे चुनाव लड़ने हेतु कहा गया। मैं बहुत खुश थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे ऐसा मौका मिलेगा। घर के सभी लोगों ने सहयोग दिया और मैंने चुनाव लड़ने की तैयारी की।

जो पूर्व प्रधान था वह नहीं चाहता था कि मैं प्रधान बनूँ क्योंकि उसे डर था कि कहीं मैं उसके काम का पूरा ब्यौरा न ले लूँ और जो उसने बजट में हेरा-फेरी की है वह गाँव वालों को पता न चल जाय। उसने पंचायत की वोटर लिस्ट से मेरा नाम कटवा दिया। मुझे पता नहीं था कि गाँव में मुझे निर्विरोध प्रधान बनाने के लिए  सामूहिक बैठक रखी गई। सभी लोगों ने समर्थन किया लेकिन अन्त में प्रधान ने चालाकी की और हमारे ही बीच के एक व्यक्ति को प्रधान हेतु उठाने को तैयार कर दिया- और मैं निर्विरोध प्रधान नहीं बन पाई।

जैसे ही नामांकन की तिथि तय हुई तो मुझे अपने कागजात तैयार करवाने थे, तब मुझे पता चला कि वोटर लिस्ट में मेरा नाम नहीं है। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और एक सप्ताह के भीतर मैंने सारी औपचारिकताएँ पूरी की और नामांकन करवाया।

उसके बाद से लेकर जिस दिन तक चुनाव हुए और पंचायत का परिणाम निकला तब तक रोज गाँव में लड़ाई-झगड़े हुए। ऐसा माहौल बन गया कि हमें वोट न पडे़ं लेकिन पता नहीं लोगों को ऐसा क्या लगा, मुझे ज्यादा वोट मिले और मैं प्रधान बन गई। हमें यकीन नहीं था कि 40 वोटों से आगे आयेंगे और जीत जायेंगे। काफी मुश्किलों, रणनीतियों के बाद मैं प्रधान बनीं।

अब वह दिन आया जिसका प्रधान को डर था 14 नवम्बर 2008 को मैंने सामूहिक बैठक में उससे पुराने काम का विवरण, बजट विवरण तथा पंचायत में किये अन्य कार्यों का विवरण माँगा। प्रधान पहले बताना नहीं चाह रहा था लेकिन जब उसे बार-बार बताने को कहा गया तो उसने मौखिक रूप से बताया अन्त में देखा तो वह ठीक से बात भी नहीं कर पाया। उसने हर स्कीम पर पैसे खाये थे। एक लाख की स्कीम पर चालीस हजार रुपये खुद रखे। इस तरह बहुत सी कमियाँ सामने आईं। गाँव में जनप्रतिनिधि ऐसा ही करते हैं। लेकिन अधिकतर पुरुष जनप्रतिनिधि ऐसा करते हैं। महिला प्रतिनिधि फिर भी गाँव के लिए अच्छा करना, गाँव के लोगों को खुश रखना चाहती है।
My experiences of Panchayat

ग्राम प्रधान की उस दिन से मुझसे रंजिश थी और उसने हर काम में मुझे परेशान किया। मेरे साथ घर से इस तरह का कोई सहयोग नहीं था। पति बाहर रहते थे ससुर जी वृद्ध थे, किसी से ज्यादा नहीं बोलते थे। पूर्व प्रधान को पता था मैं अकेली हूँ उसने अविश्वास प्रस्ताव लाकर मुझे हटाना चाहा। उसने अपनी पत्नी और दो रिश्तेदारों को मिलाकर  वार्ड सदस्य बना दिया। एक उप प्रधान बना दिया। इस तरह से वार्ड सदस्यों में बहुमत बनाने हेतु उसकी रणनीति थी। क्योंकि जब अविश्वास प्रस्ताव लाना होता है तो पाँच वार्ड सदस्यों में से तीन का बहुमत होना जरूरी  होता है।  उसने बहुत प्रयास किये पर मैंने मौका नहीं दिया। मैंने काम की शुरुआत सोच समझकर की। मैंने जो भी काम किये, विपक्ष वालों के पहले किये, जिन्होंने मुझे वोट नहीं दिया था। मैंने पाँच साल में 32 महिला-पुरुषों की पेंशन लगवाई। 13 इन्दिरा आवास बनवाये, 41 परिवारों को शौचालय दिलवाये।

