माँ-परिवार और शिक्षा

नीमा वैषणव

बच्चा इस प्रकृति की सबसे खूबसूरत देन है। एक बच्चे को गर्भ में नौ माह तक पालने में मां को कितना कष्ट व कितनी पीड़ा नहीं सहनी पड़ती है। परन्तु उस पीड़ा में हमेशा नये सृजन की मिठास समायी रहती है क्योंकि मां के लिए उसके गर्भ में पल रहा बच्चा उसके शरीर का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है। ज्यों-ज्यों बच्चा मां के गर्भ में बढ़ता है मां अधिक सावधानी, सर्तकता व उदारता से उसको सम्भालती व सुरक्षा देती जाती है। कष्ट तो बच्चे को भी होता ही होगा किन्तु मां का प्यार व सुरक्षा बच्चे को कष्ट को सहने की शक्ति प्रदान करती है। 9 माह तक एक-दूसरे में अप्रत्यक्ष रूप से ओतप्रोत बच्चा और मां एक दिन एक दूसरे से रूबरू हो जाते हैं। मां को इस सृजन से जिस परम आनन्द की अनुभूति होती होगी उसका अहसास मां ही कर पाती होगी। बच्चे के गर्भ से लेकर उसको बाहर लाने तक के सफर में माँ-पिता की प्यार भरी उत्सुकता और परिवार के हर सदस्य की प्रतीक्षा समायी रहती है। परिवार में आने वाले नये शिशु के लालन-पालन की जिम्मेदारी यद्यपि सबसे अधिक मां और फिर पिता की होती है परन्तु पूरे परिवार के सदस्यों में यह जिम्मेदारी महसूस की जाती है।

बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है बच्चे की क्योंकि एक बच्चा कल एक आदमी बनने वाला है। आदमी बनने की उसकी सभी- शारीरिक, भौतिक, मानसिक व भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति माँ-पिता अथवा परिवार ही करता है। मां के लिए एक इंसान के सर्जन का काम एक लंबी अवधि तक चलता ही रहता है। वह जितना अधिक करे, उतना ही कम है। सर्जन का आधार प्रेम होता है जिसको सबसे अधिक मां ही दे सकती है। और उसके बाद देता है परिवार। इसलिए मां पिता और परिवार इंसान के निर्माण व इंसानियत के विकास की सबसे प्रथम एवं अहम इकाइयाँ हैं। परिवार से प्रेम, सहयोग, सुरक्षा सहकारिता, सौहार्द जिम्मेदारी व जवाबदारी की भावना एक बच्चे को सहज ही प्राप्त होती हैं। परिवार के अभाव में व्यक्ति के विकास की कल्पना अधूरी है। बच्चे की ये सारी जरूरतें उसकी सही उम्र में उसको मिलती रहती हैं तभी उसके जीवन के सभी पहलुओं का समुचित व सही विकास होता है। बचपन में संस्कारों के निर्माण की बहुत जरूरत होती है। परिवारों में अच्छे संस्कारों का घटित होना और अच्छे संस्कारों के वातावरण की उपस्थिति ही एक बच्चे के जीवन के सही निर्माण के लिए अनिवार्य होते हैं। जैसा कि कहा जाता है गर्भावस्था से ही बच्चे की शिक्षा शुरू हो जाती है शरीर के विकास के साथ ही बुद्घि और हृदय का भी विकास होता है। परिवार में जो भी अच्छी बुरी घटनायें घटती हैं उन सबका असर बच्चे के मन और हृदय पर होता है। बच्चे पर सबसे अधिक असर होता है माँ का। माँ और बच्चे के संबंध एक दूसरे में ओत-प्रोत होते है।
(Mother, Family and Education)

बच्चे के विकास के लिए वास्तव में एक पूर्ण परिवार की जरूरत है। जिसमें उसको सभी तरह के सम्बंधों से जुड़ा प्यार, अपनापन, सहकार व सहयोग की पहचान और अनुभूति होती है। जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, दादा-दादी, बुआ, नाना-नानी, मौसी, मामा तथा इनसे जुडे़ हुए अन्य और रिश्ते भी शामिल होते हैं। हर एक रिश्ते के साथ जुड़ा  विशेष व अलग-अलग भाव हृदय में विकसित होता है। इन विविध संबंधों में जीने के आधार रूप कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का विकास भी इसी में निहित होता है। उपरोक्त आकार व स्वरूप के परिवार में जीने वाले बच्चे को इंसानियत की हैसियत में विकसित होने का सहज वातावरण प्राप्त होता है, एक इंसान में परिवार का असर अधिक प्रभावी और स्थायी रहता है। परिवार के बाद आसपास के समाज के वातावरण का प्रभाव शुरू होता है। किन्तु यदि परिवार का प्रभाव मजबूत होता है तो परिवार से बाहर के विपरीत वातावरण का असर बच्चे में अधिक नहीं होता है। इसलिए परिवार एक मूलभूत जरूरत है। विशेषकर बच्चों के लिए तो अति महत्वपूर्ण है।

