मां

मंगलेश डबराल

हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल की गद्य कृति ‘कवि का अकेलापन’ से यह अंश साभार लिया गया है। इस पुस्तक में यह अंश डायरी शैली में लिखा गया है।

कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया था कि मैं एक टेपरिकार्डर लेकर रोज एक घंटे माँ के सामने बैठ जाऊँ, उससे कुछ-कुछ पूछता रहूँ और वह जो कुछ बतायेगी उससे एक बड़ा उपन्यास बन जायेगा। गाब्रियेल गार्सीया मार्केस के उपन्यासों से भी आगे का जादुई यथार्थवाद उसमें होगा। इस बात पर कभी गंभीरता से नहीं सोचा। आज लेकिन जब माँ नहीं है और उसे गये हुए एक साल हो गया है, सोचता हूँ, कितने गजब के किस्से उसके भीतर थे। एक से एक रहस्य, रोमांचक, खौफनाक और अविश्वसनीय घटनाएं और अंधविश्वास, जिन पर वह खुद विश्वास नहीं करती थी लेकिन उन्हें विश्वसनीय तरीके से बतलाती थी। एक दिन उसने एक पहाड़ी औरत की कहानी सुनायी जिसने सिर्फ लड़कियों को ही जन्म दिया था। पांच या सात बेटियाँ होने के बाद घर के पुरुषों ने बाद में पैदा हुई लड़की को दूध की बजाय मट्ठा पिलाकर मार दिया और खेत में दफना दिया। वह औरत रोज सुबह-शाम चोरी-छिपे खेत में जाती, अपनी मरी हुई बच्ची को गड्ढे से निकालकर कुछ देर अपना दूध पिलाती और फिर वहीं गाड़कर चली आती। करीब महीने भर वह यह करती रही और फिर उसने मान लिया कि मरी संतान के लिए मोह कैसा। लेकिन फिर उसके संतान नहीं हुई- न लड़की न लड़का- हालांकि उसका पति बहुत चाहता था कि एक बेटा हो जाये। मरने के बाद मुखाग्नि देने के लिए बेटा तो चाहिए न।

अंत तक एक दुख माँ को यह रहा कि वह बचपन में और बाद में भी पढ़ नहीं पायी क्योंकि डंगवाल लोगों में- माँ डंगवाल परिवार की थी- यह माना जाता था कि पढ़ी-लिखी लड़की अपने पति को खा जाती है। इसलिए उसे पढ़ाया नहीं गया और जब वह खुद बहू और फिर हम बच्चों की माँ बनी तो हमारे घर में मेरी दो दादियों का साम्राज्य था जो घर का सारा काम करती थीं और माँ के हिस्से खेतों में काम करना, पानी लाना, लकड़ी लाना जैसी जिम्मेदारियाँ रह गयी थीं। खेत, जंगल और गाँव के नीचे पानी के दो धारे (सोते) वे जगहें थीं जिनसे माँ अधिक परिचित थी। कई बार उसने आग्रह करके खेत में काम करते हुए अपनी तस्वीरें खचवाई थीं। फोटो खिंचवाना उसे पसन्द भी बहुत था। शायद इसलिए कि मेरे पिताजी बहुत पहले कोडक का एक बॉक्स कैमरा खरीदकर लाये थे, जो हमारे गाँव में पहली बार आया था और सबको चमत्कारी चीज लगता था। बाद में मैंने उस कैमरे को पिताजी से ले लिया और कहीं खो दिया। उस कैमरे की छाप माँ के भीतर रही होगी। इसीलिए फोटो खिंचाते हुए वह सहज लेकिन शानदार ‘पोश्चर’ बनाती थी। दिल्ली में वह जब भी मेरे पास रहने आयी, रोज अखबार उठाकर जरूर देखती थी और कहती थी कि यह तो ‘जनसत्ता’ लिखा हुआ है। यह तो मैं पढ़ लेती हूँ, लेकिन जैसे ही कोई ‘लग’ (मात्रा या रेफ) आता है तो मुझे समझ में नहीं आता। अक्सर वह मेरी बेटी अल्मा से अपना नाम लिखवाकर उसे लिखने की कोशिश करती। मेरे दादाजी ने करीब सौ बरस पहले लगभग पन्द्रह सौ गढ़वाली कहावतों का संग्रह तैयार किया था। लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस से छपे उस संग्रह की ज्यादातर कहावतें माँ को कंठस्थ थीं और वह बात करते हुए अचानक कोई कहावत बोल देती। लिखना-पढ़ना या हिन्दी (मतलब ‘देस्वाली’) न जानने के बावजूद उसकी सम्प्रेषण और सम्वाद की क्षमता पर मुझे आश्चर्य होता था। हमारे घर जो भी आता उससे घंटों बात करता और प्रसन्न होकर लौटता। एक बार क्रिस्टी मैरिल अमेरिका से आयीं और दिनभर माँ की बातें सुनती रहीं। हालांकि माँ सिर्फ गढ़वाली में बोल रही थी। शाम को घर लौटकर क्रिस्टी ने जब यह बताया तो मैंने पूछा कि वे माँ की बात समझ भी रही थीं या नहीं। तो वे बोलीः एक-एक बात मेरी समझ में आ रही थी। इसी तरह एक मेरी मित्र घर आयीं और माँ के पास बैठ गयीं और जब जाने लगीं तो माँ देर तक बुढ़ापे में भी बेहद कोमल अपनी हथेलियों से उनका हाथ सहलाती रही और फिर उसने कहा कि तुम बहुत अच्छी हो, यहीं मेरे पास रह जाओ। जब भी कोई मेहमान हमारे यहाँ आता और माँ के पास बैठता तो वह हमेशा हाथ से कौर बनाते हुए उसे यह संकेत देती कि खाना खाकर जाओ।