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महिला प्रधान धोबीघाट प्रधान की स्थिति

हमारे क्षेत्र में एक महिला प्रधान रही- जो पढ़ी-लिखी थी लेकिन उसने पूरा कार्यभार अपने पति पर छोड़ा था। पति-पत्नी का रिश्ता जो विश्वास पर टिका होता है जितना काम तथा जितना बजट आता वह सारा काम उसी के पति करते थे। उसके पति ने पूरी तरह उसका विश्वास जीता और बाद-बाद में वह उससे बिना पूछे- उसके चैक खुद ही साईन करने लगा। वह इस विश्वास में थी कि काम ठीक ही चल रहा है। प्रधान पति तथा ग्राम विकास अधिकारी द्वारा काफी पैसे निकालकर गबन किया गया। जब प्रधान का कार्यकाल समाप्त हुआ और प्रधान का चार्ज सौपने की नौबत आई तो पासबुक चैक की गई तो 2 लाख का घोटाला पाया गया। उस महिला से रिकवरी की गई। एक माह के अन्दर उसे पूरा पैसा जमा करना था। आज उस महिला की स्थिति है कि वह पागल हो चुकी है। उसकी गलती क्या थी, उसने पति पर आँख मूँदकर विश्वास किया। अगर वह पद की गरिमा समझते हुए स्वयं अपना कार्य करती तो ऐसा नहीं होता।

महिलाओं को मौका मिला है तो हमें स्वेच्छा से इस पद पर आकर अपना कार्य करना होगा। अपनी पहचान  बनानी होगी। वरना ऐसी ही स्थिति रही तो एक दिन ये पचास प्रतिशत आरक्षण, जो बड़ी मुश्किल से मिला है वह हमारी लापरवाही और गैर जिम्मेदारी से हमसे छिन जायेगा।

मेरा महिलाओं से निवेदन है कि स्वयं अपनी इच्छा से पंचायत पदों पर आयें और महिला प्रतिनिधि के रूप में अपनी मजबूत पहचान बनायें।
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My experiences of Panchayat