आज परिवार की क्या परिभाषा हो गयी है यह तो सभी जानते हैं। आज का परिवार दो, तीन या अधिक से अधिक चार लोगों तक सीमित हो गया है। कौन हैं ये लोग- मां पिता एक या दो बच्चे। बाकी लोगों का स्थान परिवार नामक प्राथमिक इकाई से खाली होता जा रहा है। ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार है आज की तथाकथित विकास की अवधारणा। तथाकथित विकास की अवधारणा में इंसान की इंसानियत और इंसानियत के निर्वाह की पुरानी व्यवस्थाओं को गौण माना गया है, प्रकृति के परस्परावलंबन के नियम की अनदेखी की गयी है। परस्परावलंबन का नियम इंसानों, इतर प्राणियों तथा प्रकृति के बीच एक अन्तर्सम्बध को बनाकर रखता है और प्रेम इस अन्तर्सम्बध को जोड़ने वाला सबसे अहम तत्व है। जहां प्रेम नहीं है, वहां संबंध नहीं हैं, जहां सम्बंध नहीं है, वहां जीवन नहीं है। अत: अस्तित्व और सहअस्तित्व दोनों के लिए प्रेम ही बुनियादी तत्व है। यहां से भी आगे जायें तो मनुष्य का परम लक्ष्य है सत्य को समझना या आत्मसाक्षात्कार करना इसके लिए भी प्रेम ही सच्चा साधन है। परिवार इस प्रेम की अनुभूति और प्रेम को व्यापकता में विकसित करने की प्रथम और अहम इकाई है।

आधुनिक सभ्यता असत्य और भ्रम की नींव पर खड़ी हुई और फैलती गयी है। आधुनिक जीवन दृष्टि से उत्पन्न हुआ एक लुभावना किन्तु भ्रामक शब्द दुनिया के सामने आया ‘‘विकास’’। बिना सिर,पूंछ की इस संज्ञा ने लोगों के मानस को अपने गिरफ्त में ऐसे ले लिया कि इसकी व्याख्या या इसका अर्थ समझने की जरूरत ही नहीं लगी। इस नाम के मोहजाल में दुनियां का समाज बुरी तरह फंसा हुआ है। मनुष्य के परिप्रेक्ष्य में आने वाले हर नाम का अर्थ और व्याख्या होती है अगर विकास मनुष्य के साथ जुड़ा है तो इसकी कोई व्याख्या व स्पष्टता होनी चाहिए। आज तो किसी भी बैठक, गोष्ठी या बड़ी सभा की बात शुरू ही विकास शब्द से होती है। इसके बिना सारी बात अधूरी लगती है। कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि विकास का मतलब अच्छे सुखी जीवन से है और सुखी जीवन का मतलब अधिक सुविधाओं की प्राप्ति से है। बस आदमी ने एक और भ्रम या असत्य स्वीकार किया कि वह विकास का मतलब समझ गया और जिसने इस समझ के विरुद्ध बोलना शुरू किया तो कहा गया कि यह विकास विरोधी है। विकास और विकास विरोधी का अर्थ भी अस्पष्ट ही रह गया। खैर इतना तो लोग समझे ही हैं कि अधिक संसाधनों व सुविधाओं को प्राप्त करना और उनका अत्यधिक भोग करने की जीवन पद्घति को विकास कहते हैं। अधिक सुविधाओं की प्राप्ति की संभावना अधिक संख्या वाले परिवार या समूह में सीमित हो जाती है जबकि कम संख्या में साधन अधिक प्राप्त हो सकते हैं। इसी के साथ एक और सिद्घान्त भी आया कि इस पहली बात अर्थात विकास के साथ स्वतंत्रता भी जुड़ी है। दोनों को मिलाकर विकास और स्वतंत्रता एक सिक्के के दो पहलू जैसे दिखाये गये। वह आधुनिक जीवन दर्शन और उसकी शैली से ही प्राप्त हो सकते हैं।
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इस नयी सोच ने मनुष्य की स्वाभाविक और अधिक स्थायित्व वाली व्यवस्थाओं को तोड़ना शुरू किया। इस सोच या सभ्यता की सबसे अधिक मार पड़ी परिवारों पर। परिवारों को जो संज्ञा और परिभाषा दी गयी उसके बारे में सोचने भर से ही लोगों को असुरक्षा एवं पिछड़ेपन का भय छाने लगा। और कहीं तेजी से तो कहीं धीरे-धीरे मानवीय सभ्यता और संस्कृति की जननी रहे परिवार नामक रमणीय वृक्ष की जडें हिली ही नहीं, बल्कि नष्ट हो गयीं।

