संस्मरण- दस : कामरेड, यायावरी और मानवमुक्ति का स्वप्न

उमा अनन्त

नव विवाहित स्त्री-पुरुष के जीवन में एक वृहद् अध्याय जुड़ जाता है। जनक दुलारी सीता ने राम-वनवास को अपनाने का दृढ़ निश्चय कर डाला। वनवास के पश्चात् उनका भविष्य अशोक वाटिका में कैद होकर रह गया। भीषण मानसिक दुख से गुजरना पड़ा। लक्ष्मण ने बड़े भाई की आजीवन सेवा का व्रत ले रखा था। उनकी पत्नी चौदह वर्ष तक पति की बाट जोहती रही। चौदह वर्ष के पश्चात् वह एक प्रौढ़ा-स्त्री थी। रावण  की पत्नी मंदोदरी अत्यन्त सुन्दर, गुणवान तथा पति-भक्त थीं। वे भी अपने दशानन को सीता के प्रति क्रूर व्यवहार से रोक नहीं पाईं। पर-स्त्री पर की गई कुदृष्टि का परिणाम कितना भयावह होगा, समझ नहीं पाई। अमृता प्रीतम की पंजाबी कविता का अनुवाद करती हूं-

सचिवालय में मध्यान्तर में पांच सहेलियां झाड़ियों के पास खाना खाने बैठीं एक ने अपनी छतरी की तरह अपने गुलाबी दुपट्टे को सिर पर डाल दिया। हंसती रही, खिलखिलाती रहीं, चारों रूप-र्गिवताओं ने अपने भविष्य की बहुत सुन्दर कल्पना की। उनमें से सबसे सुन्दर कन्या का पति आजीवन अत्यन्त रूपमती होने का दंड उसे देता था। उसके रूप से वह त्रस्त था तथा संशय और शक की दृष्टि से देखता था। ‘रूप रखै भाग खावै’ की उक्ति ही चरितार्थ हुई। सब से सांवली तथा साधारण नयन-नक्श वाली युवती ही पूर्ण-रूपेण पति के प्यार की भागी रही। पति-पत्नी एक-दूसरे पर हावी न हो जायें कि प्रेम-गली अत्यन्त संकीर्ण हो जाय और जीवन में कुंठा, संत्रास और घुटन का समावेश हो जाए।

अनन्त जी ने उस दिन बड़े ही प्रेम से समझाया कि हम दोनों कामरेड की तरह जीवन प्रारम्भ करेंगे। ‘कामरेड’ शब्द की व्याख्या जब मेरी समझ में नहीं आई तो उन्होंने कहा हम जीवन भर दोस्त, मित्रवत, यानी साथी बन कर रहेंगे। पति-पत्नी की तरह एक-दूसरे में खोट निकालने की चेष्टा में अपना सम्पूर्ण जीवन नष्ट नहीं करेंगे।

फिर उन्होंने पूछा खाना-बनाने में तुम्हारी रुचि है? मैंने उत्तर दिया, अधिक नहीं। क्या-क्या बनाती हो? मैंने उत्साहपूर्वक कहा, भरवे आलू के समोसे, नॉन वेज क्रीम के समोसे, होली पर गुजिया, मट्ठियां और… अरे, बहुत है आज चावल, दाल और हरे प्याज की भुजिया बना लेंगे। मसूर की दाल तुम्हें अच्छी लगती है तो दालों के डिब्बों की ओर असहाय दृष्टि से देखते हुए उन्होंने भांप लिया कि मुझे दालों की पहचान ही नहीं है। एक-एक डिब्बा दिखाकर उन्होंने दालों से मेरा परिचय कराया। फिर शांत भाव से कुकर में पीली दाल चढ़ा दी। मैंने तक तक हरी सब्जी बारीक काट दी थी। उन्होंने उसे भली-भांति धोकर कढ़ाही में डालकर चढ़ा दिया।

