मुल्तान से चांदनी चौक : संस्मरण- 1

उमा अनंत ढौंढियाल

मेरा जन्म मुल्तान शहर में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। मेरे दादाजी टिहरी रियासत के सुपरिटेंडेंट (भण्डार) थे और उनके पिता राजपुरोहित रहे थे। टिहरी के सरोले ब्राह्मण परिवार में जन्मे मेरे पिता पं. गंगा प्रसाद नौटियाल का बचपन बहुत कष्टप्रद था। माँ की अकाल मृत्यु होने से उनके पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। यहीं से सौतेली माँ के क्रूर व्यवहार ने उनके जीवन को दुखों से भर दिया। विद्यालय से पढ़कर घर लौटने पर खाना न मिलने पर तीन मील दूर अपने मामा-मामी (जो नि: सन्तान थे) के घर भोजन करते थे। क्योंकि मामी इनकी आतुरता से प्रतीक्षा करती थीं। दसवीं कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर टिहरी से उनका मन विरक्त हो उठा और ये अपने दो मित्रों सहित चुपचाप टिहरी छोड़कर पंजाब पहुँच गये। एक अनजाने शहर में एक पीपल के खोखल में भगवान ब्रदीनाथ की ताम्र मूर्ति रखकर अश्रुपूरित नेत्रों से पूजा कर रहे थे कि घोड़े पर सवार एक अंग्रेज ने उनसे रोने का कारण पूछा। उसने आश्वासन दिया कि तुम चाहो तो शॉर्टहैण्ड और टाइपिंग का कोर्स लखनऊ विश्वविद्यालय से अच्छे अंक लेकर वापस आओ तो मैं तुम्हारी पुलिस में नौकरी की व्यवस्था कर दूंगा। लखनऊ से अच्छे अंक प्राप्त कर उन्होंने पुलिस की नौकरी प्राप्त की। यहीं पर उनका परिचय मेरे दो मामाओं से हुआ। मेरे नाना मुल्तान में रेलवे स्टेशन मास्टर के पद पर आसीन थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने प्राप्त धनराशि ‘लक्ष्मी बैंक’ में जमा कर दी थी। एक दिन बाजार से घर आते हुए उनको एक मित्र ने सूचना दी ‘बंधु मोशाय’, लक्ष्मी बैंक दिवालिया घोषित हो गया है। मेरे नाना इस अकस्मात सूचना के आघात को सहन नहीं कर पाये, जिसके फलस्वरूप सीढ़ियों से लुढ़कते हुए नीचे गिर पड़े और फिर कभी नहीं उठे। नानी पर तो मानो वज्रपात हो गया। दो बेटों और एक बालिका के लालन-पालन का दायित्व अब उन्हीं को उठाना था। मेरे बड़े मामा चौदह-पन्द्रह वर्ष के थे जो पतंगें बनाने में माहिर थे। पतंगों का थोक कागज लाकर वे नाना-प्रकार की पतंगें बनाते और दुकानदारों को देकर पैसे वसूलते। उनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर नानी के बड़े भाई बच्चों और नानी को कलकत्ता ले गए। नानी बड़े भाई के घर का झाड़ू-पोछा, खाना-बनाना, कपड़े धोना आदि काम करती लेकिन एक घटना ने नानी को झकझोर कर रख दिया, जब किसी अतिथि के घर आने पर परिवार का परिचय जानना चाहा तो भाई ने उत्तर दिया कि एक गरीब विधवा की सहायता कर रहा हूँ और इसे बच्चों सहित घर में आश्रय दिया है।
(Memory by Uma Anannt 1)

नानी के आत्मसम्मान को इन शब्दों ने हिलाकर रख दिया और अगले ही दिन वे मुल्तान के लिए रवाना हो गईं। ऐसे में इस बंगाली दत्त परिवार का परिचय मेरे पिताजी से हुआ। मेरे दोनों मामा वैसे भी पिताजी के हमउम्र थे। समय के आघातों ने नानी को झकझोर कर रख दिया था। वे बीमार रहने लगीं। तभी डाक्टर ने बताया कि नानी के पेट में कारबंकल फोड़ा है, जो कैंसर का रूप ले चुका है। मेरी माँ उस समय केवल दस वर्ष की थीं। नानी को रुग्णावस्था में कराहते और रोते देख मेरे पिता ने आश्वासन दिया कि मैं उनकी पुत्री का हाथ थामने को तैयार हूँ। मेरे पिताजी उस समय सत्ताइस वर्ष के थे और गढ़वाली ब्राह्मण परिवार के थे। आयु के इस अन्तर को देखकर मेरे दोनों मामाओं ने इस बेमेल विवाह का घोर विरोध किया परन्तु नानी ने अपने गिरते स्वास्थ्य के मद्देनजर इस विवाह के लिए हामी भर दी। नानी को चिंता थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात् दोनों बड़े भाई कदाचित इस विवाह के प्रति उदासीन हो जाएं और अन्तत: बंगाल के कायस्थ परिवार की इस दत्त परिवार में जन्मी मेरी माँ सुशीला देवी एक गढ़वाली परिवार की सदस्या हो गई।