छोटे और एकाकी परिवारों में ही विकास हो सकता है की सोच या दर्शन को क्रियान्वित करने के लिए उसी तरह की शिक्षा विकसित की गयी। शिक्षा समाज का निर्माण करती है। आधुनिक शिक्षा प्राकृतिक व्यवस्थाओं को पीछे ले जाने वाली या पिछड़ेपन वाली तथा मानवकृत मशीनी व्यवस्थाओं को विकसित मानती है। इसका उदाहरण देख सकते हैं परिवार के बारे में। छोटे परिवार को सुखी, समृद्घ और खुशहाल दिखाया जाता है और बड़े परिवार को पिछड़ा दिखाया जाता है। प्राकृतिक बुनियादी उपलब्धता के आधार पर बसाये गये गांव और मनुष्य के जीवन को स्थायित्व प्रदान करने वाली उसके प्राकृतिक संसाधनों जल, जंगल, खेती की प्राकृतिक व्यवस्थाओं को पिछडे़पन की संज्ञा में रखा जाता है जबकि मशीनी हस्तक्षेप से निर्मित व्यवस्थाओं को अगड़ेपन की संज्ञा मिली है। लोगों के बनाये मनोरंजन और उसको  प्रर्दिशत करने वाले प्रत्यक्ष तरीके पिछडे़पन की श्रेणी पाते हैं, आधुनिक तकनीकीकरण एवं मशीनीकरण से प्राप्त मनोरंजन के अप्रत्यक्ष माध्यमों को विकसित की श्रेणी प्राप्त होती है, अपनी मातृभाषा में संवाद पिछड़ापन है, विदेशी भाषा में बात करना अगड़ेपन की निशानी है। प्राकृतिक नियमों को जीने वाला पिछड़ा। कृत्रिम नियमों में जीने वाला अगड़ा। भौतिक सुविधाओं की अधिकता वाला व्यक्ति व समाज अगड़ा, मौलिक जरूरतों के साधनों व सुविधाओं में जीने वाला समाज पिछड़ा। ये सारे विचार बचपन से ही मन में शिक्षा में प्रयुक्त पाठ्यवस्तु के माध्यम से डाले जाते हैं। शिक्षा, विज्ञापन, और संचार माध्यमों के द्वारा लगातार इन विचारों को जन-मानस में पका दिया जाता है। किसी बात को बार-बार सुनने, कहने और देखने के बाद वह बात या विचार मानस में पक जाते हैं। और पकने के बाद आचरण में उतरते ही हैं उसका भोग होता ही है। परिणामस्वरूप इस आगे जाने और विकसित दिखने की होड़ ने इंसानियत की अहमियत और हैसियत को ही भुला दिया है। और व्यक्ति से व्यक्ति को पृथक् कर दिया है। समाज के टुकड़े हो गये है। संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार भी टूट रहे हैं और अभिभावक परिवारों की संख्या दुनिया में बढ़ रही है। 

