संस्मरण : ये लड़की

गीता गैरोला

घने कोहरे के बीच पतली सी पगडंडी में दो चोटी बनाएं सिर पर बस्ता टाँगे खेत की बाड़ से मोटी सी लकड़ी खींच कर सरपट दौड़ लगाती ये लड़की कौन है? झक बैंगनी फूलों से भरे आडू के पेड़ के नीचे नयार से लाई गोल-गोल बट्टी खेलती, खेल में हारकर अपनी सहेलियों से झगड़ती ये कौन है।

15 अगस्त की प्रभातफेरी में सबसे आगे तिरंगा झंडा उठाए विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झण्डा ऊँचा रहे हमारा गाती ये कौन है।

जनवरी की ठिठुरती भोर की प्रभातफेरी में भारत माता की जय हो नारे लगाती ये कौन है?

सिर में पानी की गागर रखे अपनी दादी के आगे-आगे एक पैर से उछलती ये कौन है। तम्बाकू पीने छज्जा में बैठे दादा जी के घुटनों में झूलती दादा जी के साथ सुर मिला कर मस्ती से गाती ये लड़की कौन हैं –

घुगती करे जुगती मुकती
पिछवा करे घोल
दो पैसे की गीता लड़की
इसको ले लो मोल।

रात को बिस्तर में घुसते ही दादी के दोनों घुटनों को मोड़कर उन पर झूलती लड़की कौन है।

घुघूती बासदी क्या खांदी दुध भाती

दादा जी का खाकी पिट्ठू पीठ पर लगाए सिर पर गाँधी टोपी और गाँधी जी जैसा ही दादा जी का गोल चश्मा लगाए दादा जी की नकल उड़ाती ये कौन है।

जेठ की भरी दुपहरी में ताम्बे की तम्बोली को सिर पर धरे पन्देरे का ठण्डा पानी लाती कौन है ये लड़की।

भरपूर चौमासे की धारोंधार बरसात में परमा चाचा के खेतों से सराबरी में अपनी नन्ही सी टुणक्याली दाथी से हरा-हरा घास चोरी से काटती ये कौन है। छोटी सी गंज्याली से धमाधम धान कूटती कौन है ये लाल-लाल गालों वाली मोटू सी लड़की ।

एक ठेट पहाड़ी लड़की, जन्माष्टमी के दिन ठीक आधी रात को पैदा हुई थोड़ी सी अनचाही सी। अनचाही इसलिए कि पहले ही एक नातिन होने के बाद दूसरी भी लड़की होने पर दादी की ठंडी सी सांस आई होगी। सुना है बड़ी दादी ने उसके होने पर दाई से कहा, फेंक दो इस छोरी को। दाई थी समझदार व्यावहारिक और दोनों दादियों की सास, सो दोनों ब्वारियों को एक डांट मारी। चलो गरम परनी लाओ प्रसूता ब्वारी को नहलाना है। सुना है उसके दादा जी ने कहा कि कृष्ण की गीता आ गई और उसका नाम कृष्णा पड़ गया।

कृष्णा के पिताजी की पोस्टिंग उस समय बिजनौर थी। उन्हें दादा जी ने एक पोस्टकार्ड लिख भेजा द्वितीय पुत्री की प्राप्ति हुई। पिताजी ने कृष्णा के पैदा होने पर क्या सोचा ये नहीं पता। हाँ एक बात उसे याद है जो पिताजी मजाक में कहा करते थे। उसके पीटे एक भुली है रीता और रीता के बाद एक और बेटी हुई, काले झबरे बालों और गुलाबी रंगत वाली नीरू। जो दो साल की होते-होते मर गई। जब भी पिताजी कृष्णा और रीता की उंगली पकड़ कर गांव में घुमाने ले जाते और कोई पूछता, बेटा, बेटियों का लाड़ हो रहा है। पिताजी फौरन हंसते हुए जवाब देते चाची लाड़ तो मैं सबसे ज्यादा अपनी बेटी नीरू से करता हूं, जो दो साल की होते ही मुझ पर मेहरबानी दिखा कर चली गई। ये दोनों पता नहीं कब दिखायेंगी  वैसी मेहरबानी।

ऐसे तो ये मजाक होता, पर मन में छिपी कसक कह देता। पूरे परिवार में कृष्णा के पिताजी सबसे बड़े भाई थे। और दूसरी पीढ़ी में कृष्णा की दीदी को सबसे बड़ी नातिन होने का भरपूर फायदा मिला। दूसरे नंबर की बेटी होने पर बच्चों का चाव कुछ कम हो गया होगा। उस पर दीदी अपने चुलबुलेपन से सबकी आँखों का तारा बनी रहती, मोटी गुद्गुदी लाल-लाल गालों घने भूरे-काले झबरे बालों वाली कृष्णा जैसी बच्ची के हिस्से दादा जी और चाचा का प्यार ज्यादा आया।