अनन्त जी ने बताया कि बॉम्बे में चॉल में हमें स्वयं ही खाना बनाना पड़ता था। उसी समय-काल में खाना बनाना सीख लिया। मैंने शरमाते हुए कहा ‘‘मां ने कभी खाना बनाने के लिए जोर नहीं दिया। हमेशा यही कहा, पढ़ाई-लिखाई में मन लगाओ। खाना बनाना तो गांव की अनपढ़ लड़की भी सीख लेती है। पढ़ाई-लिखाई ही भविष्य में काम आएगी। दूसरे पकवान तो मैंने त्योहारों के समय मां का हाथ बंटाने के लिए सीख लिये।’’

उन्होंने कहा, तीसरी बात मैं यह बताना चाहता हूं कि मेरे भीतर एक यायावर है। नया देश, नये लोग, नये व्यक्तित्व मेरा ध्यान खींचते हैं। नवीनता ही लेखक को कुछ नया लिखने के लिए पे्रेरित करती है। यह यायावरी की स्ट्रीक उस इंसान को केवल छटपटाहट देती है, उद्वेलित करती है, भटकाने की तीव्र दिशा की ओर जोड़ देती है। वह अपने आसपास के परिवेश से उखड़ा हुआ महसूस करता है। इस घुमक्कड़ी के चक्रव्यात में घूमता-फिरता शायद वह अपनेपन में नहीं रहता। ऐसे व्यक्ति पर क्रोधित होने का कोई लाभ नहीं क्योंकि वह अपनी फ़ितरत बदल नहीं सकता।

मेरे साथ रघुमल विद्यालय में उषा नाम की एक लड़की पढ़ती थी। गौरवर्ण, तीखे नयन-नक्श, सौम्यता और सादगी की र्मूित। हम सब सहेलियां उसे बेदह प्यार करती थीं। उसके पिता भी यायावर प्रकृति के व्यक्ति थे। उषा उनके किस्से हमें सुनाती थी। उसके पिता लेखक थे। यायावरी पर वृत्तांत भी लिखते थे।
(Memory by Uma Anant)

देवेन्द्र सत्यार्थी की बेटी उषा एक बार गंभीर रूप से रोग ग्रस्त हुई। उसके बचने की उम्मीद भी कम ही लग रही थी। देवेन्द्र सत्यार्थी जिस स्थान पर भ्रमण करने के लिए कह गए थे, वे उससे भी आगे निकल गए। पता ही नहीं चला, बेटी के रोग ग्रस्त होने की सूचना किसी भी प्रकार उन्हें नहीं दे पाए क्योंकि यह पता ही नहीं था कि वे इस समय कहां विचरण कर रहे हैं। उषा की आतुर दृष्टि पिता की प्रतीक्षा में एकटक दरवाजे पर टिकी थी। कब उसके प्राण-पखेरू उड़ गए, हम सब हतप्रभ रह गए।

हम सब सहेलियों को उसके यायावर पिता देवेन्द्र सत्यार्थी जी पर बेहद गुस्सा आया था। उस समय हम सब बहुत छोटे थे। यायावरी की स्ट्रीक में व्यक्ति चक्रवात में फंसे होने की मज़बूरी महसूस करता है। वह बहुत विवश होता है। शायद यह आरोप एकतरफा था। अभी भास्कर उप्रेती बता रहे थे कि कमल जोशी अच्छे दृश्यों को कैमरे में कैद करने के जुनून में घंटों एक स्थान से दूसरे स्थान की भयानक ठंड में यात्रा करते थे। उनकी मोटर साइकिल और पैंट की दोनों जेबों में ठूंसी सांस से सम्बन्धित औषधियां भरी रहती थी। ‘युगवाणी’ पत्रिका के कवर पेज पर उनका खींचा फोटोग्राफ तथा पत्रिका के मध्य में उससे सम्बन्धित लेख पढ़ने का अपना ही एक आनन्द होता था। पौड़ी गढ़वाल से मोटर साइकिल पर लंबी यात्रा, रामगढ में कार्यक्रम में सम्मिलित होने के बीच में भवाली की हमारी कुटिया में विश्राम लेना  आनन्दवर्धक क्षणों का प्रतीक था। अत्यन्त संवेदनशील, सहृदय, साहसी, मिलनसार यायावर प्रकृति का वह व्यक्ति हम सबका प्रिय था।