सामान्यत: सभी मां-पिता अपने बच्चे को आगे ले जाने वाली होड़ के लिए बच्चे के जन्म से पूर्व से ही तैयारी करने लगते हैं। घर में आने पर बच्चे के लिए प्यार तो बहुत जागता है बहुत अच्छी बात है, अगर बच्चे के लिए प्यार नहीं जागेगा, किसके लिए जागेगा? किन्तु प्यार से ज्यादा जागती है चिन्ता। इस बात की चिन्ता कि हम अपने बच्चे को क्या बनायेंगे। डाक्टर, इंजीनियर और क्या? जो भी बनायेंगे, इसकी अच्छी पढ़ाई के लिए नामी-गिरामी स्कूल और उसमें पढ़ने, आगे नौकरी की तैयारी के लिए बड़े खजाने की जरूरत होनी शुरू हो जाती है। मां-पिता अभी तक जो कमायी करते हैं वह उन्हें पर्याप्त नहीं दिखती हैं अब उनको अधिक कमाई वाली नौकरी या व्यवसाय की जरूरत दिखने लगती है। ज्यों-ज्यों बच्चा कुछ बड़ा होता है, बस्ता और गले में टाई लटकाकर एक दिन मां-पिता उसे स्कूल में पहुंचा जाते हैं। बच्चे को यह नयी व्यवस्था अस्वाभाविक लगती है किन्तु कैरियर बनाना है तो उसके लिए यही रास्ता है।
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हर सुबह हर बच्चे के जीवन के लिए उदासी भरी आती है। मां-पिता खुश हैं क्योंकि बच्चे का कैरियर बनाने की शुरूआत हो रही है। किन्तु बच्चा मुँह लटकाये उदास है। कभी-कभी आँखों से आँसू भी गिरते हैं। अरे बेटे, क्या हो रहा है तू क्यों परेशान है? तू स्कूल नहीं जायेगा तो क्या करेगा? तुझे पीछे ही रहना है ठीक है फिर बकरी चराना, गायें पालना, खेती करना, मां कहती है। कभी शान्ति से तो कभी घसीट पीटकर, कभी पैदल तो कभी जालीदार गाड़ी में भरकर तो कभी अपनी कार में बिठाकर पहुंचा देते हैं वे लोग बच्चों को स्कूल गेट पर और घर में बड़े ताले लगाकर, या नौकर-नौकरानी को घर सौंपकर मां पिता भी चले जाते हैं। निकट स्कूल से बच्चे स्वयं घर आ जाते हैं, दूर वालों को गाड़ी छोड़ जाती है। इसके बाद बच्चों का क्या क्रम होता है रात के सोने तक इसको यहां लिखने की जरूरत नहीं है।

जैसे-जैसे बच्चा किशोरावस्था में आता है उनके जीवन में प्यार की अधिक जरूरत और इच्छा बढ़ती जाती है। बच्चे मां-पिता के अधिक निकट जाना और उनके साथ रहना चाहते हैं। जबकि इसी उम्र में माता-पिता समझते हैं कि बच्चा बड़ा हो गया है। अब उन्हें अधिक समय नहीं देना पडे़गा। अब हमें अपने कामों के लिए अधिक समय मिलेगा। इस तरह बच्चे के जीवन में माता-पिता के प्यार व मार्गदर्शन से छूटने की तैयारी होने लगती है। मां-पिता को कहां समय है? नौकरी भी तो करनी है, दोनों की नौकरी से और रात-दिन काम करने से ही तो पैंसे कमाये जायेंगे और जब अधिक पैंसे होंगे तभी तो बच्चों के कैरियर के लिए सोचा जायेगा। जब मां-पिता बच्चों के निकट भी हैं तब भी उनकी बातचीत के मुददे पैसा, पद गाड़ी भवन ही होते हैं। बच्चों से वह कहते हैं तुम होमवर्क करो। छुट्टी के दिन तो तुम मस्ती ही करते हो। तुम्हारी तो छुट्टी होनी ही नहीं चाहिए। परन्तु किसी भी कारण चाहे किसी बच्चे के घर में किसी की मौत ही क्यों ना हो, छुट्टी मिलने पर बच्चे हंसते हुए घर आ जाते हैं। बच्चे मां-पिता से बातें करना चाहते हैं उनके साथ रहना चाहते हैं, अपने सगे संबंधियों के पास जाना चाहते हैं। किन्तु उनको अधिकतर बहला-फुसला दिया जाता है और लालच दिया जाता है कि तुम्हें बाजार से यह दिलायेंगे वह दिलायेंगे और उन्हें वस्तुएं दी जाने लगती हैं। इस प्रक्रिया में बच्चे की एक मन:स्थिति बन जाती है। वह सामान से खुशी बटोरने की कोशिश करता है। धीरे-धीरे उसको प्राप्त  वस्तुएं कालग्रस्त होने लगती हैं जो उनको किसी कोने में फेंकनी पड़ती हैं क्योंकि उनको बार-बार देखने से ऊब आने लगती है। तब उनके मन में नयी चीजों की चाहत शुरू हो जाती है क्योंकि वस्तुएं उनके मन की जरूरत बन जाती हैं। बच्चे जब उससे उबने लगते हैं तो मां-पिता को कहना पड़ता है, अब इससे भी मन भर गया। कितना महंगा है जानता है तू।