बाद में मेरे पिता का तबादला हिसार में हो गया और एक ही वर्ष के पश्चात् पुरानी दिल्ली की कोतवाली में पुन: तबादला कर दिया गया। दो भाइयों के बाद मेरा जन्म हुआ। कन्या के जन्म के समाचार से मेरे पिता खिन्न हो उठे और उन्होंने मेरी माँ से बातचीत करनी तक बन्द कर दी। इस अवहेलना के फलस्वरूप मेरी माँ सख्त बीमार हो गईं। रोग ग्रस्त ननद को उनकी भाभी यानी मेरी मामी आगरा ले आईं। मामा की दृष्टि में उनकी बहिन के रोग ग्रस्त होने का कारण केवल नवजात कन्या थी। मामा ने सुझाव दिया कि एक बार मुगल शहंशाह बाबर का पुत्र हुमायूँ बहुत ज्यादा बीमार हुआ तो सिद्धहस्त हकीमों ने सुझाव दिया कि रुग्ण हुमायूँ स्वस्थ हो सकता है यदि बाबर उसके पलंग के सात फेरे लगाए और खुद से उसके दीर्घायु होने की कामना करे। कहा जाता है, बाबर के ऐसा करने से हुमायूँ धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा। मुझसे सम्बन्धित समस्या के इस हल का माँ ने पुरजोर विरोध किया और बात आई-गई हो गई।
(Memory by Uma Anannt 1)

चाँदनी चौक से रिक्शे में बैठकर अगर कश्मीरी गेट की तरफ आओ तो बाँए हाथ पर एक बड़ा कैथोलिक चर्च दिखाई देगा। चार-पाँच की उम्र हो जाने पर मेरा दाखिला उसी चर्च की प्रायमरी कक्षा में करा दिया गया। सिस्टर बहुत ही मनोयोग से पढ़ाती थी। छुट्टी के बाद चर्च के बाहर फैले हुए अहाते में बड़े-बड़े इमली के पेड़ बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र थे। वृक्ष पर लटकती ताजी-ताजी इमलियों तक तो हमारा हाथ नहीं पहुँचता था लेकिन पेड़ों के नीचे गिरी इुई इमलियाँ हम सब बच्चे खूब चटखारे लेकर खाते थे।

एक दिन एक ऐसी घटना घटी जिसने सब बच्चों को हिलाकर रख दिया। सर्दी के दिन थे। हमें पढ़ाने वाली सिस्टर दीदी को बुखार था। समस्त कक्षा चुपचाप लिखने का कार्य कर रही थी। ठंड के कारण सिस्टर के पाँव के पास एक सग्गड़ रखी हुई थी जिसकी गर्मी पूरे कमरे को गर्माई दे रही थी। एक सात-आठ साल की लड़की धीरे-धीरे सिस्टर के पाँव दबा रही थी। अचानक वह लड़की पाँव दबाते हुए कुछ समय के लिए रुक गयी। इसी बात से रुष्ट होकर सिस्टर ने उस लड़की को क्रोध से डाँटते हुए एक लात मारी कि वह लड़की जलती हुई सिग्गड़ पर गिर पड़ी। उसकी चीख और रुदन से पूरा चर्च गूँज उठा। हम सभी लड़कियाँ हतप्रभ-सी उसे जलती हुई सग्गड़ पर तड़पता देख काँप उठी और जोर-जोर रोने लगीं। घर पहुँचकर मुझे तेज बुखार हो गया और वह शायद उस स्कूल में मेरा आखिरी दिन था।

मेरे छोटे मामा उपेन्द्रनाथ ‘दत्त’ नाम के तख्ल्लुस से उर्दू में शायरी भी किया करते थे। रविवार का दिन था। वे घर पर आये तो बातों-बातों में उन्होंने मुझसे पूछा- ‘उमा, तुम विश्व के सात अजूबों के बारे में जानती हो?’
(Memory by Uma Anannt 1)