अंधविश्वास, अशिक्षा और पहाड़ की सवर्ण व्यवस्था में पलने के बावजूद माँ कितनी आधुनिक थी, इसका प्रमाण एक बार तब मिला जब मेरा एक भतीजा शिवप्रसाद जोशी (कवि, पत्रकार और मार्केस का भक्त) अपनी सहपाठी, झारखंड निवासी शालिनी से अन्तर्जातीय विवाह करना चाहता था। शिवप्रसाद घोर पंडित जोशी परिवार की संतान है, लेकिन माँ उस समय पहली व्यक्ति थी जिसने इस विवाह का पक्ष लिया और कहा कि इन दोनों की जोड़ी बढ़िया रहेगी। ये दोनों शायद आज भी अपनी ‘दादी’ के आभारी होंगे। हिन्दू-मुसलमान, सवर्ण-अवर्ण, ब्राह्मण-अब्राह्मण की बात उसकी दृष्टि से हमेशा ही बाहर रही। यहाँ तक कि जंगली जीव-जन्तुओं के बारे में उसकी राय हम सबको चकित करने वाली थी। जंगल से घास लाते समय उसे शायद दो-तीन बार बाघ भी दिखा था और वह कहती थी कि बाघ तो बिल्ली जैसा छोटा हो सकता है और अगर उसके पास पूँछ नहीं होती तो वह साकिना (छोटी पत्तियों वाला एक पेड़) की पत्ती के पीछे भी छिप सकता है। भालू को वह सचमुच गन्दा जानवर मानती थी और कहती थी कि अगर वह पीछे पड़ जाय तो जंगल में कभी ऊपर को नहीं, नीचे की ढलान की ओर भागना चाहिए। इससे भालू के बाल उसकी आँखों पर आ जाते हैं और वह देख नहीं पाता।
(Mother by Manglesh Dabral)

मेरे बारे में माँ का ख्याल था कि मेरी बांयी आँख की निचली पलक पर जो तिल है, उसे जरा से आपरेशन से निकलवा देना चाहिए क्योंकि आँख में ऐसे तिलवाले लोग जिन्दगीभर रोते रहते हैं। आयुर्वेदिक और कुछ-कुछ ऐलोपैथी के डाक्टर की पत्नी होने के नाते उसे आपरेशन, इन्जेक्शन, हाजमा चूर्ण, ज्वरांकुश, दंशर, सितोपलादि चूर्ण वगैरह जो कई दवाएँ हमारे घर में बनती थीं, उनके नाम याद थे। मैंने तिल का आपरेशन नहीं करवाया लेकिन जब मुझसे बड़ी बहन राजलक्ष्मी ने अपने चेहरे पर जन्मजात एक लम्बे से काले तिल (लाखण) को निकलवा दिया तो माँ बहुत दुःखी हुई क्योंकि एक ज्योतिषी ने कहा था कि इस घर में पैदा होने वाला बेटा तभी बचेगा जब उससे पहले लाखण वाली एक लक्ष्मी जन्म लेगी। माँ कहती थी, ओफ्फो भाई, लाखण क्यों हटाई होगी इसने?

नियति का विधान देखिए कि जो स्त्री जीवनभर खेतों-जंगलों-पानी के स्रोतों में भागती-फिरती रही, मृत्यु ने आकर सबसे पहले उसे चलने-फिरने में असमर्थ बना दिया। बहुत समय तक वह चुपचाप, बिना कराहे पीड़ा झेलती रही। अपनी पाँच बेटियों और दो बेटों (जिनमें से एक की मृत्यु जन्म के सालभर बाद हो गई थी) को जन्म देने की पीड़ा का अनुभव उसकी आन्तरिक शक्ति बन गया होगा। शायद असह्यय पीड़ा में ही उसने मुझे, संयुक्ता, अल्मा, मोहित या प्रमोद को पुकारने की कोशिश की होगी। जब वह धर्मशिला कैंसर अस्पताल से घर लौटती तो आने-जाने वालों से कहती कि यमराज की कछहरी में अभी मेरी सुनवाई नहीं हो रही है। उसे अपनी पाँचों बेटियों से बेहद लगाव था और मेरे पिता और अपने पति के खेतों से, घर के कमरों से भी, जिनमें दवाओं की खाली शीशियाँ, टिन के डिब्बे बहुतायत में हैं और समझ नहीं आता कि उनका क्या करें। अन्त समय में मेरी पाँचों बहनें-भुवनेश्वरी, जगदेश्वरी, राजलक्ष्मी, मालती, बसु- सब आ गईं। कुछ काफी पहले और कुछ बाद में। वे उसकी सेवा करती कई रातों जागती रहीं और उन्हीं की उपस्थिति में उसने इस संसार की अन्तिम साँस ली और उसे इसी संसार में छोड़ दिया।

इस तरह एक साल बीत गया। और अब अपने गाँव डांग काफलपानी में उसका वार्षिक श्राद्ध सम्पन्न करने के बाद मैं यहाँ हूँ। घर में बहनें हैं, संयुक्ता, मोहित, कौंसवाल जी और दूसरे सम्बन्धी हैं। तस्वीरें हैं, खाली शीशियाँ और डिब्बे हैं, कई कनस्तरों में जगह-जगह माँ के रखे हुए छीमी, तोर, लोबिया के बीज हैं और एक कमरे में देवी-देवताओं की अलमारी के सामने जलता हुआ एक दिया है। मार्केस का उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स आफ सालिट्यूट’ मैं ऐसे ही अपने साथ ले आया था, लेकिन उसे पढ़ना व्यर्थ।

(1 फरवरी 2004)
(Mother by Manglesh Dabral)