अब एक और अध्याय बच्चे के जीवन में आता है जिसमें उसको जीने के तरीके सीखने के लिए और सही विकास करने के लिए छात्रावासों में भेजा जाता है। बच्चा मजबूर होकर छात्रावास में जाता है। ज्यादात्तर बच्चे छोटी उम्र में छात्रावास में चले जाते हैं। भाई-बहन को छोड़ना, मां-पिता को छोड़ना, अगर परिवार में अन्य लोग हैं तो उनसे अलग होना अपने में बहुत बड़ा त्याग है एक बच्चे के लिए। परन्तु इस त्याग में ही समाया दिखता है आगे का विकास और विकास का सुख।
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बच्चे अपनी जरूरत के सामान और अपने भावनात्मक प्रतीकों के साथ होस्टल में पहुंच जाते हैं। मां-पिता को भी दु:ख होता है लेकिन उस दुख में उन्हें सर्जन छिपा दिखता है।  होस्टल में बच्चे लंबे समय तक घर की याद में अपने साथियों और अन्य लोगों के साथ समरस नहीं हो पाते हैं और स्वाभाविक व्यवहार नहीं कर पाते हैं। किशोरावस्था में परिवार का प्यार व सुरक्षा मुख्य जरूरत होती है ऐसी स्थिति में जिससे भी जरूरत का प्यार मिल गया तो उनके लिए वह अपना हो जाता है क्योंकि प्यार ही तो जीने का सहारा है। यदि वहां भी प्यार का अभाव रहा तो जीवन में बुद्धि का विकास तो हो जाता है बल्कि एकतरफा बुद्धि का विकास होकर आदमी उसके विलास में लग जाता है। किन्तु भावनाओं का विकास रुक जाता है। इस तरह के बच्चे जो बाद में युवा होते हैं या युवा हो रहे हैं जब वे बाहर निकलते हैं, जो भी उनके सामने प्यार का इजहार करते हैं वे उनके साथ हो जाते हैं। उसमें अधिकांशत: बर्बाद होने की सम्भावनायें अधिक होती हैं। क्योंकि प्यार दिखाने और पाने वाले बहुत बार परिवार के प्यार से वंचित होते हैं। इस स्थिति में पाये गये किशोर या युवा को ही दोष दिया जाता है कि वह बिगड़ गया है या गलत करने लगा है। यहां यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि वास्तव में ऐसी हालात बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं। किसका दोष रहा है और उत्तर मिलेगा कि दोष तो बच्चे का नहीं पालनहारों का है। आपने उचित समय अर्थात आयु में वह नहीं दिया जो देना चाहिए था। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आपने उनके सर्जन में नाइंसाफी की है।