यायावरी की कुछ पर्तें मन के भीतरी प्रकोष्ठों में दबी रहती हैं। उचित समय मिलते ही वे दैत्याकार रूप धारण करने लगती हैं। दयानन्द जी के पिताश्री पूरणानन्द जी का विद्रोह को दबाने में भारतीयों की सहायता की आवश्यकता हुई तो संतानों के पिता होने के बावजूद उन्होंने द्वितीय महायुद्ध में अपना नाम लिखवाकर अंग्रेजों को सहायता का आश्वासन दे डाला।

उस युद्ध में पूर्णानन्द जी ने अपने जीवन की आहुति दे दी। मरणोपरान्त उनका कपड़ों का बक्सा, गोल्ड मैडल और प्रशस्ति पत्र नैनीताल पहुंचा। मैं यह उद्धरण उनके द्वारा ही अनन्त जी को लिखी अपनी बात से उद्धृत कर रही हूं।

बचपन में मैं संन्यासी बनकर मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करना चाहता था। तब मेरी उम्र दस-ग्यारह वर्ष की रही होगी। इसी कच्ची उम्र में भर्तहरि शतक, स्वामी रामतीर्थ की जीवनी और वेदांत पर एकाध पुस्तकें पढ़ चुका था। ऋषिकेश के स्वामी शिवानन्द को मैंने पत्र लिखा कि मैं आश्रम में रहकर जनसेवा करना चाहता हूँ। स्वामी जी ने मेरे पत्र का उत्तर देते हुए मुझसे कहा मैं कुछ समय आश्रम में रहकर फिर कोई निर्णय लूं…..लिखते हैं। जाहिर है, नैनीताल से निकला दयानन्द अब धर्म के जरिये मानव-मुक्ति की कल्पना नहीं कर सकता था। सकल मानव की सेवा ही अब उसका मुक्ति-धर्म बन गया था। एक किस्म की नैसर्गिक फकीरी उर्दू शायरी, संस्कृति कर्मियों की संगत और साहित्य में अपना भविष्य देखने की चाहत ने इस नये किस्म के अनंत को बनाया था।… जीवन में केवल मित्र ही कमाए हैं, यही उनका जोरदार शब्दों में कहना था। संवेदना और सोच जब हद से इंतिहा बन जाती है तो बार-बार चोट करती है और न सह सकने की कगार तक पहुंच जाती है। तब व्यक्ति जागता है और उस उलझन से अश्रु अनायास ही बहने लगते हैं और यही छटपटाहट उसके सोच की गहरी जड़ों को मजबूत करती है, मन-मस्तिष्क के जिन्दा होने का अहसास दिलाती है।

कबीर कहते हैं सारा संसार ऊहापटक में व्यस्त है, अपने दुख से दुखी और अपने सुख में मग्न हो कार्य करता है। थक जाता है, मात खाता है और सुख की नींद सो जाता है। किसी के सरोकार से उसे मतलब नहीं। पर दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै। कबीर जागता है और रोता है। उसके मन की छटपटाहट उसे सोने नहीं देती। इस मन की यायावरी उसी कांटों की सेज पर करवटें बदलने पर विवश करती है। ‘सब ते भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत-विधि।’

टिहरी-गढ़वाल पहुंचने पर विद्यासागर नौटियाल ने हमारा र्हािदक स्वागत किया। टिहरी के एक अच्छे होटल में उन्होंने हमारे रहने का बन्दोबस्त किया था। उन्होंने अनन्त जी से कहा बहिन पहली बार मायके आई है, होटल से यहां रहने तक की अवधि का खर्च वे ही वहन करेंगे।

क्रमश:
(Memory by Uma Anant)
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