वो जब कभी बीमार होती। बड़ी दादी उसकी गुद्गुदी पीठ में एक धौल जमा कर कहती अरे इसे कुछ नहीं होगा लड़कियाँ जीने के मामले में बड़ी छित्ती (बेशर्म) होती है। हर घर की बड़ी बूढ़ी औरतें अपनी जिन्द्गी की मुश्किल स्थितियों को झेलने के कारण नई जन्मी बच्चियों को उनकी छित्ती जिन्द्गी जीने का सबक सिखाती है। कृष्णा की माँ एक किस्सा हमेशा सुनाती थी, सावन भादों के चौमासे से लेकर अक्टूबर अंत तक पहाड़ी औरतों को खेती के काम में दिन-रात की याद नहीं रहती। कहावत है कि रोपणी और मंडाई के समय किसी घर में मौत होने पर घर वाले मुर्दे को कमरे में बंद करके चले जाते हैं। भंगई का काम खत्म होने के बाद ही लोगों को मुर्दा फूंकने की याद आती। कौन जाने सरग से कब ओलों की बौछार हो जाये खेत में खड़ी फसल बटोरने से ही घर वालों के मुँह में अन्न के दाने जा पायेंगे। ऐसे कमेरे दिनों में बच्चों की किसे होश। कृष्णा की दीदी को भी माँ और दादी एक कमरे में बंद कर खेत में चली जाती थी। ये 1952 की बात होगी, दादा जी की पोस्टिंग उस समय श्रीनगर में थी। कोट्द्वार से बद्रीनाथ-केदारनाथ तक श्रीनगर थाने के अंतर्गत आता था। अचानक दादा जी उसी दिन टुट्टी ले कर गाँव आ गए। क्या देखते हैं कि पंइयाँ-पंइयाँ चलने वाली नन्ही सी नातिनी सरक-सरक कर कुठार के पीटे चली गई। हिचकी ले-ले कर रोती नातिनी को कुठार के पीटे से निकाला, नहला धुला दूध गरम कर पिलाया। उसी दिन से घर में ये नियम बन गया चाहे कितना ही काम क्यों न हो, सरू की देखभाल के लिए एक व्यक्ति घर में जरूर रहेगा।

उस समय दादा जी की उम्र लगभग 50 वर्ष थी। नौकरी के आठ साल बाकी थे। गाँव में खेती बाड़ी के साथ बच्ची की देखभाल नहीं हो पा रही थी, इसी लिए दिसंबर 1952 में दादा जी रिटायर मेंट लेकर गाँव आ गए। गांव सबसे नीचे रेल के डिब्बे जैसा घर पूरे गाँव में अलग दिखता। 18 बास के बड़े से घर की छज्जा आर से पार लोहे की जाली वाला लाल पेंट से पुता जगलें से ढ़की थी। पूरा घर हरे पेन्ट से पुते देवदार के फूल पाी के डिजाइन वाले दरवाजे में सजा हुआ था। बहुऐं पूरे घर की बाहरी आधी दीवार को नीचे से लाल मिट्टी से पोतती। ऊपर की आधी दीवार सफेद कमेड़ा से पोत कर झकाझक रखती।

लाल मिट्टी और सफेद कमेड़ा की खाने पहाड़ी गाँव की सीमा से लगे जंगल में थी। सारे गाँव की बहू बेटियां घर की पुताई करने के लिए खानों से सफेद कमेड़ा और लाल मिट्टी लाती। कमरों के अंदर की दीवारें और फर्श की लिपाई इसी लाल मिट्टी में गोबर मिला कर की जाती। गाँव के आस-पास के इलाकों में कृष्णा और सरू के दादा जी का बड़ा नाम और सम्मान था। उस घर की गिनती खाते-पीते सम्पन्न और शिक्षित घरों में होती। बड़े होने के बाद कृष्णा और सरू अक्सर दादाजी से कहते। दादा जी तुमने कोटद्वार में घर क्यों नहीं बनाया। यहाँ गाँव में वापिस क्यों आ गये। दादा जी बहुत ही गर्व से कहते वो मेरी कर्मभूमि थी वहाँ मैंने कमाया और परिवार के प्रति जिम्मेदारी का ऋण चुकाया। ये मेरी जन्म भूमि है। अभी इसका ऋण चुकाना बाकी है। स्नेह से दोनों बच्चियों के सिरों को सहलाते और सबसे कहते बेटा तुम सब मेरी बात गांठ बांध लो। कमाई विदेश में और रहना देश में शहरों में जलते बिजली के लहू,  सड़कों पर दौड़ती गाड़ियाँ बहुत आकर्षित करती, कौन दादा जी अपने बच्चों के भगोड़े मनों को उसी समय पहचान गये हों तभी तो बात-बात में अपने गाँव-घर के लगाव की कहानियाँ सुनाते रहते थे।
क्रमश:
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