गम्भीर परिणामों के बाद अब यह स्वीकारना अधिक जरूरी हो गया कि प्यार और सम्मान और पारिवारिक सुरक्षा की भावनाओं का विकल्प निर्जीव वस्तुएं या सामान या सुविधाओं के साधन नहीं है। प्यार पाना और सम्मान पाना  एक स्वाभाविक जरूरत और जन्मसिद्घ अधिकार है क्योंकि मनुष्य के समग्र विकास की आधारशिला यही है। सम्मान, प्यार व सुरक्षा के इन तत्वों का संबन्ध बुद्घि, शारीरिक सौंदर्य और लिंग के आधार पर नहीं है या किसी चीज के बदले में दिया जाने वाला नहीं है।
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एक स्त्री सच्ची मां तभी हो सकती है जब वह अपने बच्चे को एक स्तर तक अपने प्यार के सहारे इंसान बनाने में मदद करती है। इतना ही नहीं, स्त्री में प्रेम करने की जो शक्ति है उससे बदलाव भी लाया जा सकता है। अर्थात अपने बच्चे से शुरू करके वह दुनियां के बच्चों पर भी अपने प्यार का असर कर सकती है। बच्चा मां के अन्दर भरे प्यार को विकसित करने में बड़ा सहायक होता है। इसलिए बच्चे से प्यार करो तो बच्चे भी प्यार करना और प्यार बढ़ाना सिखाते हैं क्योंकि बच्चे से प्यार के बदले प्यार अर्जित करने के अलावा कोई और अपेक्षा नहीं होती है। बच्चे को प्यार करने और परिवार के सम्बंधों को निभाने में एक स्त्री में त्याग करने की शक्ति अधिक है क्योंकि प्यार के कारण वह कठिन पीड़ा को भी सहन करती है इसलिए गांधीजी भी कहते है- अहिंसक समाज बनाने की ताकत स्त्री में है। क्योंकि प्रकृति ने उसको सृजन की शक्ति दी है, सृजन बिना प्रेम के नहीं हो सकता और न हीं सीमित प्रेम से हो सकता है। अत: स्त्री को अपने प्रेम को व्यापकता देनी होगी जिससे वह अपने बच्चे एवं अपने परिवार से आगे जाकर समाज को और राष्ट्र को भी उस व्यापक प्रेम के आगाज में ले सकेगी। आज स्त्री को सर्वप्रथम अपने को स्त्री रूप में समझना और अनुभव करना होगा। तभी वह अपने को एक पूरी सर्जक मां के रूप में महसूस कर पायेगी और सर्जक मां के व्यापक कर्तव्यों को भी समझ पायेगी। इसके अभाव में समाज की स्थिति बद से बदतर होती चली जा रही है। समाज में हिंसा, अनैतिकता, नशा आदि की समस्याओं का मुख्य कारण परिवार और परिवार के प्रेम से वंचित रहना है। मां-पिता ही अपने बच्चे को सबसे अच्छी तरह जानते हैं और एक उम्र तक उनके सान्निध्य में ही बच्चे का समग्र विकास होगा। हां, बहुत बार प्यार की जगह यदि अत्यधिक मोहान्धता ले लेती है तो बच्चे स्वच्छन्द हो जाते हैं तब परिवार के लिए एक समय बाद बच्चों को सम्भालना तनाव भरा कर्तव्य हो जाता है। यह भी एक कारण होता है कि बच्चों को परिवार से अलग भेजा जाता है। किन्तु यह उचित रास्ता या समाधान नहीं है। इसलिए संतुलित प्यार व लालन-पालन करने की जरूरत है। 

आज दुनियां में परिवारों के अभाव में खड़ी हुई मानव समस्याओं के बारे में विचार विमर्श हो रहा है और परिवारों को पुन: खड़ा करने की जरूरत समझी जा रही है। परिवार की अनुभूति पाने के लिए समुदाय बनाये गये जिसे अंग्रेजी में कम्यून कहा जाता है। यह विचार भी पश्चिम का ही है। उनको बनाने के प्रयास हुए किन्तु वे टिके नहीं  उनका सम्बंध खून पर आधारित नहीं था या है। वह कृत्रिम व्यवस्था है। परिवार स्वाभाविक संस्था है जहां बचपन से एक दूसरे के साथ जीने, परस्पर कर्तव्य निर्वाह के संस्कार और मूल्य विकसित होते हैं। समझ बन जाती है और हर एक व्यक्ति परिवार में जिम्मेदारी लेना सीखता है। परन्तु कम्यून तो बड़ी उम्र में विभिन्न तरह के लोगों का एक समूह होता है जिसमें मुश्किल से एक की भावना दूसरे से मिलती है। उसमें विचार प्रमुख होते हैं जबकि परिवार में भावनायें अर्थात दिल का स्थान प्रमुख होता है और वही तो इंसान का निर्माण करता है। अत: सर्वप्रथम जरूरत है मनुष्यत्व के विकास पर बात करने की और मनुष्यता की हैसियत पर सोचने की। इसके बाद ही मां और परिवार तथा शिक्षा की भूमिका, अहमियत और जरूरत की बात समझ में आयेगी और उस दिशा में काम करने के बाद ही समाधान मिलेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो कुछ भी करो समाधान नहीं मिलेगा क्योंकि वर्तमान दर्शन और जीने की पद्घति तो समस्या पैदा करने वाली ही है। जो जीवन दर्शन ही समस्या है तो उसमें रहकर समाधान की बात तो पेड़ की टहनी पर बैठकर उसी को काटने का मूर्खतापूर्ण कर्म होगा और उसमें दुख ही समाया होगा।
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