मुझे इतना ज्ञान नहीं था लेकिन मैंने उत्तर दिया कि मैं पुरानी दिल्ली के आठ अजूबों के बारे में जानती हूँ। मामा ने कहा- अच्छा, तो बताओ। पहला अजूबा है कश्मीरी गेट से आगे तुर्कमान गेट यानी ‘खूनी दरवाजा’ जहाँ आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के पोतों के सिर काटकर एक थाल में रख कर और लाल कपड़े में लपेटकर दिल्ली के मुगल शहंशाह को भेंट दिये गये थे। दूसरा अजूबा है शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया भव्य लालकिला। तीसरा अजूबा है सड़क पार करने पर विशाल जामा मस्जिद। चौथा अजूबा है चाँदनी चौक के चौरस्ते पर बना पक्षियों का अस्पताल, जहाँ अस्पताल की छत पर सर्दियों में बीमार पक्षी अपनी चोंच पर में छुपाये बैठे दिखाई देते हैं। पाँचवा अजूबा है सिक्खों का गुरुद्वारा, जहाँ तेगबहादुर जी का सिर काटा गया। छटा अजूबा है सिर उठाये घंटाघर और सातवाँ अजूबा है इतरा-इतरा कर ठसके से चलने वाला, सफेद शफ्फाक लाका कबूतर।

आठवाँ अजूबा है चाँदनी चौक की पतली से पतली गली में लाखों-करोड़ों का व्यापार सिर्फ  जबान के भरोसे बिना किसी बहीखाते के। मामा मेरा उत्तर सुनकर अनायास ही चुप हो गये। उन्होंने कुछ देर बाद कहा- ‘उमा, तुमने तो पुरानी दिल्ली की सौगातों को विश्व के सात अजूबों से भी ऊँचा स्थान दे डाला। चाँदनी चौक में सुबह-सुबह प्रभात फेरियों की पवित्र ध्वनि और दुकानों के खुलने पर भिश्तियों का मशक (पानी से भरी हुई) लेकर छिड़काव करना बहुत ही सुखद दृश्य था।’
(Memory by Uma Anannt 1)

धीरे-धीरे मेरा पुरानी दिल्ली से मोह बढ़ता गया। मेरी दो सहेलियाँ मुनव्वर सुल्तान और बिल्कीस बेगम से मेरा वास्ता बढ़ता गया। मुस्लिम संस्कारों को करीब से देखने का मौका मिला। हम दोस्तों ने यह फैसला लिया कि मैं उन्हें हिन्दी पढ़ाऊंगी और वे दोनों मेरा परिचय उर्दू से करायेंगी।

छत पर कबूतरों के झुण्ड उनको आ आ करती आवाजें। दूसरी छत पर भी कबूतरों के झुण्ड-आकाश में सब गडमड हो जाते। वहीं जीत के जश्न की आवाजों से गली गूँज जाती। कबूतरबाजी और बैतबानी का यह खेल भी अजीब था। कभी-कभी आकाश पर विभिन्न आकारों की पतंगें माहौल को उत्तेजना से भर देतीं और कभी कोई पतंग कट कर पाँव के पास आ गिरती तो उसे लेकर घर के अन्दर छुपाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते।

एक बार चाँदनी चौक में भोलानाथ ज्वैलर के साथ की गली में माँ की सखी जानकी रहती थी। जानकी अपना खाना सिर्फ अपने लिए बनाती। उनका कहना था कि उनके पति दीनदयाल गिरवी रखे हुए गहनों का ब्याज लेते हैं। जानकी पति की इस कमाई को पाप समझती थी।  मैं उनके उन संस्कारों पर मुग्ध थी कि वे अपनी आजीविका लोगों के छोटे-मोटे कार्य करके र्अिजत करती थीं। एक बार चाँदनी चौक बाजार जाते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। पीछे आते हुए व्यक्ति ने मुझे पुकारा- बहिन, मेरा नाम शांति है। तुम इस क्षेत्र में नई-नई आई लगती हो। चाँदनी चौक से फतहपुरी तक मेरा क्षेत्र है। यहाँ तुम बेधड़क आ-जा सकती हो। कोई तुम पर बुरी दृष्टि डालने की हिम्मत नहीं करेगा। सुदृढ़, काला भुजंग शरीर, तेल से चिपड़े बाल, नुकीली ऊपर को उठी हुई मूँछें और बोलचाल में दृढ़ता और आश्वासन। वह इस एरिया का गुण्डा था। कुछ समय तक तो मुझे पता ही नहीं चला कि वह क्या कहना चाहता था लेकिन उसकी सोच ने मुझे आश्वस्त कर दिया था और मेरी घबराहट दूर हो गई थी। वह व्यक्ति तेजी से एक पुतली सी गली की ओर मुड़ गया। उसके बाद वह कभी दिखाई नहीं दिया।
(Memory by Uma Anannt 1)
क्रमश:

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