गाँव में विवाद का माहौल था। दो विवाद सुलझाये (पारिवारिक), गौरा देवी योजना से सात लड़कियों को लाभ दिलवाया (सामाजिक) अन्य विकास सम्बन्धी कार्य करवाये। मैंने जिस सोच से काम करवाया वह मेरे लिए लाभदायक रहा। पूर्व प्रधान को मौका ही नहीं मिला कि वह अविश्वास प्रस्ताव लगाये। मैं काम भी वार्ड सदस्यों द्वारा करवाती थी। गाँव में सभी को काम मिला है। कुछ परिवार थे जो स्वयं कार्य नहीं करना चाहते थे। मेरी पंचायत का काम ठीक ही चल रहा था। तभी जब एक मनरेगा का औडिट था बैठक ठीक चली बैठक की समाप्ति पर जैसे ही लोग उठने लगे और काफी लोग जा चुके थे तो तभी पूर्व प्रधान अपने साथ दो लोगों को शराब पिलाकर लाया और मुझसे झगड़ने लगा। उसने मुझे जाति सूचक शब्द कहे साथ ही कहा कि मैं एक औरत हूँ क्या प्रधान पद चलाऊंगी। उन लोगों ने उस दिन बहुत बुरा व्यवहार किया। मेरे अभी तक के जीवन में शायद ही ऐसा कभी हुआ था। केवल दो-तीन लोग थे जो मेरी तरफ से बोले पर उस समय उसने किसी की न सुनी। उसके बाद मैं पूरी रात बैठकर रोती रही। ये एक ऐसा वक्त था जब मैं अकेली थी मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था। फिर अचानक पता नहीं मन में क्या आई रात को बैठकर एक अर्जी लिखी। जिसमें मैंने पूरा विवरण लिखा था तथा सीधे यही लिखा कि उन्होंने मुझे जातिवाद को लेकर कहा। सुबह हुई, उन दिनों पटवारी चौकी में गई तो पटवारियों की हड़ताल चल रही थी। सीधे पौड़ी डी.एम. साहब से मिलने गयी वह भी छुट्टी पर थे। मन इतना उदास था कि समझ नहीं पा रही थी क्या करूँ। लेकिन फिर वहाँ एक वकील से मिल पूरे घटनाक्रम की अर्जी बनाई। फिर थाने में एफ.आई.आर. लौज की लेकिन जब हमारे मामले में जाँच होनी थी तो प्रधान ने 35,000 रु. देकर तहसीलदार को पूरी रिपोर्ट बदलने को कह दिया। मैं बहुत मायूस हुई लगा कि प्रशासन भी उन्हीं की तरफ झुकता है जिसके पास पैसे होते हैं। फिर मैंने पूरी कार्यवाही दोबारा की और उन पर एस.सी. एक्ट लगवाया। वह तीन दिन जेल में रहे। वह इस केस में उलझे हैं। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने थोड़ा परेशानी तो सही पर मेरे गाँव में और लोगों का भला हो गया। अब हमारे गाँव में जाति को लेकर कोई भेदभाव नहीं होता। पूजा-पाठ, शादी-विवाह अन्य कई कार्यों में अब अनुसूचित जाति तथा सामान्य जाति के लोग मिलकर रहते हैं। आज पूर्व प्रधान इस दुनिया में नहीं है। वह उसी विवाद के दो माह बाद लम्बी बीमारी के कारण मर गया था। मेरे पाँच साल प्रधान पद के बहुत अच्छे रहे। दिक्कतें आई वह इसलिए कि मैं एक महिला प्रधान थी और साथ-साथ अनुसूचित जाति की थी। लेकिन मैं आज बहुत खुश हूँ कि मेरी उस ब्लॉक और गाँव में एक अच्छी पहचान है। मैंने जो भी काम किये वे सबके हित में रहे। जरूरतमन्द लोगों को मैंने लाभ दिलवाया। आज स्थिति यह है कि जिन लोगों ने मुझे वोट नहीं दिया उन्होंने खुद स्वीकार किया कि हमने तुझे वोट नहीं दिया लेकिन तूने हमारे काम किये। अब उन्होंने फिर मुझे पुधान चुनने की बात कही। मुझे हमेशा अपने प्रधान पद के पाँच साल याद रहेंगे। यह मेरे जीवन का सबसे अच्छा अनुभव है।

लेकिन अधिकतर देखा जाय तो महिलाएँ अपना अधिकार आज भी नहीं समझ रही हैं। जहाँ मैं थी उस ब्लॉक में भी सत्तर प्रतिशत महिला प्रधान थीं लेकिन उनमें से 2.3 महिलाएँ  थी जो अपनी बात स्वयं बी.डी.सी.  बैठक में या अन्य स्तरों पर रखती थीं वरना अभी भी महिलाओं का केवल इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि वह पद उसके नाम पर है। अगर महिला सीट न आये तो महिला को कोई पूछे ही नहीं, लेकिन हम महिलाओं को सोचना चाहिए अगर हमारे लिए सरकार ने पचास प्रतिशत आरक्षण दिया है तो हमें उसका पूरा लाभ उठाना चाहिए और स्वेच्छा से पंचायत पदों पर चुनाव लड़ना चाहिए तथा स्वयं अपने सभी कार्य करने चाहिए।

हम अगर कुछ करना चाहें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता है, यह मेरा स्वयं का व्यक्तिगत पाँच साल का अनुभव है।
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